“क्या कोई कम पड़ गया?”
एक महिला कहाँ कम पड़ जाती है? महिलाओं की कमी कहां है?
45 साल की सुगीबाई वसावे (बदला हुआ नाम), जिन्हें गांव ने डायन घोषित किया. उनका पूछा गया सवाल वास्तव में इतना सामूहिक था कि इसे समझने के लिए भीलोरी से किसी अन्य भाषा में अनुवाद करने की भी जरूरत नहीं थी.
“एक महिला गर्भ में बच्चे का पोषण करती है. वह जन्म देती है. एक महिला अपने बच्चे को भी खिलाती है. तो एक महिला अकेले किसी की बुराई के खिलाफ कैसे उठ सकती है?”
सुगीबाई के सवालों की बौछार जारी रही.
जैसे-जैसे दिन ढल रहा था, सतपुड़ा पर्वत श्रृंखलाओं में बांस की पट्टियों को जोड़कर आदिवासी शैली में बनी सुगीबाई की झोपड़ी में अंधेरा छाने लगा.
चूल्हे की धीमी रोशनी और होली के चाँद में केवल कपड़े से ढंकी उनकी आकृति ही दिखाई दे रही थी.
ऐसा लग रहा था मानो एक महिला अपनी जुबां से महिलाओं के साथ हुए अन्याय का जवाब मांग रही हो.
नंदुरबार जिले के इस गांव में मौजूद उनकी झोपड़ी में बिजली नही है.
घर के सामने लगा हैंडपंप का पाइप भी हटा दिया गया है.
उन्होंने कहा, “अगर हमें खंभे से बिजली मिल भी जाती है तो रात में कोई आकर तार काट देता है. हम इसे दोबारा जोड़ने में डर लगता ,है इसलिए हम रात में अंधेरे में बैठते हैं.”
उनके बगल में खड़े उनके बेटे, जो मराठी बोल सकते थे और उनकी बेटी, जो हिन्दी बोल सकती थी, वो भी उनके साथ बैठ गए.
सुगीबाई ने भागकर बचाई जान
ये ‘डायन’ होने का प्रतीक है जो पांच साल पहले लगाया गया था. जो लोग उन्हें डायन कहते हैं, वे उनके अपने कबीले के हैं और दूर के रिश्तेदार हैं.
उस परिवार में एक महिला के दांत में सूजन थी और उसे बहुत दर्द हो रहा था. उनका गुस्सा सुगीबाई पर निकल गया.
ऐसा कहा जाता था कि सुगीबाई एक चुड़ैल है, वह लोगों को खा जाती है और बुरे काम करती है. तब से जब भी गांव में कुछ बुरा होता था, तो उसका दोष सुगीबाई पर डाल दिया जाता था.
उन्होंने कहा कि मैंने भगत के करतब दिखाए, डाकिनी परीक्षा दी और जाति पंचायत की बैठक में अपने तर्क पेश किए. लेकिन कुछ भी काम नहीं आया.
स्थिति इतनी बिगड़ गई कि एक दिन, जो लोग उसे परेशान कर रहे थे, वे सुगीबाई की जान लेने के लिए उसी झोपड़ी में आ पहुंचे.
सुगीबाई पीछे के दरवाजे से भाग निकलीं. अगस्त 2021 की वह रात उन्हें अपने बच्चों के साथ जंगल में छिपकर गुज़ारनी पड़ी.
सुगीबाई कहती हैं, “एक बार तो वे माचिस की डिब्बी लेकर आए और झोपड़ी को घेर लिया. मुझे लगा, अब सब खत्म हो गया! लेकिन भारी बारिश होने लगी और आग नहीं जली.”
उन्होंने कहा कि भारी कठिनाई, अकेलापन, और किसी से भी कोई मदद नहीं मिली. यहां तक कि गांव, पंच या पुलिस प्रशासन से भी मदद नहीं मिली.
उन्होंने कहा, “सब कुछ इतना असहनीय था कि हम पति-पत्नी अपने तीन बेटों और दो बेटियों के साथ सामूहिक आत्महत्या करने पर विचार कर रहे थे.”
जब मैंने सुगीबाई को बोलते हुए सुना तो सतपुड़ा की झुग्गियों में अपनी जान हथेली पर लिए बैठी कई महिलाओं के चेहरे और कहानियां मेरी आंखों के सामने घूमने लगीं.
