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‘महाराष्ट्र विशेष जनसुरक्षा विधेयक 2024’ पर राज्य में विवाद गहराता जा रहा है. विपक्ष ने इस क़ानून को ‘अर्बन नक्सल’ के नाम पर विरोध की आवाज़ को दबाने की कोशिश बताया है.
10 जुलाई को महाराष्ट्र विधानसभा में एक ऐसा विधेयक पारित हुआ जिसे हालिया समय के सबसे विवादास्पद क़ानूनों में गिना जा रहा है.
यह विधेयक ‘वामपंथी उग्रवाद’ से निपटने के नाम पर लाया गया है. इसे ‘शहरी नक्सलवाद’ के ख़िलाफ़ कदम बताकर सरकार ने प्रचारित किया है, लेकिन विधानसभा से लेकर सड़कों तक इसे लेकर विरोध हो रहा है.
मुख्यमंत्री और गृह मंत्री देवेंद्र फडणवीस का पेश किया गया ‘महाराष्ट्र विशेष जनसुरक्षा विधेयक 2024’ विधानसभा में बहुमत से पारित हुआ. अगले ही दिन यह विधान परिषद में भी पास हो गया.
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विपक्ष ने सदन से वॉकआउट कर इसका विरोध किया. यह विधेयक अब क़ानून बनने के लिए राज्यपाल की मंज़ूरी का इंतज़ार कर रहा है.
राज्य सरकार का कहना है कि यह विधेयक ‘वामपंथी चरमपंथ’ या उनसे जुड़े समान संगठनों की ‘अवैध गतिविधियों’ पर लगाम लगाने के लिए लाया गया है.
महाराष्ट्र ऐसा क़ानून बनाने वाला पहला राज्य नहीं है. इससे पहले तेलंगाना, आंध्र प्रदेश, छत्तीसगढ़ और ओडिशा इस तरह के विशेष सुरक्षा क़ानून लागू कर चुके हैं.
इस विधेयक पर इतना विवाद क्यों?
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बीजेपी के नेतृत्व वाली राज्य सरकार ने इसे लागू करने को लेकर सख़्त रुख अपना रखा है.
वहीं विपक्षी दलों, सामाजिक और राजनीतिक संगठनों, आंदोलनकारियों और कई क़ानूनी विशेषज्ञ इसके प्रावधानों, इसकी मंशा और ज़रूरत पर सवाल उठा रहे हैं.
सत्तापक्ष पहले से यह कहता रहा है कि ‘शहरी नक्सलियों’ के ख़िलाफ़ कार्रवाई के लिए अलग क़ानून की ज़रूरत है. ‘यह शब्दावली’ पुणे के भीमा कोरेगांव और एल्गार परिषद मामले के बाद ज्यादा उभरकर सामने आई, जिसमें कई वामपंथी विचारों से जुड़े लेखक, पत्रकार और कार्यकर्ता गिरफ़्तार हुए.
हालांकि क़ानून की मुख्य धारा में ‘शहरी नक्सल’ या ‘नक्सलवाद’ जैसे शब्द नहीं हैं, लेकिन विधेयक के स्टेटमेंट ऑफ़ ऑब्जेक्टिव में इसका ज़िक्र है.
इसमें कहा गया है, “नक्सलवाद का ख़तरा केवल नक्सल प्रभावित दूरदराज़ के इलाक़ों तक सीमित नहीं है, बल्कि शहरी इलाक़ों में भी नक्सली फ्रंटल संगठनों के ज़रिए इसकी मौजूदगी बढ़ रही है.”
सीएम देवेंद्र फडणवीस ने विधानसभा में कहा कि मौजूदा क़ानून अपर्याप्त थे, इसलिए नया क़ानून लाना ज़रूरी था.
उन्होंने कहा, “छत्तीसगढ़, आंध्र प्रदेश, तेलंगाना और ओडिशा जैसे चार राज्यों ने ऐसे क़ानूनों के तहत 48 संगठनों पर बैन लगाया है. महाराष्ट्र में ऐसे 64 संगठन हैं, जो देश में सबसे ज़्यादा हैं. एक भी वामपंथी उग्रवादी संगठन पर अब तक प्रतिबंध नहीं लगा है. राज्य उनके लिए सुरक्षित शरणस्थल बन गया है.”
