राज ठाकरे 2005 में शिवसेना से बग़ावत कर अलग हो गए थे. तब बाल ठाकरे ज़िंदा थे. राज ठाकरे की बग़ावत के वक़्त बाल ठाकरे की उम्र लगभग 80 साल हो रही थी.
कहा जाता था कि बाल ठाकरे वाला तेवर राज ठाकरे में ही है और अपने चाचा की विरासत के असली दावेदार वही हैं.
राज ठाकरे की बग़ावत से बाल ठाकरे दुखी थे और उन्होंने लोकप्रिय मराठी गीत की चंद लाइन कहते हुए राज ठाकरे से लौटने की अपील की थी.
मराठी गीत की लाइन थी- ‘या चिमण्यांनो, परत फिरा रे घराकडे अपुल्या, जाहल्या तिन्हीसांजा जाहल्या…’ यानी छोटी गौरैयों को अपने घोंसले में लौट आना चाहिए.
लगातार गिरता शिवसेना का ग्राफ़
राज ठाकरे के अलग होने पर बाल ठाकरे को पुत्रमोह में पड़ने से जोड़ा गया और कई लोगों ने उन्हें धृतराष्ट्र तक कहा था.
धृतराष्ट्र कहे जाने के सवाल पर बाल ठाकरे ने शिवसेना के मुखपत्र सामना को दिए इंटरव्यू में कहा था, “मैं भले काला चश्मा लगाता हूँ लेकिन धृतराष्ट्र नहीं हूँ.”
राज ठाकरे के अलग होने पर बाल ठाकरे ने कहा था, “मैं बहुत हैरान और दुखी था. मैंने राज ठाकरे से ये उम्मीद नहीं की थी. मैंने तो ये सपने में भी नहीं सोचा था कि राज ऐसा करेगा. राज जो भी चाहता था, उसे लेकर मैं और उद्धव सहमत थे. लेकिन मैं ये नहीं बता सकता कि किस गुरु ने उसे सलाह दी और उसके दिमाग़ में ज़हर भरा. मैंने राज से कहा था कि उसे और उद्धव को साथ में बैठकर बात करनी चाहिए.”
महाभारत में धृतराष्ट्र के बारे में कहा जाता है कि पुत्रमोह के कारण वह दुर्योधन की हर बात मानते गए और यही उनके पुत्र की तबाही का कारण बना.
लेकिन राज ठाकरे पांडवों के अर्जुन नहीं बन सके और उद्धव ठाकरे भी मातोश्री तक सिमटकर रह गए. आलम यह है कि राज ठाकरे के बेटे अमित ठाकरे माहिम विधानसभा क्षेत्र में केवल 31,611 वोट ही पा सके और तीसरे नंबर पर रहे.
राज ठाकरे की पार्टी महाराष्ट्र नवनिर्माण सेना ने इस बार के चुनाव में पूरे महाराष्ट्र में 128 उम्मीदवार उतारे थे और एक को भी जीत नहीं मिली.
बाल ठाकरे के जीते जी नहीं दे पाया कोई चुनौती
2006 में राज ठाकरे ने महाराष्ट्र नवनिर्माण सेना का गठन किया था और 2009 के विधानसभा चुनाव में 13 सीटों पर पार्टी को जीत मिली थी.
ऐसा लगा था कि राज ठाकरे महाराष्ट्र की राजनीति में बाल ठाकरे की विरासत सँभालने के लिए तैयार हैं लेकिन मराठी मानुष और उत्तर भारतीयों से नफ़रत की राजनीति 2009 से आगे नहीं बढ़ पाई.
उद्धव ठाकरे की शिवसेना ने इस बार 95 सीटों पर अपने उम्मीदवार उतारे थे और जीत केवल 20 सीटों पर मिली जबकि उद्धव ठाकरे से बग़ावत कर बाल ठाकरे की विरासत पर अपनी दावेदारी पेश करने वाले पुराने शिव सैनिक एकनाथ शिंदे ने 81 सीटों पर अपने उम्मीदवार उतारे थे और उन्हें 57 सीटों पर जीत मिली.