महिलाओं की हत्या का पुराना इतिहास
क़रीब 23 साल पहले इसी क्षेत्र के धड़गांव के मंडोवी खुर्द गांव में केलीबाई पटले की डायन होने के संदेह में हत्या कर दी गई थी.
उनकी हत्या के बाद ही डायन प्रथा सुर्खियों में आई और सतपुड़ा में इसके खिलाफ पहली बार विरोध प्रदर्शन शुरू हुआ.
इस बीच, अंधश्रद्धा निर्मूलन समिति की ओर से डायन प्रथा विरोधी सम्मेलन और संवाद यात्रा का आयोजन किया गया. पुलिस विभाग ने भी कुछ अभियान चलाए.
सरकार और प्रशासन ने जादू-टोना प्रथा को समाप्त करने के लिए कुछ प्रयास किए हैं. इसके बाद, साल 2013 में महाराष्ट्र में अंधविश्वास और जादू-टोना विरोधी अधिनियम पारित किया गया.
इसकी छठी और सातवीं अनुसूची के अनुसार, किसी व्यक्ति द्वारा कोई कृत्य करना या पशु का दूध खराब करना, बीमारी फैलाना, किसी को डायन कहना, जादू-टोने के नाम पर किसी व्यक्ति को पीटना, किसी व्यक्ति को नग्न अवस्था में रखना या उसे उसके दैनिक कार्य करने से रोकना अपराध माना गया.
इस अपराध की सज़ा के तौर पर सात साल तक की जेल और 50 हज़ार रुपये के जुर्माने का प्रावधान रखा गया है.
फिर भी, जादू- टोना की प्रथा न केवल सतपुड़ा के भील और पवारा आदिवासी समुदायों में, बल्कि महाराष्ट्र के गढ़चिरौली, पालघर और भारत के झारखंड और असम राज्यों में भी अब भी चल रही है.
इसमें किसी भी महिला को कभी भी डायन कह दिया जाता है. इसके लिए कोई भी कारण पर्याप्त है. जैसे गांव में किसी की मृत्यु हो गई हो, कोई बीमार पड़ गया हो; खेत, फसल या पशु नष्ट हो गया हो.
इसी संदेह के कारण महिला की पिटाई कर दी जाती है. उनपर क़ब्रिस्तान की राख खाने, मानव मूत्र पीने और चेहरे पर कालीख पोतने जैसे अत्याचार किए जाते हैं. उन्हें गांव से बाहर निकाल दिया जाता है और उनकी हत्या भी हो सकती है.
इस बात का कोई आधिकारिक आंकड़ा उपलब्ध नहीं है कि आज तक कितनी महिलाओं को डायन घोषित किया गया है, उनमें से कितनों ने अन्याय को स्वीकार किया, कितनों को अमानवीय यातनाएं दी गईं, कितनों ने पुलिस थाने में शिकायत दर्ज कराई, कितनों की हत्या की गई और कितने अभियुक्तों को सज़ा दी गई.
अगर हम नंदुरबार के बारे में इस क्षेत्र में काम करने वाली अंधश्रद्धा निर्मूलन समिति (एएनएनआईएस) के कार्यकर्ताओं की माने तो यह कहना अतिशयोक्ति नहीं होगी कि हर गांव में एक महिला को डायन माना जाता है.
पहाड़ों में छह-सात घरों का एक गांव बसा हुआ है.
एएनएनआईएस के राज्य महासचिव विनायक सावले कहते हैं, “कम मामलों में ही हमारे जैसे संगठन या पुलिस से मदद मांगी जाती है.”
तो बाकी लोगों का क्या हुआ?
कभी-कभी धड़गांव की भूरीबाई पवार (बदला हुआ नाम) जैसी महिलाएं 60 साल की उम्र में हताश होकर अपना गांव छोड़कर अपने मायके लौट जाती हैं या कुछ बेघर हो जाती हैं.
नर्मदा घाटी के सुदूर क्षेत्र की राजीबाई वसावे (बदला हुआ नाम) जैसी कुछ महिलाएं आत्महत्या कर लेती हैं.
