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- Author, रेहान फ़ज़ल
- पदनाम, बीबीसी हिंदी के लिए
3 नवंबर, 1988 को मालदीव के राष्ट्रपति मौमून अब्दुल ग़यूम भारत यात्रा पर आने वाले थे. उनको लाने के लिए एक भारतीय विमान दिल्ली से माले के लिए उड़ान भर चुका था.
अभी वो आधे रास्ते में ही था कि भारत के प्रधानमंत्री राजीव गाँधी को अचानक एक चुनाव के सिलसिले में दिल्ली से बाहर जाना पड़ गया.
राजीव गांधी ने ग़यूम से बात कर ये तय किया कि वो फिर कभी भारत आएंगे.
लेकिन ग़यूम के ख़िलाफ़ विद्रोह की योजना बनाने वाले मालदीव के व्यापारी अब्दुल्ला लुथूफ़ी और उनके साथी सिक्का अहमद इस्माइल मानिक ने तय किया कि बग़ावत को स्थगित नहीं किया जाएगा.
पहले उनकी योजना थी कि बग़ावत की शुरुआत तब हो जब राष्ट्रपति ग़यूम माले में न हों.
उन्होंने श्रीलंका के चरमपंथी संगठन ‘प्लोट’ (पीपुल्स लिबरेशन ऑर्गेनाइजेशन ऑफ़ तमिल ईलम) के भाड़े के लड़ाकुओं को पर्यटकों के भेष में स्पीड बोट्स के ज़रिए पहले ही माले पहुंचा दिया था.
उस समय मालदीव में भारत के उच्चायुक्त थे एके बैनर्जी. वो ग़यूम की पहले से निर्धारित भारत यात्रा के सिलसिले में दिल्ली आए हुए थे.
भारत से सैनिक भेजने की अपील
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एके बैनर्जी याद करते हैं, “मैं दिल्ली के अपने घर में कंबल से दबा हुआ गहरी नींद में सो रहा था. तभी सुबह साढ़े छह बजे मेरे फ़ोन की घंटी बजी.’
उन्होंने आगे कहा, ‘माले में मेरे सचिव ने बताया कि वहाँ विद्रोह हो चुका है. और सड़कों पर लोग गोली चलाते हुए इधर उधर घूम रहे हैं. राष्ट्रपति ग़यूम एक सेफ़ हाउस में छिपे हुए हैं और उन्होंने भारत से अपील की है कि वो उनको बचाने के लिए तुरंत अपने सैनिक भेजे.’
उधर विदेश मंत्रालय में संयुक्त सचिव रहे कुलदीप सहदेव के पास भी माले के भारतीय उच्चायोग से फ़ोन आया. उन्होंने तुरंत इसकी सूचना प्रधानमंत्री कार्यालय में संयुक्त सचिव रोनेन सेन को दी.
उन्होंने उन्हें साउथ ब्लॉक में आर्मी ऑपरेशन रूम में होने वाली उच्च स्तरीय बैठक में बुला लिया, जिसमें कलकत्ता से वापस लौटते ही प्रधानमंत्री राजीव गाँधी भी भाग लेने वाले थे.
इंडियन एक्सप्रेस के सह संपादक सुशांत सिंह अपनी किताब ‘मिशन ओवरसीज़ः डेयरिंग ऑपरेशन्स बाई द इंडियन मिलिट्री’ में लिखते हैं, “राजीव गांधी रोनेन सेन और कुलदीप सहदेव के साथ मिलिट्री ऑपरेशन रूम में घुसे. गृह उप मंत्री पी चिदंबरम ने वहाँ ‘नेशनल सिक्योरिटी गार्ड्स’ भेजने की पेशकश की, लेकिन सेना ने उसे स्वीकार नहीं किया.”
उन्होंने आगे बताया, “रॉ प्रमुख आनंद स्वरूप वर्मा ने कहा कि उनकी सूचना है कि माले के हुलहुले हवाई अड्डे पर सैकड़ों विद्रोहियों ने कब्ज़ा कर लिया है. रोनेन सेन ने उनसे चुप रहने के लिए कहा. वास्तव में माले में जो कुछ हो रहा था, उसकी असली सूचना रोनेन सेन के पास थी.’