बाल ठाकरे के ज़िंदा रहते, जिन्होंने भी शिवसेना छोड़ी या पार्टी से बग़ावत की, वो मातोश्री को चुनौती नहीं दे पाए.
राज ठाकरे के अलावा नारायण राणे से लेकर छगन भुजबल तक ने शिवसेना छोड़ी लेकिन एकनाथ शिंदे की तरह कोई चुनौती नहीं दे पाया. लेकिन तब बाल ठाकरे ज़िंदा थे और बीजेपी शिवसेना के मातहत काम करती थी.
जब तक बाल ठाकरे ज़िंदा रहे तब तक बीजेपी की हैसियत छोटे पार्टनर की रही और कोई शिव सैनिक भी उनको चुनौती नहीं दे पाया.
लेकिन बाल ठाकरे की मृत्यु के बाद महाराष्ट्र में बीजेपी, शिवसेना से बड़ी हो गई और उद्धव को ऐसी चुनौती मिली कि बाल ठाकरे की विरासत ही उनके हाथ से फिसल गई. मसलन पार्टी का नाम और चुनाव चिह्न तीर-धनुष दोनों छोड़ना पड़ा.
एकनाथ शिंदे हैं बाल ठाकरे के उत्तराधिकारी?
एकनाथ शिंदे की इस जीत से शिवसेना और बाल ठाकरे की विरासत के साथ विचारधारा पर उनकी दावेदारी मज़बूत हुई है.
2022 में जब शिंदे ने अविभाजित शिवसेना को तोड़ा था उस वक्त उनके साथ शिवसेना के 40 विधायक थे और कुछ निर्दलीय विधायक थे. उस समय उन्होंने उद्धव ठाकरे की सरकार गिरा दी थी. तब से उद्धव ठाकरे एकनाथ शिंदे को ग़द्दार कहते रहे हैं लेकिन महाराष्ट्र की जनता को इससे बहुत फ़र्क़ नहीं पड़ा.
कई लोग कह रहे हैं कि महाराष्ट्र विधानसभा के चुनावी नतीजे से साबित हो गया है कि कौन असली शिव सेना है और बाल ठाकरे की विरासत का सही उत्तराधिकार कौन है.
तो क्या बाल ठाकरे की राजनीतिक विरासत अब परिवार से बाहर शिफ़्ट हो गई है?
वरिष्ठ पत्रकार और ‘2024 द इलेक्शन दैट सरप्राइज़्ड इंडिया’ के लेखक राजदीप सरदेसाई कहते हैं, “बाल ठाकरे की राजनीतिक विरासत अब किसी भी शिवसेना में नहीं बची है. वो चाहे उद्धव की शिवसेना हो या एकनाथ शिंदे की. राज ठाकरे तो पहले ही इस रेस से बाहर हो गए थे.”
“मुझे लगता है कि बाल ठाकरे की विरासत को बीजेपी ने कैप्चर कर लिया है. वो चाहे हिन्दुत्व की राजनीति हो या फिर मराठी अस्मिता की राजनीति.”
सरदेसाई कहते हैं, “मुझे लगता है कि उद्धव के पास एक मौक़ा है, बीएमसी चुनाव का. यह शायद उद्धव के लिए आख़िरी मौक़ा होगा कि वो अपने पिता की विरासत पर मज़बूत दावेदारी पेश कर सकें लेकिन यह भी बहुत मुश्किल है. बीजेपी ने रणनीतिक तरीक़े से शिवसेना को अप्रासंगिक कर दिया है.”
“एकनाथ शिंदे को जो जीत मिली है, वो बीजेपी के साथ होने से मिली है. मुझे नहीं लगता है कि बीजेपी के बाहर एकनाथ शिंदे शिवसेना को ज़िंदा रख पाएँगे. हिन्दुत्व के मैदान में बीजेपी एकमात्र खिलाड़ी है और यह उसके मन मुताबिक़ है.”
उद्धव ठाकरे क्या कन्फ़्यूज़ दिखे?
ठाकरे परिवार ने बीजेपी को बाल ठाकरे की विरासत कैप्चर करने का मौक़ा क्यों दिया?