यह बात सामने आई है कि जिन महिलाओं का बंध्याकरण (ताकि वो बच्चे को जन्म न दे सके) किया गया था, उनकी बेटियों ने भी आत्महत्या कर ली है.
भगत का वर्चस्व
सुगीबाई कहती हैं कि 20 साल पहले जब उनके गांव की एक महिला को डायन घोषित कर दिया गया था, तो वह भागकर अपनी मां के घर चली गई थी. लेकिन सुगीबाई ने सभी के खिलाफ लड़ने का फैसला किया.
सुगीबाई ने कहा, “मुझे पता था कि मैं डायन नहीं हूं. इसीलिए मैं भगत के पास जाने को तैयार हो गई.”
ऐसे में बधिया की गई महिला को भगत के पास आने-जाने का सारा खर्च उठाना पड़ता है.
आदिवासी समाज में महिला भगतों का अनुपात कम है और उन पर लोगों का भरोसा भी कम है. उनकी अगर कुछ ग़लत हो जाए या परेशानी बढ़ जाए तो महिला भगतों को डायन भी कह दिया जाता है.
सुगीबाई को जांच के लिए गौरा गांव के एक भगत के पास ले जाया गया.
सुगीबाई ने बताया, “गौरा के भक्त के पास एक बड़ा भारी पत्थर था. भगत ने पत्थर उठाने का नाटक किया. अगर पत्थर उठ जाता तो इसका मतलब होता कि वह औरत डायन है.”
सुगीबाई के मुताबिक़ भगत कहते हैं कि पत्थर चुड़ैल की शक्तियों के कारण ऊपर उठ गया.
सुगीबाई को संदेह है कि गौरा के इस तीसरे भगत ने उन्हें बांझ बना दिया होगा.
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इसी तरह भगत ने अप्रैल 2024 में 45 साल की पोतीबाई वसावे (बदला हुआ नाम) पर सीधे तौर पर डायन होने का आरोप लगाया था. तब पुलिस ने उसे गिरफ्तार भी किया था.
धडगांव में पोतीबाई के गांव तक पहुंचने के लिए हमें कच्ची सड़क पर कई पहाड़ों को पार करना पड़ा और आगे भी उतने ही पहाड़ दिखाई दे रहे थे.
पोतीबाई के घर के बगल में रहने वाले परिवार के 24 साल के युवा की एक महीने की बीमारी के बाद मृत्यु हो गई.
जब वे 200 किलोमीटर दूर गुजरात के सूरत के एक निजी अस्पताल में कोमा में थे, तभी उनका परिवार ज्वार के दाने लेकर भगत के पास गया.
रुल्या भगत ने अनाज को एक विशिष्ट सम-विषम पैटर्न में व्यवस्थित किया और परिवार के लोगों से कहा कि एक चुड़ैल बच्चे को खा रही है.
उन्होंने सीधे तौर पर महिला का नाम लिए बिना मोटे तौर पर संकेत दिए कि डायन महिला का पति कमजोर है, उसके दो बच्चे हैं, उसका एक पक्का घर है और दूसरा साधारण है.
पूरा गांव जानता था कि पोतीबाई का पति गंभीर अवसाद से जूझ रहा था. वे पहले से ही संदिग्ध थे. भगत ने उन्हीं की तरफ संकेत किया था.
सभी ने इसे सत्य मान लिया जिसे झूठा साबित नहीं किया जा सका.
जैसे ही बेटे की मौत की ख़बर सूरत पहुंची, ग्रामीणों की एक बड़ी भीड़ पोतीबाई के घर पहुंच गई.
वो सच जिसे बदला नहीं जा सकता
पोतीबाई उस बात को याद करते हुए कहती हैं, “एक ने मेरे बाल खींचे, मुझे ज़मीन पर गिरा दिया और लात-घूंसों से पीटना शुरू कर दिया. दूसरे ने मेरे सिर पर मारा और वह घाव आज भी हैं.”
पोतीबाई ने बीच में ही रुकते हुए कहा, “उनमें से एक ने मेरी साड़ी फाड़ दी. भीड़ में से एक आदमी मेरे ऊपर बैठ गया और मुझे छूने लगा.”
उन्होंने ये नहीं बताया कि आगे क्या हुआ.
