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महाराष्ट्र के उपमुख्यमंत्री अजित पवार के बेटे पार्थ पवार पुणे के मुंढवा-कोरेगांव पार्क इलाके़ में 40 एकड़ ज़मीन की बिक्री को लेकर विवादों में फंस गए हैं.
मामला ये है कि बाज़ार मूल्य के अनुसार इस इलाक़े में इस ज़मीन की कीमत कथित तौर पर लगभग एक हज़ार आठ सौ करोड़ रुपये थी, लेकिन इसे मात्र तीन सौ करोड़ रुपये में बेच दिया गया. इस डील के कारण महाराष्ट्र की राजनीतिक गलियारों में विवाद पैदा हो गया है.
पार्थ पवार की पार्टनरशिप वाली ‘अमीडिया होल्डिंग्स’ नाम की कंपनी ने कुछ महीने पहले यह ज़मीन खरीदी थी.
अब इस मामले में बावधान पुलिस स्टेशन में मामला दर्ज हो गया है, लेकिन उसमें पार्थ पवार का नाम नहीं है.
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इस मामले में भले ही सस्ती दर में ज़मीन की खरीद को लेकर पार्थ पवार का नाम राजनीतिक विवादों में आ गया हो, लेकिन एक और संवेदनशील मुद्दा इससे जुड़ा है. वो ये कि यह ज़मीन ‘महार वतन’ की है, यानी ये एक तरह से सरकार की ज़मीनें हैं.
मतलब ये कि महार वतन की ज़मीन, जो सरकार के स्वामित्व में थी उसे निजी लैंड डील में बेचा गया. ये एक गंभीर मामला है.
लेकिन ‘महार वतन’ ज़मीनें क्या हैं? महाराष्ट्र में ऐसी ज़मीनें बड़ी संख्या में हैं और इनका अपना एक इतिहास है. न तो इन्हें कोई ख़रीद सकता है और न ही बेच सकता है. ऐसा क्यों है?
इस मामले के ज़रिए हम महार संपत्ति के इतिहास और वर्तमान को समझने की कोशिश करते हैं.
ब्रिटिश दौर से प्रचलित प्रथा
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महाराष्ट्र और आसपास के इलाक़ों में वतनदारी प्रथा ब्रिटिश दौर से पहले से ही प्रचलित थी.
राजा अपने अधिकार क्षेत्र में मौजूद ज़मीन दान में भी देते थे. इस ज़मीन के बदले में लोगों को कुछ सामाजिक कार्य करने होते थे.
इस ज़मीन पर खेती की जा सकती थी और उससे कमाई की जा सकती थी, लेकिन उसकी खरीद-बिक्री पर प्रतिबंध था.
महार समुदाय को विरासत में दी गई ज़मीन ऐसी ही एक प्रथा थी. बदले में, इस समुदाय के लोगों को सुरक्षा, संचार और अन्य सरकारी ज़िम्मेदारियां निभानी पड़ती थीं.
ब्रिटिश काल में भी विरासत में ज़मीन देने की यह प्रथा जारी रही. इस समुदाय के लोग ज़मींदारों को उपहार में दी गई ज़मीन पर खेती करते रहे.
लेकिन, आज़ादी के बाद इन ज़मीनों को लेकर सरकार की नीति बदल गई.
तब तक दान के तौर पर दी जाने वाली ज़मीनों के कई प्रकार मौजूद थे. जैसे, राजनीतिक कार्यों के लिए दान, धार्मिक कार्यों के लिए दान, प्रशासनिक कार्य के बदले दान.
आज़ादी के बाद, सरकार ने उत्तराधिकार और जागीर की इस व्यवस्था को बंद करने का फ़ैसला किया. इसके पीछे कई सामाजिक कारण थे.
साल 1958 में, महाराष्ट्र सरकार ‘वतन निर्मूलन अधिनियम’ लेकर आई और इसके तहत इन महार वतनों को ख़त्म कर दिया गया. इसके तहत आने वाली ज़मीनों को भी सरकार ने अपने कब्ज़े में ले लिया.