राजदीप सरदेसाई कहते हैं, “ठाकरे परिवार अपने पिता की विचारधारा के साथ नहीं रहा. राज ठाकरे कभी मोदी की तारीफ़ करते थे तो कभी बुराई. राज ठाकरे की विचारधारा बहुत ही ढुलमुल रही. उद्धव ठाकरे ने कांग्रेस के साथ गठबंधन कर लिया. उद्धव हिन्दुत्व और धर्मनिरपेक्षता की राजनीति में काफ़ी कन्फ्यूज दिखे. लेकिन बाल ठाकरे की विचारधारा में कोई कन्फ्यूजन नहीं था.”
“राहुल गांधी सावरकर को कायर बताते थे और उद्धव ने उनके साथ गठबंधन कर रखा था. हिन्दुत्व की राजनीति को लेकर शिव सैनिक इतने कन्फ्यूज़ कभी नहीं रहे थे. मुझे लगता है कि बीजेपी को बाल ठाकरे की राजनीतिक विरासत पर अपना नियंत्रण बनाने में कामयाबी ठाकरे परिवार की ग़लतियों के कारण मिली है.”
उद्धव ठाकरे ने इस चुनाव में ख़ुद को बाल ठाकरे के मूल्यों का संरक्षक और एकनाथ शिंदे को ग़द्दार बताया था. दूसरी तरफ़ एकनाथ शिंदे ख़ुद को ज़मीन से जुड़ा शिव सैनिक बता रहे थे और उद्धव के कांग्रेस के साथ जाने को हिन्दुत्व की राजनीति को कमज़ोर करना बता रहे थे.
इसके साथ ही शिंदे ने ख़ुद को बाल ठाकरे की विचारधारा का असली उत्तराधिकारी बताया था.
शनिवार को जब महाराष्ट्र के चुनावी नतीजे आए तो एकनाथ शिंदे ने पत्रकारों से कहा, “मैं असली और नक़ली शिवसेना की बहस में नहीं जाना चाहता हूँ. लोगों ने उस शिवसेना को जनादेश दे दिया है, जो बाल ठाकरे की विचारधारा के साथ थी. वो शिवसेना जो बीजेपी की सहयोगी है और दोनों की समान विचारधारा है. मैं किसी को बात करने से नहीं रोक सकता हूँ लेकिन लोगों ने जनादेश दे दिया है.”
बीजेपी की क्या रणनीति है?
उद्धव ठाकरे की पहचान एक अनिच्छुक नेता के रूप में रही है. उद्धव लंबे समय तक पिता की राजनीतिक गतिविधियों में बहुत मुखर होकर शामिल नहीं होते थे. राज ठाकरे राजनीतिक बयानबाज़ियों में ज़्यादा दिखते थे.
उद्धव की पहचान एक अच्छे फ़ोटोग्राफर की रही है. उद्धव ठाकरे परिवार के पहले व्यक्ति थे जिन्होंने कोई पद लिया. इससे पहले बाल ठाकरे किंगमेकर की भूमिका में रहते थे और रिमोट कंट्रोल से सरकार चलाना ज़्यादा पसंद करते थे.
पंजाब यूनिवर्सिटी में राजनीति विज्ञान के प्रोफ़ेसर आशुतोष कुमार कहते हैं, “उद्धव की पहचान अपने पिता बाल ठाकरे से बिल्कुल अलग रही है. वह राजीव गांधी की तरह राजनीति में अनिच्छुक नेता की तरह रहे हैं. जिस तरह से बाल ठाकरे मुसलमानों और हिन्दी भाषियों को निशाने पर लेते थे, वैसा बयान उद्धव का नहीं मिलेगा.”
“शिव सैनिक उग्र हिन्दुत्व और मराठी अस्मिता की राजनीति की भाषा समझते थे लेकिन उद्धव मध्यमार्गी और धर्मनिरपेक्षता की बात कर रहे थे. जहाँ देश के बहुसंख्यक हिन्दू सांप्रदायिक हो गए हैं, वहाँ उद्धव ठाकरे, बाल ठाकरे की विचारधारा से ख़ुद ही दूर मालूम पड़ रहे थे.”