पोतीबाई ने कहा, “आखिरकार, उन्होंने मुझे गांव से बाहर निकाल दिया. उन्होंने बड़े बेटे को धमकी दी कि अगर उसने अपनी मां को घर में रखा तो उसे मार देंगे और घर जला देंगे.”
लेकिन महीनों बाद पोतीबाई के पास घर जाने के अलावा कोई विकल्प नहीं था. क़रीब सात महीने बाद जब मामला शांत हुआ तो वह गांव लौट आईं.
इस बीच, गांव के नियम के अनुसार, पंच की एक बैठक हुई, जिसमें पोतीबाई का परिवार, जादू करने वाला जादूगर और गांव के कुछ बुजुर्ग शामिल थे.
पंच ने सुझाव दिया कि डायन 500 रुपये का मुआवजा दें और मामला निपटाया जाए. लेकिन इसके बाद भी पोतीबाई को इस बात की कोई गारंटी नहीं थी कि उसे डायन कहकर परेशान नहीं किया जाएगा.
इसके अलावा, ऐसी आशंका थी कि यह कहा जाएगा कि पोतीबाई वास्तव में एक चुड़ैल थी. इसलिए पोतीबाई के बड़े भाई ने पुलिस में मामला दर्ज कराने का फैसला किया.
उनकी शिकायत के बाद तीन अभियुक्तों को गिरफ्तार कर लिया गया. लेकिन फिलहाल वे ज़मानत पर बाहर हैं.
कानून का डर डायन से भी ज्यादा है
इस गांव में पोतीबाई के घर के सामने खेत पार करते ही उस अभियुक्त का घर है, जिसे गिरफ़्तार किया गया था.
हमने उस परिवार से बात की जो पोतीबाई को डायन कहता है, ताकि यह समझा जा सके कि इस सब के बारे में उनका क्या कहना है.
परिवार के एक युवा बेटे ने कहा, “गांव में कोई भी व्यक्ति अकेले कुछ नहीं कर सकता. हमने उन्हें इसलिए निकाल दिया क्योंकि गांव में सभी ने ऐसा कहा था. जब हमने पुलिस में शिकायत की, तो गांव वालों ने हमारा नाम ही आगे बढ़ा दिया.”
थोड़ी पूछताछ करने पर मुझे पता चला कि उन्होंने एमएसडब्ल्यू की पढ़ाई पूरी कर ली है और वे एक सामाजिक सेवा संगठन के लिए काम कर रहे हैं जो बच्चों की शिक्षा के लिए काम करता है. वह इस सवाल पर चुप रहे कि क्या गांव में कोई चुड़ैल रहती है.
उनका कहना है, “अब जो हुआ सो हो गया. हम चाहते हैं कि वे सब कुछ भूल जाएं और पुलिस में दर्ज कराई गई शिकायत वापस ले लें. लेकिन पोतीबाई सुन नहीं रही हैं.”
परिवार ने आगे कहा, “इसके उलट, वह एक चुड़ैल है और लोगों से कहती है कि अगर वे भूखे हैं तो उनके घर के सामने से सड़क पार न करें.”
उनके मन में कानून का डर साफ़ दिखाई दे रहा था. यह डर चुड़ैल के डर से भी बड़ा था.
पोतीबाई ने आगे बताया कि अभियुक्त के ज़मानत पर रिहा होने के बाद गांव में एक और पंचायत हुई.
पंच ने कहा कि मामला निपटाया जाए और शिकायत वापस ली जाए. इसके बाद अगर पोतीबाई पर दोबारा डायन होने का आरोप लगा तो आरोप लगाने वाले परिवार पर 15 से 20 हजार रुपए का जुर्माना लगाया जाएगा.
या फिर, यदि पोतीबाई के परिवार ने पोतीबाई को डायन कहकर अपमानित करने का मुद्दा फिर से उठाया, तो उन्हें भी उतना ही जुर्माना देना होगा.
पंच ने अपने फ़ैसले में ऐसा ही सुझाव दिया.
न्याय समझौता
पोतीबाई कहती हैं, “कभी-कभी तो शराब पीने के बाद लोग आज भी मुझे डायन कहते हैं. हालांकि गांव के लोग इसके बारे में मेरे सामने बात नहीं करते, लेकिन महिलाएं जब पानी लेने जाती हैं तो दूर रहती हैं. जब वे गांव में कहीं बैठती हैं वे कानाफूसी करती हैं.”