इन पर कब्ज़ा करने की प्रक्रिया के दौरान सरकार ने उन परिवारों को मुआवज़ा भी दिया जो इन महार वतन ज़मीनों पर काम कर अपना गुज़ारा चलाते थे.
साल 1963 के आसपास, इन ज़मीनों के संबंध में एक और नियम बनाया गया. इसकी शर्तें तय की गईं.
इसके अनुसार, महार वतन की ज़मीनें मूल ज़मीन मालिकों को वापस कर दी गईं, लेकिन इसके लिए उनसे ज़मीन की दर का 50 प्रतिशत दान के रूप में लिया गया.
आज भी, अगर इन ज़मीनों का इस्तेमाल गै़र-कृषि कार्यों के लिए किया जाना है, तो सरकार को 50 प्रतिशत दान देकर अनुमति लेकर ऐसा किया जा सकता है.
नए नियमों के अनुसार यह तय किया गया कि इन ज़मीनों का इस्तेमाल किस काम के लिए किया जाएगा.
मालिकों के नाम ज़मीन रजिस्टर में दर्ज तो हो गए, लेकिन मालिकाना हक़ एक तरह से सरकार के पास ही रहा.
प्रशासनिक भाषा में इन्हें ‘कब्ज़ाधारी वर्ग 2’ प्रकार की ज़मीनें कहा जाता है.
ज़मीन ख़रीद-बिक्री को लेकर प्रतिबंध
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महार ज़मीन की ख़रीद-बिक्री को लेकर कड़े प्रतिबंध हैं.
ये ज़मीनें दरअसल सरकार के प्रतिनिधि के रूप में जिला कलेक्टर के अधिकार क्षेत्र में आती हैं.
मतलब ये कि इनकी किसी भी प्रकार की ख़रीद-बिक्री के लिए जिला कलेक्टर की अनुमति आवश्यक है.
अगर बिना इजाज़त ज़मीन का लेन-देन होता है, तो जिला कलेक्टर को उस ज़मीन को सरकार को हस्तांतरित करने का अधिकार है.
महाराष्ट्र के अलग-अलग हिस्सों में इस तरह से उपहार में दी गई ज़मीनें हैं.
पुणे की जिस ज़मीन को लेकर मौजूदा वक्त में विवाद चल रहा है, वो भी महार उत्तराधिकार की ज़मीन है.
कहा जा रहा है कि जिला कलेक्टर या सरकार को इस लेन-देन की कोई जानकारी नहीं थी और न ही उनसे इस संबंध में पहले से इजाज़त ली गई थी.
इसके अलावा, 1988 में राज्य सरकार ने यह ज़मीन केंद्र सरकार की संस्था ‘बॉटेनिकल सर्वे ऑफ़ इंडिया’ को 50 साल के पट्टे पर दे दी थी.
क्या है मामला?
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सामाजिक कार्यकर्ता विजय कुंभार और अंजलि दमानिया ने एक्स पर पंजीकरण और स्टांप विभाग का एक दस्तावेज़ साझा किया है, जिसमें मुंढवा, मुलशी तालुका में एक ज़मीन की खरीद विवरण दिया गया है.
इस दस्तावेज़ के अनुसार, अशोक अबाजी गायकवाड़ की ओर से शीतल तेजवानी को एक पावर ऑफ अटॉर्नी दिखाई गई थी, और उन्होंने ज़मीन की इस डील को पूरा किया था.
इस डील में खरीदने वाले पक्ष का नाम अमीडिया एंटरप्राइज़ेस लिमिटेड की तरफ से दिग्विजय अमरसिंह पाटिल है.
ज़मीन का ये सौदा 25 मई, 2025 को हुआ था और कागज़ों में इस ज़मीन की दर 300 करोड़ रुपये दिखाई गई है. इस पर सिर्फ़ 500 रुपये की स्टांप ड्यूटी चुकाई गई है.
विजय कुंभार के अनुसार इस ज़मीन सौदे में लगभग 21 करोड़ रुपये की स्टांप ड्यूटी होनी चाहिए थी. उन्होंने सवाल उठाया है कि इसे माफ़ क्यों किया गया?