इन अपराधों के लिए दो से सात साल तक की सज़ा और दो से पांच लाख रुपये तक का जुर्माना हो सकता है. इसमें बिना वारंट गिरफ़्तारी संभव है जो गै़र-जमानती है.
इस विधेयक के तहत ‘अवैध गतिविधि’ की परिभाषा है – “जो गतिविधि सार्वजनिक व्यवस्था, शांति और सौहार्द को खतरे में डाले; क़ानून व्यवस्था या प्रशासनिक ढांचे में बाधा डाले; या आपराधिक ताक़त से किसी सरकारी कर्मचारी को भयभीत करने के इरादे से हो, वो ‘अवैध’ की श्रेणी में मानी जाएगी, भले ही वह लिखे गए या बोले गए शब्दों के रूप में हो.”
फडणवीस ने कहा, “कोई व्यक्ति केवल तब गिरफ़्तार हो सकता है जब वह प्रतिबंधित संगठन से जुड़ा हो. अकेले व्यक्ति के ख़िलाफ़ यह क़ानून लागू नहीं होगा. इसके तहत सरकार मनमर्जी से कार्रवाई नहीं कर सकती.”
साथ ही इस क़ानून के तहत अगर किसी संगठन को ‘अवैध’ घोषित किया जाता है, तो उसे एक सलाहकार बोर्ड की मंज़ूरी लेनी होगी, जिसकी अध्यक्षता हाई कोर्ट के वर्तमान या पूर्व न्यायाधीश करेंगे.
इस विधेयक पर क्या हैं आपत्तियां?
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क़ानूनी विशेषज्ञों का कहना है कि इस क़ानून में कई परिभाषाएँ अस्पष्ट हैं और उनके दायरे को लेकर कोई स्पष्टता नहीं है. ‘अवैध गतिविधि’ की व्याख्या इतनी व्यापक है कि इसका मनमाने ढंग से इस्तेमाल किया जा सकता है.
शिवसेना (उद्धव गुट) प्रमुख उद्धव ठाकरे ने कहा, “इस क़ानून में ‘नक्सलवाद’ या ‘आतंकवाद’ जैसे शब्दों का ज़िक्र किए बिना ‘अवैध गतिविधियों’ की एक बेहद अस्पष्ट श्रेणी बना दी गई है. किसी की भी गतिविधि को अवैध बताकर व्यक्ति को गिरफ़्तार किया जा सकता है.”
‘द इंडियन एक्सप्रेस’ में प्रकाशित लेख में राजनीतिक विश्लेषक सुहास पलशीकर लिखते हैं, “नए क़ानून में ‘अवैध’ गतिविधियों की परिभाषा है – ‘किसी कार्य या शब्द या संकेत या दृश्य प्रस्तुति के माध्यम से किया गया कोई कृत्य’. यानी बोलने की आज़ादी को भी अपराध की श्रेणी में लाने की मंशा है.”
उनके साथ कई शिक्षाविदों और विशेषज्ञों ने भी इस क़ानून पर गंभीर सवाल उठाए हैं.
पलशीकर आगे लिखते हैं, “पहला ख़तरा यह है कि किसी भी विचारधारा या राजनीतिक विरोधी की ओर से की गई मामूली शिकायत पर भी पुलिस सक्रिय हो सकती है. दूसरा, किसी भी बौद्धिक गतिविधि को इस क़ानून की परिभाषा में लाया जा सकता है.”
जब यूएपीए पहले से है, तो नए क़ानून की ज़रूरत क्यों?
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‘गैर-क़ानूनी गतिविधियाँ रोकथाम अधिनियम’ (यूएपीए) क़ानून पहले से मौजूद है और इसे कई संवेदनशील मामलों और कथित वामपंथी उग्रवाद की घटनाओं में लागू किया गया है.
कई कार्यकर्ताओं पर इस कठोर क़ानून के तहत मुकदमा चल रहा है, जिसके तहत अपराध गै़र-जमानती होता है.