उन्होंने यह भी कहा कि उनके ही गांव में एक महिला को उनके सामने डायन घोषित कर दिया गया था.
पोतीबाई बताती हैं, “गांव में एक महिला की सांप के काटने से मौत हो गई थी. लेकिन कुछ दिन पहले गांव ने एक महिला को इसलिए निकाल दिया था क्योंकि उसपर एक चुड़ैल का असर था.”
पोतीबाई कहती हैं, ” महिला के परिवार और आरोप लगाने वालों के बीच समझौता हो गया और महिला को उसके परिवार के पास वापस भेज दिया गया.”
पुलिस में शिकायत तभी दर्ज की जाती है जब महिला का परिवार ऐसा करने का फ़ैसला लेता है. लेकिन यदि पैनल के सामने आरोप लगाने वाले और महिला के परिवार दोनों को लाभ होता है, भले ही पीड़ित महिला को न्याय न मिले.
विनायक सावले कहते हैं, “इन सभी सवालों के जवाब स्पष्ट हैं, जैसे कि ये पंच डायन प्रथा के प्रति कितने संवेदनशील हैं, क्या वे सचमुच डाकिन में विश्वास करते हैं, क्या वे गांव में शांति बनाए रखने के लिए ऐसे फैसले लेते हैं, और सबसे महत्वपूर्ण बात यह कि क्या इन पंचों में महिलाएं शामिल हैं या नहीं.”
पोतीबाई की बातों से यह भी साफ है कि भारत सरकार की न्याय व्यवस्था से डर और उससे असहज महसूस कर चुके आदिवासी अपनी पुरानी पंच व्यवस्था को ही प्राथमिकता देते हैं.
उन्होंने कहा, “न्यायाधीशों को डायन प्रथा में शामिल लोगों पर भारी जुर्माना लगाना चाहिए.”
उनके बड़े भाई ने बात को सुधारते हुए कहा, ” यह काम काउन्सिल नहीं बल्कि क़ानून के ज़रिए होना चाहिए.”
पोतीबाई को पक्का पता था कि वह कोई चुड़ैल नहीं है. लेकिन इस बात पर उनकी कोई ठोस राय नहीं थी कि क्या डायन होती हैं या ये सिर्फ अंधविश्वास हैं.
जड़ें काफी गहरी हैं
रायसिंह पडवी कहते हैं कि आदिवासियों के मन में यह विश्वास गहराई से बैठा हुआ है कि डायन होती हैं.
वो खुद आदिवासी हैं. वे अक्कलकुवा के वाडीबार जिला स्कूल में शिक्षक हैं.
उनसे बात करते हुए मुझे एहसास हुआ कि आदिवासी भाषा में ‘अंधविश्वास’ के लिए कोई शब्द नहीं है.
रायसिंह ने कहा, “इतने सालों के बाद भी मैं उन मान्यताओं को पूरी तरह से खारिज नहीं कर पाया हूं जो पीढ़ियों से चली आ रही हैं.”
पिछले दो सालों से वह स्थानीय स्तर पर अंधविश्वास उन्मूलन समिति में काम कर रहे हैं.
उन्होंने कहा कि बचपन से ही उन्होंने अपनी दादी और दादा से ओझाओं के बारे में कई कहानियाँ सुनी थीं. गांव में आने वाली किसी अजनबी महिला पर कोई भी कभी भरोसा नहीं करता था.
रायसिंह ने कहा, “गांव में एक दुर्लभ पक्षी है. यह रात में इंसानों की तरह चीखता है. कई अजीब बातें हैं कि चुड़ैल उस पक्षी का रूप धारण कर पेड़ पर बैठती है, बैल खाती है और लोगों को मार देती है.”
“यह नहीं कहा जा सकता कि चुड़ैल कहे जाने की संख्या में कमी आई है. लेकिन अब कोई भी किसी महिला को खुलेआम चुड़ैल घोषित नहीं करता जैसा कि पहले किया जाता था.”
वे कहते हैं, “पहले पूरा गांव उनसे दूर रहता था. अब कोई एक शख़्स महिला को परेशान करता है तो गांव के बाकी लोग कानून के डर से मुश्किल से ही कुछ बोलते हैं.”