वो पूछते हैं, “क्या स्टांप ड्यूटी इसलिए माफ़ की गई क्योंकि इस सौदे में अजित पवार के बेटे शामिल हैं? एक आम आदमी एक छोटा-सा घर खरीदते समय लाखों रुपये स्टांप ड्यूटी में देता है. लेकिन, उन्हें करोड़ों की ज़मीन पर छूट कैसे मिलती है? क्या कुछ खास लोगों के लिए कोई विशेष छूट है?”
वहीं अंजलि दमानिया ने अमीडिया एंटरप्राइज़ेस से जुड़े कुछ दस्तावेज़ सोशल मीडिया पर पोस्ट किए थे, जिसमें पार्थ पवार और दिग्विजय पाटिल को कंपनी के दो साझेदारों के रूप में दिखाया गया है.
इस पोस्ट को अब सोशल मीडिया से हटा लिया गया है.
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दमानिया का कहना है कि बाज़ार दर के अनुसार इस ज़मीन की कीमत 1804 करोड़ रुपये है. उन्होंने स्टांप ड्यूटी का मुद्दा भी उठाया है.
वह कहती हैं, “अजित पवार खुद ये सवाल उठा चुके हैं कि किसानों को कब तक सब कुछ मुफ्त में मिलते रहना चाहिए. उनके बेटे की कंपनी के 1804 करोड़ के सौदे पर 126 करोड़ रुपये की स्टांप ड्यूटी होनी चाहिए थी, लेकिन इस सौदे को 300 करोड़ रुपये का दिखाया और इस पर 21 करोड़ रुपये की स्टांप ड्यूटी माफ़ कर दी. क्या यह मुफ़्त में मिली छूट नहीं थी?”
इसके अलावा, “यह ज़मीन महार वतन की है और बॉम्बे अवर ग्राम काश्तकारी उन्मूलन अधिनियम 1958 (बॉम्बे इन्फ़िरीयर विलेज वतन्स एबॉलिशन एक्ट) की धारा 5(3) के अनुसार, ऐसी ज़मीन को सरकार की अनुमति के बिना किसी को बेचा, हस्तांतरित या गिरवी नहीं रखा जा सकता है.”
मतलब ये कि क़ानून के मुताबिक, ये ज़मीन सरकार की अनुमति के बिना नहीं बेची जा सकती. अगर बिना अनुमति के बेची जाती है, तो सौदा अवैध हो जाता है. ऐसे में ये ज़मीन वापस सरकार के पास जा सकती है.
दमानिया का सवाल है कि क्या इस संबंध में राजस्व मंत्री चंद्रशेखर बावनकुले ज़ब्ती का आदेश जारी करेंगे?
उन्होंने इस संबंध में शिकायत दर्ज कराने के लिए राजस्व मंत्री बावनकुले से समय भी मांगा है.
दमानिया ने ये भी मांग की है कि इस मामले की जांच आर्थिक अपराध शाखा (इकोनॉमिक ऑफ़ेंस विंग) और ईडी करे.
अजित पवार की प्रतिक्रिया
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इस बीच प्रदेश के उपमुख्यमंत्री अजित पवार ने इस मामले से दूरी बना ली है.
उन्होंने कहा कि उनका इस मामले से कोई लेना-देना नहीं है और उन्होंने कभी भी ग़लत काम का समर्थन नहीं किया है.
वहीं मुख्यमंत्री देवेंद्र फडणवीस ने कहा है कि इस मामले की जांच की जाएगी ताकि पता लगाया जा सके कि इसमें कोई अनियमितता है या नहीं.
उन्होंने कहा, “अगर किसी तरह की अनियमितता पाई गई तो निश्चित रूप से कार्रवाई की जाएगी.”
उन्होंने कहा है, “इस मामले में, एफ़आईआर कंपनी और उसके अधिकृत हस्ताक्षरकर्ताओं के ख़िलाफ़ दर्ज की गई है. जांच के दौरान अगर नए नाम सामने आते हैं, तो उनके ख़िलाफ़ भी कार्रवाई की जाएगी. किसी को भी नहीं बख्शा जाएगा.”
बीबीसी के लिए कलेक्टिव न्यूज़रूम की ओर से प्रकाशित