मुख्यमंत्री देवेंद्र फडणवीस के मुताबिक़, “यूएपीए में किसी संगठन पर प्रतिबंध लगाने का अधिकार नहीं है, यह सिर्फ व्यक्ति पर लागू होता है.”
“जब कुछ मामलों में यूएपीए लागू किया गया, तो सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि इसे तब तक लागू नहीं किया जा सकता जब तक कोई आतंकी घटना न हुई हो. जब यह स्पष्ट हो गया कि यूएपीए पर्याप्त नहीं है, तब केंद्र ने राज्यों को ऐसा अलग क़ानून बनाने का सुझाव दिया.”
हालांकि, कई क़ानूनी विशेषज्ञ इस तर्क से सहमत नहीं हैं.
दूसरे राज्यों के अनुभव और उठे सवाल
बॉम्बे हाई कोर्ट के पूर्व न्यायाधीश सत्यरंजन धर्माधिकारी ने ‘लोकसत्ता’ में एक लेख में कहा है कि इस नए क़ानून के प्रावधान पहले से ही ‘गै़र-क़ानूनी गतिविधियाँ रोकथाम अधिनियम’ (यूएपीए), 1967 में मौजूद हैं, जिसे बाद में कई बार संशोधित किया गया और आतंकवाद से जुड़े मामलों को भी इसमें शामिल किया गया.
धर्माधिकारी सवाल उठाते हैं कि जब यूएपीए पहले से लागू है, तो ऐसे ही उद्देश्य वाला एक और नया क़ानून बनाना कितना तर्कसंगत है?
उनका कहना है, “अगर यूएपीए पहले से मौजूद था, तो फिर नक्सलवाद राज्यभर में कैसे फैल गया? अगर यूएपीए के तहत कार्रवाई की गई, तो फिर उन्हें मदद कैसे मिलती रही? कई गिरफ़्तार हुए, लेकिन मुकदमा नहीं चला, इसलिए ज़मानत पर छूट गए. फिर भी सरकार को लगता है कि नया क़ानून ज़रूरी है.”
धर्माधिकारी यह भी चेतावनी देते हैं कि ‘अवैध गतिविधि’ की व्याख्या को लेकर न्यायपालिका का रुख़ स्पष्ट है. वो कहते हैं, “सुप्रीम कोर्ट ने साल 1967 के क़ानून की कुछ धाराओं की व्याख्या करते हुए कहा है कि केवल किसी संगठन के प्रति सहानुभूति या सदस्यता को ‘भागीदारी’ नहीं माना जा सकता.’
उनके मुताबिक़, “अगर किसी व्यक्ति और संगठन के बीच वैचारिक संबंध है, तो उससे उसकी गतिविधियां अवैध नहीं हो जातीं. ‘अवैध गतिविधि’ कुछ और ठोस रूप में सिद्ध होनी चाहिए. वरना क़ानून लागू नहीं हो सकता.”
क्या ख़ास वैचारिक धारा है निशाना?
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कई कार्यकर्ताओं ने सवाल उठाया है कि यह क़ानून सिर्फ़ वामपंथी उग्रवादियों के ख़िलाफ़ क्यों लाया गया है, जबकि हालिया वर्षों में कई दक्षिणपंथी या गैर-वामपंथी विचारधारा से जुड़े लोगों की भी हिंसक गतिविधियाँ सामने आई हैं. उन्हें इस क़ानून के दायरे में क्यों नहीं लाया गया?
सामाजिक कार्यकर्ता उल्का महाजन पूछती हैं, “अगर आप वामपंथी संगठनों के ख़िलाफ़ कार्रवाई कर रहे हैं, तो दक्षिणपंथी संगठनों का क्या? गोविंद पानसरे और डॉ. नरेंद्र दाभोलकर की हत्या करने वालों पर क्या कार्रवाई हुई?”
महाजन लंबे समय से आंदोलनों और सामाजिक संघर्षों में सक्रिय रही हैं.