उनका मानना है कि बीते 23 सालों में बस इतना ही बदलाव आया है.
वे कहते हैं, “एक और बदलाव यह है कि अब दलीय राजनीति भी इसमें शामिल हो गई है. अगर आप किसी दूसरे राजनीतिक दल के उम्मीदवार या कार्यकर्ता को गिराना चाहते हैं, तो उसके परिवार की किसी महिला या बहू को डायन घोषित कर देना सुविधाजनक है.”
उन्होंने यह भी कहा कि विधवाओं और अकेली महिलाओं के करीबी रिश्तेदार भी उनकी जमीन हड़पने के लिए उन्हें डायन बता देते हैं. लेकिन डायन घोषित की गई किसी भी महिला ने हमें यह बात स्पष्ट रूप से नहीं बताई.
पंचनामे की गलतफहमी
काठी निवासी 35 साल की धोंडीबाई राउत (बदला हुआ नाम) के लिए भी बीमारी ही कष्ट की वजह थी.
जनवरी 2025 में उन पर डायन होने का आरोप लगाया गया और उनकी पिटाई की गई. वो कह रही थीं कि वह ढाई महीने तक अपनी मां के पास रही थी और एक सप्ताह पहले ही गांव लौटी हैं.
वो कहती हैं कि अब उन्हें चिंता है कि गांव वाले भी उन्हें छोड़ देंगे, कौन उन्हें किस तरह परेशान करेगा, उनके मन में इस बात को लेकर तनाव है.
उनके बड़े चचेरे भाई की बेटी लगातार बीमार रहती है क्योंकि उन्हें सिकल सेल एनीमिया है.
लेकिन ऐसा कहा जाता था कि धोंडीबाई उसे जादू से ख़त्म कर रही थी. 9 जनवरी को जब वो घर में अकेली थीं तो उन्हें लात-घूसों और डंडे से बुरी तरह पीटा गया.
उन्होंने कहा, “वे मुझे पूरे गांव में घसीटते और पीटते हुए अपने घर ले गए और मुझसे मांग की कि मैं उसे वापस लाऊं और हमारे घर को जो नुकसान पहुंचाया है, उसकी मरम्मत करूं. किसी तरह मैं उन लोगों की गिरफ़्त से छूटकर घर भागी.”
धोंडीबाई कहती हैं, “फिर उनका बेटा एक बड़ा पत्थर लेकर मेरे पीछे दौड़ रहा था. फिर, उनका पूरा परिवार झोपड़ी की दीवारें तोड़कर घर में घुस आया और मुझे पीटने लगा. जब मैं बेहोश हो गई, तो सभी लोग यह सोचकर चले गए कि मैं मर गई हूं.”
पिटाई के निशान अभी भी उनके शरीर पर दिखाई दे रहे हैं.
उनकी हालत इतनी खराब थी कि उन्हें पंचायत छोड़कर सीधे मोलगी ग्रामीण अस्पताल जाना पड़ा और पुलिस में शिकायत दर्ज करानी पड़ी.
पुलिस को दिए बयान में उसने यह भी लिखा कि लोगों ने उनके कपड़े भी फाड़ दिए.
इन सभी बातों के बावजूद, उनके द्वारा दर्ज कराई गई एफआईआर में अंधविश्वास और जादू-टोना विरोधी अधिनियम का उल्लेख नहीं था.
इसमें केवल मारपीट और छेड़छाड़ का मामला दर्ज किया गया. ढाई महीने में अभियुक्तों के खिलाफ कोई कार्रवाई नहीं की गई.
धोंडीबाई के परिवार के सदस्यों ने बताया, “पहले तो वे कानून का जिक्र करने को तैयार नहीं थे. अंत में उन्होंने हमें सरकारी वकीलों से सलाह लेने पर पीटा.”
पुलिस ने एफआईआर में अंधविश्वास और जादू-टोना विरोधी धारा बाद में जोड़ी.
कुल मिलाकर ऐसा लगता है कि पुलिस को अंधविश्वास और जादू-टोना संबंधी कानूनों की बहुत सीमित समझ है.