क्यों टेलिफ़ोन क्रेडिल पर नहीं रखा गया?

सुशांत सिंह लिखते हैं, ‘मालदीव के विदेश सचिव ज़की ने 7 आरसीआर पर सीधे फ़ोन मिलाया था, जिसे सेन ने खुद उठाया था. ज़की ने उन्हें बताया कि विद्रोहियों ने उनके घर के ठीक सामने टेलिफ़ोन एक्सचेंज पर कब्ज़ा कर लिया है. सेन ने उन्हें सलाह दी कि वो टेलिफ़ोन न रखें, क्योंकि ज्यों ही उन्होंने ऐसा किया, टेलिफ़ोन एक्सचेंज के स्विच बोर्ड की लाइट बुझ जाएगी और विद्रोहियों को पता चला जाएगा कि वो किसी से टेलिफ़ोन पर बात कर रहे हैं. ये टेलिफ़ोन अगले 18 घंटों, पूरे अभियान के ख़त्म होने, तक टेलिफ़ोन क्रेडिल पर नहीं रखा गया.’
बैठक में पहले तय हुआ कि आगरा की 50 पैरा ब्रिगेड के सैनिकों को माले में पैराशूट के ज़रिए उतारा जाएगा. लेकिन इस योजना में एक समस्या थी. उनको एक ऐसे ‘ड्रॉपिंग ज़ोन’ की ज़रूरत थी, जहाँ अगर उनके पैराशूट बिखर भी जाएं तो वो ज़मीन पर उतरें, न कि समुद्र के पानी पर.
उनको सुरक्षित उतरने के लिए 12 फ़ुटबॉल के मैदान जितने क्षेत्र की ज़रूरत थी, तो माले में संभव नहीं था. इस बात की बहुत संभावना थी कि सैनिकों के पैराशूट समुद्र में गिरें और अगर ऐसा होता तो सैनिक तेज़ बहाव वाले पानी में अपने पैराशूट नहीं खोल पाते और एक भारी पत्थर की तरह तमुद्र की सतह पर जा पहुंचते.
इसलिए इस योजना पर अमल न करने का फ़ैसला लिया गया. बैठक में मौजूद लोगों को ये भी पता नहीं था कि हुलहुले हवाई अड्डे की लंबाई कितनी थी, हांलाकि उसे एक भारतीय कंपनी ने बनाया था.
राजीव गाँधी ने रोनेन सेन को निर्देश दिए कि वो इंडियन एयरलाइंस के उन पायलटों से संपर्क करें जो माले तक की उड़ान भरते रहे हैं.
बैठक के बाद उप सेनाध्यक्ष लेफ़्टिनेंट जनरल रोड्रिग्स ने ब्रिगेडियर फ़ारूक बुल बलसारा को फ़ोन मिला कर पैराट्रूप्स को तैयार रहने के लिए कहा. बलसारा ने इससे पहले मालदीव का नाम भी नहीं सुना था.
उनका इंटेलिजेंस ऑफ़िसर लाइब्रेरी से एक एटलस उठा लाया. जिससे उन्हें पता चला कि मालदीव 1200 द्वीपों का एक समूह है जो भारत के सुदूर दक्षिणी किनारे से 700 किलोमीटर दक्षिण पश्चिम में है.
पर्याप्त नहीं थी भारतीय सेना की तैयारी
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बुलसारा ने अपने दो अफ़सरों को आगरा के पर्यटक केंद्रों में भेज कर मालदीव के बारे में जितनी भी जानकारी संभव हो, जुटाने के लिए कहा. इस बीच ब्रिगेडियर वीपी मलिक जो बाद में सेनाध्यक्ष बने, मालदीव में भारतीय उच्चायुक्त एके बैनर्जी को एक सैनिक विमान में ले कर आगरा पहुंच गए.