सुहास पलशीकर के मुताबिक़, “अगर परिभाषा स्पष्ट नहीं है, तो किसी को भी वामपंथी विचारधारा का समर्थक बताकर अभियुक्त बनाया जा सकता है. फिर पुलिस यह तय करने लाइब्रेरी-दर-लाइब्रेरी घूमेगी कि वामपंथी विचार क्या होते हैं.”
वो कहते हैं, “महाराष्ट्र और देश की मौजूदा सरकार को ‘वाम’ शब्द से ही एलर्जी है. इसलिए उन्हें यह स्पष्ट करना चाहिए कि ‘वाम’ से उनका क्या तात्पर्य है, और किस विचार को प्रतिबंधित करना चाहते हैं.”
दूसरे राज्यों में क्या हुआ जहां पहले से ऐसा क़ानून है?
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राज्य सरकार का तर्क है कि छत्तीसगढ़, ओडिशा, तेलंगाना और आंध्र प्रदेश जैसे राज्यों ने पहले ही इस तरह का विशेष सुरक्षा क़ानून लागू किया है, इसलिए महाराष्ट्र में भी इसकी ज़रूरत है.
लेकिन जो लोग इसका विरोध कर रहे हैं, वे इन राज्यों में क़ानून के दुरुपयोग के उदाहरण दे रहे हैं.
बिलासपुर हाई कोर्ट में मानवाधिकार वकील शालिनी गेरा कहती हैं, “हमारे अनुभव में, ख़ासकर बस्तर में, यह क़ानून सरकार द्वारा किसी को भी निशाना बनाने के लिए मनमाने ढंग से इस्तेमाल किया गया है.”
वह बताती हैं, “कोविड-19 के दौरान साल 2021 में ‘मूलवासी बचाओ मंच’ नाम की एक युवा संस्था बनी थी, जो सेना के कैंप और खनन के ख़िलाफ़ शांतिपूर्ण प्रदर्शन कर रही थी. लेकिन अक्टूबर 2023 में अचानक इस संगठन पर इस क़ानून के तहत प्रतिबंध लगा दिया गया. उनसे जुड़े कई लोगों को पुलिस ने पकड़ लिया.”
शालिनी गेरा कहती हैं, “सरकारी नोटिफ़िकेशन में कहा गया कि वे सरकार की विकास नीतियों का विरोध कर रहे थे, लेकिन कहीं भी हिंसक गतिविधि का ज़िक्र नहीं था.”
शालिनी कहती हैं कि इस क़ानून में क़ानूनी सुरक्षा बहुत सीमित है.
लेखक और वरिष्ठ पत्रकार देवेंद्र गवांडे महाराष्ट्र, छत्तीसगढ़ और तेलंगाना में नक्सल आंदोलन को कवर करते रहे हैं.
वे बताते हैं, “छत्तीसगढ़ सरकार ने कुछ पत्रकारों पर भी इस क़ानून का इस्तेमाल किया. जो पत्रकार बस्तर जैसे क्षेत्रों में रिपोर्ट करते हैं, उनका ज़मीनी संपर्क होना लाज़मी है. लेकिन इस आधार पर कार्रवाई करना इस क़ानून का दुरुपयोग था. तेलंगाना में भी 2021 में 16 संगठनों पर प्रतिबंध लगाया गया, लेकिन आलोचना के चलते तीन महीने बाद इसे वापस ले लिया गया.”
गवांडे कहते हैं, “तेलंगाना में इस क़ानून का ज़्यादातर इस्तेमाल संगठनों पर बैन लगाने के लिए हुआ. वहां वामपंथी आंदोलन को बौद्धिक समर्थन काफी मिला था. इसलिए वहां कुछ संगठनों को निशाना बनाया गया.”
हालांकि महाराष्ट्र विधानसभा और विधान परिषद में यह विधेयक बहुमत से पास हो चुका है, लेकिन इस पर बहस ख़त्म नहीं हुई है.
प्रकाश आंबेडकर जैसे नेता इसे अदालत में चुनौती देने की घोषणा कर चुके हैं. देखना होगा कि सरकार इसे कैसे लागू करती है और इसकी मंशा पर उठे सवालों का भविष्य में क्या उत्तर मिलता है.
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