कम मामले होते हैं दर्ज
साल 2024 में धड़गांव पुलिस ने डाकिनी के नौ मामले दर्ज किए गए थे. उन अपराधों का ब्योरा पूछे जाने पर पुलिस निरीक्षक राजेंद्र जगताप ने बताया कि सबूतों के अभाव में शिकायत के आरोप पत्र से अंधविश्वास और जादू-टोना विरोधी कानून को हटाना पड़ा.
पुलिस का मानना है कि आदिवासी ओझा गांव में होने वाले झगड़ों का बदला लेने के लिए कानून का इस्तेमाल करते हैं.
इलाके के एक पुलिस अधिकारी ने नाम न बताने की शर्त पर कहा, “अगर किसी के साथ बहस के कारण मारपीट होती है तो नए भारतीय दंड संहिता कानून के अनुसार धारा 115 (2) लागू होती है. यह एक नॉन कॉग्निजेबल ऑफ़ेंस बन जाता है. फिर सबक सिखाने के लिए और बदला लेने के लिए, वे झूठा दावा करते हैं कि डायन को बुलाया गया था.”
जब उनसे पूछा गया कि अशिक्षित आदिवासियों को कानून के बारे में इतनी जानकारी कैसे होगी, तो उन्होंने कहा कि उनका आवेदन टाइप करने वाला व्यक्ति या पुलिस अधिकारी उन्हें इसकी जानकारी देता है.
उन्होंने कहा, “यदि आप अंधविश्वास और जादू-टोना विरोधी अधिनियम को ठीक से पढ़ें, तो आपको यह देखना होगा कि धारा 2सी और बी के अनुसार, जिसे को डायन कहा गया है, क्या वह घर पर अघोरी पूजा करता है, क्या घर पर इसके लिए सामग्री उपलब्ध है.”
जब हम पंचनामा करने के लिए घटनास्थल पर गए तो हमें ऐसी कोई सामग्री नहीं मिली. उन्होंने आगे कहा कि इससे अपराध साबित नहीं होता.
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नंदुरबार की जिला कलेक्टर डॉ. मित्तली सेठी ने बीबीसी से बात करते हुए कहा, “डाकिनी के उत्पीड़न की कई शिकायतें अक्सर पुलिस के पास दर्ज होती हैं. लेकिन प्राप्त शिकायतों की संख्या निश्चित रूप से वास्तविक अपराधों से कम है.”
डायन बताकर पीटा जाना बहुत गंभीर मामला है. लेकिन वो कह रही थीं कि यह हिंसा पुलिस तक पहुंचने वाली जानकारी से कहीं अधिक बड़े पैमाने पर हो रही होगी.
प्रशासन ने जिला स्तर पर अंधविश्वास विरोधी समिति का गठन किया है. उनकी नियमित बैठकें होती हैं. वहां प्राप्त शिकायतों पर भी चर्चा की जाती है.
जिला कलेक्टर सेठी ने कहा, “विभिन्न संस्थाएं और संगठन उन महिलाओं की मदद कर रहे हैं जो शिकायत करने के लिए आगे नहीं आ पाती हैं. महिलाओं के खिलाफ अत्याचार की शिकायतें भी उनके माध्यम से हम तक पहुंचती हैं. जैसे ही पुलिस को शिकायत मिलती है, तुरंत कार्रवाई की जाती है.”
इसके अलावा, डॉ. सेठी का कहना है कि प्रशासन जन जागरूकता पर भी ध्यान केंद्रित करता है.
लेकिन नंदुरबार के जिला कलेक्टर के रूप में अपने छह महीने के कार्यकाल के दौरान उन्होंने देखा कि जागरुकता वीडियो में दिखने वाले लोग स्थानीय आदिवासियों से परिचित नहीं थे.
डॉ. सेठी ने बताया, “जिला कलेक्टर कार्यालय अब इसके लिए स्थानीय स्तर पर एक विभाग बनाएगा. उसके माध्यम से आदिवासी भाषा में ही स्थानीय लोगों में जागरूकता लाने का प्रयास किया जाएगा. ये वीडियो खास तौर पर स्कूल के 14 से 18 वर्ष के बच्चों के लिए होंगे.”
उन्होंने यह भी आश्वासन दिया कि प्रशासन डायन प्रथा के पीड़ितों के पुनर्वास के लिए कुछ कदम उठाएगा. प्रशासन इस बात पर काम करेगा कि क्या बुजुर्गों, ट्रांसजेंडर और अन्य हाशिए पर रहने वाले लोगों के लिए जिले में चलाई जा रही विभिन्न योजनाओं के माध्यम से उनकी मदद की जा सकती है.