एके बैनर्जी बताते हैं, ‘जब मैं ऑपरेशन रूम में पहुंचा तो मेज़ पर हुलहुले हवाई अड्डे की जगह पर गान हवाई अड्डे का नक्शा फैला हुआ था, जो माले से 300 किलोमीटर दूर था. देखते ही मैं चीखा, ये ग़लत नक्शा है. ज़ाहिर है इतने बड़े अभियान के लिए भारतीय सैनिकों की तैयारी पर्याप्त नहीं थी.’
सुशांत सिंह बताते हैं, ‘बुलसारा की योजना थी कि अगर हुलहुले हवाई अड्डे पर तब तक विद्रोहियों का कब्ज़ा नहीं हुआ है, तो वो विमान को वहाँ पर उतार देंगे. लेकिन अगर ऐसा नहीं है तो वो अपने पैराशूट के ज़रिए सैनिकों को हवाई अड्डे पर कब्ज़ा करने के लिए नीचे उतारेंगे. बुलसारा ने तय किया कि अगर ऐसा होता है तो वो अपने सैनिकों के साथ सबसे पहले नीचे उतरेंगे. तभी ब्रिगेडियर मलिक ने कहा कि क्यों न हम उच्चायुक्त बैनर्जी को इस अभियान में अपने साथ ले चले, क्योंकि इनको माले के बारे में पूरी जानकारी है, जो हमारे काम आएगी.’
बैनर्जी ने मालदीव जाने के लिए दो शर्तें रखीं
जब बैनर्जी को ये बात बताई गई तो वो जाने के लिए तैयार नहीं हुए.
बैनर्जी बताते हैं, ‘मैंने साथ चलने के लिए दो शर्ते रखीं. पहली ये कि आपको इसके लिए विदेश मंत्रालय की अनुमति लेनी होगी और दूसरी ये कि मुझे एक सेफ्टी रेज़र उपलब्ध कराई जाए, क्योंकि मैं अपने दिन की शुरुआत बिना दाढ़ी बनाए नहीं करता. पहली शर्त तुरंत पूरी हो गई लेकिन दूसरी शर्त पूरी करने के लिए रात को ही आर्मी कैंटीन खुलवाई गई और मेरे लिए एक शेविंग किट, टूथ ब्रश और तौलिया निकलवाया गया.’
ये पहला मौका था जब विदेश मंत्रालय का एक बड़ा अधिकारी एक बड़े सैनिक अभियान में भारतीय सैनिकों के साथ भाग ले रहा था.
जैसे ही छाताधारी सैनिकों से भरे विमान ने आगरा के खेरिया हवाई ठिकाने के रनवे पर दौड़ना शुरू किया, उस पर बैठे 6 पैरा के सैनिकों ने नारा लगाया, ‘छतरी माता की जय!’
अभी विमान को हवा में आए कुछ ही मिनट हुए थे कि ब्रिगेडियर बुलसारा सोने चले गए. उन्होंने अपने पैरा कमांडो के शुरुआती दिनों में ही ये पाठ सीख लिया था कि किसी भी बड़े अभियान से पहले अच्छी नींद लेना ज़रूरी है.
भारतीय सैन्य अभियान की बीबीसी ने दी ब्रेकिंग
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उस विमान पर सवार लेफ़्टिनेंट जनरल विनोद भाटिया बताते हैं, “जैसे ही हम भारत की सीमा से बाहर निकले ब्रिटिश एयरवेज़ के एक जहाज़ ने हमें देख लिया और हमें उन्हें बताना पड़ा कि हम कहाँ जा रहे हैं हैं. शायद यही वजह थी कि बीबीसी ने अपने सात बजे के बुलेटिन में बता दिया कि मालदीव के राष्ट्रपति को बचाने के लिए भारत ने सैनिक अभियान शुरू कर दिया है.”
जब भारतीय विमान ने लैंड किया तो हवाई अड्डे पर घुप्प अँधेरा था. जैसे ही आई एल 76 विमान रुका, मिनटों में 150 भारतीय सैनिक और कई जीपें बाहर आ गईं. थोड़ी देर में दूसरा विमान उतरा और उसने आनन फानन मे एटीसी, जेटी और हवाई पट्टी के उत्तरी और दक्षिणी किनारे पर नियंत्रण कर लिया.