वहीं दिल्ली यूनिवर्सिटी में सामाजिक विज्ञान के प्रोफ़ेसर रहे सतीश देशपांडे मानते हैं कि बात केवल उद्धव ठाकरे की शिवसेना के कमज़ोर होने या ख़त्म होने की नहीं है. प्रोफ़ेसर देशपांडे कहते हैं कि इसका संदेश गहरा है.
प्रोफ़ेसर देशपांडे कहते हैं, “आने वाले दिनों में भारत की राजनीति में प्रांतीय दलों के लिए मुश्किलें और बढ़ने वाली हैं. भारत में अभी जिस किस्म की राजनीति चल रही है, उसमें जो भी राजनीतिक दल ख़ुद को फ़िट नहीं कर पाएंगे, उनके लिए बहुत जगह नहीं बचेगी.”
“बहुसंख्यकवाद और अधिनायकवाद की राजनीति का ज़ोर है. बहुसंख्यक आबादी इस राजनीति को पसंद कर रही है. ऐसे में केवल बाल ठाकरे की ही विरासत नहीं, किसी की भी विरासत ख़तरे में पड़ सकती है.”
हिंदुत्व की राजनीति पर अब सिर्फ़ बीजेपी का क़ब्ज़ा?
प्रोफ़ेसर देशपांडे कहते हैं, “बीजेपी का ज़ोर एकरूपता पर है. बीजेपी का ज़ोर शक्तियों के केंद्रीकरण पर है. आने वाले दिनों में राज्यों की भूमिका कम होगी. केंद्र की शक्ति और बढ़ेगी. ऐसे में प्रांतीय दलों के भविष्य संकटग्रस्त दिख रहे हैं. बीजेपी को एकरूपता पसंद है.”
“एकरूपता के साथ बहुदलीय व्यवस्था कैसे चलेगी? वन नेशन वन इलेक्शन, वन नेशन वन टैक्स जैसी नीतियों का विस्तार होगा. यह वननेस कहाँ रुकेगी हमें नहीं पता. क्या पता वन नेशन वन पार्टी तक जाए. इस जीत से बीजेपी के पार्टनर भी ख़ुश नहीं होंगे. बिहार में अगले साल चुनाव है. नीतीश कुमार सतर्क हो गए होंगे लेकिन अब देर हो चुकी है. एकनाथ शिंदे का भविष्य बीजेपी से बाहर कितना होगा, अभी कुछ भी कहना मुश्किल है.”
दिल्ली में बिहार के एक ऑटो वाले ने कहा, लोहा ही लोहे को काटता है, बीजेपी ने भी कुछ ऐसा ही फ़ॉर्मूला निकाला कि शिवसेना को शिव सैनिकों से ही ख़त्म करवाना है.
अक्सर नरेंद्र मोदी और योगी आदित्यनाथ की नीतियों की तारीफ़ करने वाले वरिष्ठ पत्रकार प्रदीप सिंह कहते हैं कि महाराष्ट्र में बीजेपी के सामने हिन्दुत्व की राजनीति में अब कोई प्रतिद्वंद्वी नहीं बचा है और एकनाथ शिंदे को बीजेपी खड़ा कर सकती है तो उन्हें अप्रासंगिक भी बना सकती है.
प्रदीप सिंह कहते हैं, “आने वाले दिनों में देश में क्षेत्रीय दलों की मुश्किलें बढ़ने वाली हैं. बल्कि यूँ कहिए कि वे अपने अस्तित्व की लड़ाई लड़ रहे हैं. हरियाणा में आईएनएलडी और जेजेपी का हश्र लोग देख चुके हैं. कर्नाटक में जेडीएस का भी वही हाल हुआ. महाराष्ट्र में शिवसेना और अब बिहार में नीतीश कुमार की बारी है.”
बीजेपी के एक नेता ने नाम नहीं छापने की शर्त पर कहा, “बाल ठाकरे की राजनीतिक विरासत पर ही नहीं, अब हम जेपी और लोहिया की विरासत पर भी अपना नियंत्रण करेंगे क्योंकि इनके शिष्य इन विरासतों को सँभालने में नाकाम रहे हैं.”
बीबीसी के लिए कलेक्टिव न्यूज़रूम की ओर से प्रकाशित