डॉ. सेठी ने यह भी कहा कि आने वाले दिनों में पुलिस के लिए भी जागरुकता सत्र आयोजित किए जाएंगे और न केवल कानून की जानकारी दी जाएगी बल्कि महिलाओं के प्रति पूर्वाग्रहों को ख़त्म करने के लिए भी काम किया जाएगा.
वास्तव में जिम्मेदार कौन है?
एएनएनआईएस के कार्यकर्ता विनायक सावले ने कहा कि डाकिन मुद्दे के संबंध में पुलिस व्यवस्था न केवल अक्षम है, बल्कि अज्ञानी और असंवेदनशील भी है.
वो कहते हैं, “इसके अलावा प्रशासन, शिक्षा और स्वास्थ्य व्यवस्थाएं इस मुद्दे को अपना नहीं मानती हैं. कोई भी इसकी जिम्मेदारी लेने को तैयार नहीं है. यह सही है कि आम आदिवासी लोगों में लंबे समय तक जागरुकता पैदा करनी होगी. लेकिन जब इसके लिए संसाधन कम होते जा रहे हैं, तो और कितनी महिलाएं पीड़ित होती रहेंगी?”
उनका कहना है कि अब तक डायन प्रथा तमाम जटिलताओं के बीच एक उपेक्षित मुद्दा रहा है, एक ऐसा मुद्दा जिसकी जिम्मेदारी कोई नहीं ले रहा है.
अंधेरे में बैठी सुगीबाई के मामले में भी यही देखा गया. स्थानीय पुलिस के प्रतिक्रिया न मिलने पर सुगीबाई साल 2021 में पुलिस अधीक्षक से शिकायत करने नंदुरबार गईं.
सैलून में काम करने वाले सुगीबाई के बेटे ने बताया, “सरकारी वकील जो अदालत में हमारे लिए लड़ता है, वह अभियुक्तों के वकीलों के अधीन काम करने वाला सहायक है.”
सुगीबाई का मानना है कि कानून में संशोधन किया जाना चाहिए ताकि डायन कह कर महिलाओं को परेशान करने वालों को छह महीने से एक साल तक की एक निश्चित अवधि के लिए सजा दी जाए.
लेकिन कई दिनों तक उनकी सुनवाई की तारीख भी नहीं आई है. अभियुक्तों को एक दिन जेल में बिताना पड़ा और फिर उन्हें जमानत पर रिहा कर दिया गया, जिससे सुगीबाई का परिवार और भी अधिक भय में जी रहा है.
सुगीबाई की सबसे बड़ी बेटी 27 वर्षीय अर्चना (बदला हुआ नाम) ने कहा, “हम कभी नहीं जानते कि लोग कब हमें मार देंगे, चाहे हम कहीं भी जाएं.”
अर्चना कहती हैं, “हम रात में दरवाज़ा बंद करके, लालटेन बुझाकर और अपने मोबाइल फ़ोन साइलेंट करके बैठते हैं. अगर हमें कोई आवाज़ भी सुनाई दे तो हम धीमी आवाज़ में बोलते हैं. हमें बस यही डर रहता है कि कोई हमारी आवाज़ सुनकर फिर से आकर हमें मार न दे.”
यदि किसी मां को डायन माना जाता है तो यह कलंक बेटी पर भी लागू होता है. ऐसा माना जाता है कि मां अपनी बेटी को दूध के माध्यम से जादू-टोने की कला सिखाती है. इसलिए अर्चना यह अच्छी तरह जानती हैं कि भविष्य में उन्हें भी डायन ही कहा जाएगा.
उसे लगता है कि उसे इन सारी चिंताओं को पीछे छोड़कर कम से कम एक दिन दिल खोलकर हंसना चाहिए. “माँ की तो जान चली गई. लेकिन हमारा क्या?”
उनके सवाल ने सुगीबाई की झोपड़ी के अंधेरे को भेद दिया. ये नंदुरबार की उनकी जैसी कई युवा लड़कियों की आवाज़ थी.
बीबीसी के लिए कलेक्टिव न्यूज़रूम की ओर से प्रकाशित.