एटीसी से ही ब्रिगेडियर बुलसारा ने राष्ट्रपति ग़यूम से उनके गुप्त ठिकाने पर रेडियो से संपर्क स्थापित किया.
सुशांत सिंह बताते हैं, “ग़यूम ने बुलसारा से कहा कि जितनी जल्द हो सके वहाँ पहुंचे, क्योंकि विद्रोहियों ने उनके सेफ़ हाउस को घेर रखा है और वो नज़दीक में फ़ायरिंग की आवाज़ सुन सकते हैं. बुलसारा ने कहा, मिस्टर प्रेसिडेंट हम पहुंच चुके हैं और आपको सुरक्षित निकालने लिए के लिए पूरा ज़ोर लगा देंगे.’
जब भारतीय सैनिक सेफ़ हाउस के नज़दीक पहुंचे, तो वहाँ ज़बरदस्त गोलीबारी हो रही थी. बुलसारा ने राष्ट्रपति ग़यूम से कहा था कि वो अपने सेफ़ हाउस के बाहर गाइड्स तैनात कर दें, ताकि जब वो वहाँ पहुंचे तो सीधे उन्हें उनके पास ले जाया जाए. लेकिन मालदीव की नेशनल सिक्योरिटी सर्विस के लेफ़्टिनेंट तक ग़यूम का संदेश नहीं पहुंच पाया.
ग़यूम के सुरक्षा बलों ने भारतीय सैनिकों को आगे बढ़ने से रोक दिया. बुलसारा गोली चलाने का आदेश देने ही जा रहा थे कि उनके गार्डों ने भारतीय सैनिकों को आगे बढ़ने की जगह दे दी. जब भारतीय सैनिक राष्ट्रपति ग़यूम के पास पहुंचे तो सुबह के 2 बज कर 10 मिनट हो चुके थे. उन्होंने राष्ट्रपति से अनुरोध किया कि वो उनके साथ हुलहुले हवाई अड्डे चले, लेकिन उन्होंने वहाँ जाने से इंकार कर दिया. उन्होंने ज़ोर दिया कि उन्हें नैशनल सिक्योरिटी सर्विस के मुख्यालय ले जाया जाए.
3 बज कर 15 निनट पर जब बुलसारा और एके बैनर्जी जब एनएसएस के मुख्यालय पहुंचे तो भवन के चारों तरफ विद्रोहियों के शव फैले हुए थे भवन पर सैकड़ों गोलियों के निशान बता रहे थे कि विद्रोहियों ने उस पर नियंत्रण करने की पूरी कोशिश की थी.
बैनर्जी को याद है, “ग़यूम हिले हुए दिख रहे थे लेकिन वो पूरी तरह से नियंत्रण में थे और हमें देख कर वो बहुत खुश हुए. उन्होंने हमारा धन्यवाद किया और कहा कि वो राजीव गांधी से बात करना चाहते हैं.”
ठीक चार बजे सुबह सेटेलाइट फ़ोन से राजीव गाँधी से संपर्क स्थापित हुआ.
रोनेन सेन को अभी तक याद है राजीव गांधी उस समय अपने कंप्यूटर के सामने बैठे हुए थे और एक हाथ से टाइप कर रहे थे, जैसे कि वो हमेशा किया करते थे. राष्ट्रपति ग़यूम से बात करने के बाद ही राजीव सोने गए.
जब रोनेन सेन राजीव के दफ़्तर से निकलने लगे तो राजीव ने उनसे कहा रक्षा मंत्री को मेरी तरफ़ से इस सफल अभियान के लिए बधाई दें.
लेकिन फिर वो मुस्करा कर बोले, ‘छोड़िए, इस समय वो सो रहे होंगे.’
(ये लेख पहली बार 8 फ़रवरी 2018 को प्रकाशित किया गया था)
बीबीसी के लिए कलेक्टिव न्यूज़रूम की ओर से प्रकाशित.