
1960 के दशक से शुरू अपने करियर में मैंने दुनिया भर में 40 से ज़्यादा युद्धों की रिपोर्टिंग की है. मैंने शीत युद्ध को उसकी चरम सीमा तक पहुंचते देखा और फिर अचानक ख़त्म होते भी.
लेकिन मैंने कभी ऐसा साल नहीं देखा जैसा 2025 रहा है. और यह सिर्फ़ इसलिए नहीं क्योंकि कई बड़े संघर्ष चल रहे हैं, बल्कि इसलिए कि इनमें से एक का भू-राजनीतिक असर बेहद गंभीर और अभूतपूर्व होता दिख रहा है.
यूक्रेन के राष्ट्रपति वोलोदिमिर ज़ेलेंस्की ने चेतावनी दी है कि उनके देश का मौजूदा संघर्ष एक विश्व युद्ध में बदल सकता है.
लगभग 60 साल तक युद्धों पर नज़र रखने के बाद मुझे भी यह बुरा अहसास हो रहा है कि वह सही कह रहे हैं.
नेटो देशों की सरकारें इस बात को लेकर बेहद सतर्क हैं कि कहीं रूस उन समुद्री केबलों को न काट दे जिनसे पश्चिमी समाज का इलेक्ट्रॉनिक संचार चलता है.
आरोप है कि रूस के ड्रोन नेटो देशों की सुरक्षा व्यवस्था को परख रहे हैं. उनके हैकर्स ऐसे तरीके विकसित कर रहे हैं जिनसे मंत्रालय, आपातकालीन सेवाएं और बड़ी कंपनियां ठप जाएं.
पश्चिमी देशों का मानना है कि रूस की गुप्तचर एजेंसियां उनके यहां शरण लेने वाले असंतुष्ट रूसियों की हत्या करती हैं या हत्या करने की कोशिश करती हैं.
साल 2018 में ब्रिटेन के सैलिस्बरी शहर में पूर्व रूसी खुफिया एजेंट सर्गेई स्क्रिपाल की हत्या की कोशिश (और एक स्थानीय महिला डॉन स्टर्जेस को ख़तरनाक ज़हर दिए जाने) की जांच से यह पता चला था कि इस हमले की मंज़ूरी रूस के सबसे ऊंचे स्तर से दी गई थी.
यानी कि खुद राष्ट्रपति पुतिन ने इसकी इजाज़त दी थी.
इस बार हालात अलग लग रहे हैं
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साल 2025 को तीन अलग-अलग युद्धों की वजह से पहचाना जा सकता है.
पहला तो यूक्रेन है, जहां संयुक्त राष्ट्र के अनुसार 14,000 नागरिक मारे जा चुके हैं.
दूसरा है ग़ज़ा, जहां इसराइल के प्रधानमंत्री बिन्यामिन नेतन्याहू ने 7 अक्तूबर 2023 के हमले का ‘भारी प्रतिशोध’ लेने का ऐलान किया था. हमास ने इसराइल के अंदर हमला कर करीब 1,200 लोगों को मार दिया था और 251 को बंधक बना लिया था.
ग़ज़ा के हमास-नियंत्रित स्वास्थ्य मंत्रालय के अनुसार, तब से जवाबी इसराइली सैन्य कार्रवाई में 70,000 से ज़्यादा फ़लस्तीनी मारे गए हैं, जिनमें 30,000 से अधिक महिलाएं और बच्चे शामिल हैं. संयुक्त राष्ट्र इन आंकड़ों को विश्वसनीय मानता है.
इसी बीच, सूडान में दो सैन्य गुटों के बीच भीषण गृहयुद्ध चल रहा है. पिछले कुछ सालों में वहां डेढ़ लाख से ज़्यादा लोग मारे गए हैं और लगभग 1 करोड़ 20 लाख लोग बेघर हो चुके हैं.
शायद अगर 2025 में यह अकेला युद्ध होता, तो बाहरी दुनिया इसे रोकने के लिए ज़्यादा कोशिश करती, लेकिन ऐसा था नहीं.
अमेरिका के राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप का विमान जब उन्हें इसराइल ले जा रहा था, तब उन्होंने कहा था, “युद्धों को ख़त्म करने में मुझे महारत हासिल है.”
उससे पहले उन्होंने ग़ज़ा में चल रही लड़ाई में एक युद्धविराम करवाया था.
यह सच है कि अब ग़ज़ा में पहले से कम लोग मर रहे हैं. लेकिन युद्धविराम के बावजूद, ऐसा नहीं लगता कि ग़ज़ा में युद्ध का मसला सुलझ गया है.
मध्य पूर्व की भयावह तकलीफ़ को देखते हुए यह कहना अजीब लग सकता है कि यूक्रेन का युद्ध इससे बिल्कुल अलग स्तर पर है. लेकिन सच यही है.
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शीत युद्ध को छोड़ दें, तो जिन संघर्षों को मैंने कई सालों के दौरान कवर किया है, वे ज़्यादातर छोटे पैमाने के रहे हैं: ख़तरनाक और डरावने तो ज़रूर थे लेकिन इतने गंभीर नहीं कि पूरी दुनिया की शांति को खतरे में डाल दें.
कभी-कभी ऐसा लगता था कि वियतनाम, पहला खाड़ी युद्ध और कोसोवो का युद्ध – जैसी कुछ जंग और भी भयानक रूप ले सकती हैं, लेकिन ऐसा हुआ नहीं.
महाशक्तियां हमेशा इस डर से घबराई रहती थीं कि कहीं कोई स्थानीय, पारंपरिक युद्ध परमाणु युद्ध में न बदल जाए.
ब्रिटिश जनरल सर माइक जैक्सन को 1999 में नेटो में उनके एक वरिष्ठ अधिकारी ने कोसोवो में ब्रिटिश और फ्रांसीसी सेनाओं को प्रिस्टिना के हवाई अड्डे पर कब्ज़ा करने का आदेश दिया था, जबकि वहां रूसी सैनिक पहले ही पहुंच चुके थे. तब उन्होंने कथित रूप से रेडियो पर चिल्लाकर कहा था, “मैं तुम्हारे लिए तीसरा विश्व युद्ध शुरू नहीं करने वाला.”
राष्ट्रपति ट्रंप की यूरोप में साफ़ उदासीनता को देखते हुए, आने वाले साल 2026 में, रूस कहीं अधिक प्रभुत्व जमाने के लिए तैयार और इच्छुक लगता है.
इस महीने की शुरुआत में, पुतिन ने कहा कि रूस यूरोप से युद्ध करने की योजना नहीं बना रहा है, लेकिन अगर यूरोपीय चाहते हैं तो वह ‘अभी’ तैयार है.
बाद में प्रसारित एक टीवी कार्यक्रम में उन्होंने कहा: “कोई कार्रवाई नहीं होगी अगर आप हमें सम्मान देंगे, अगर आप हमारे हितों का ख़्याल रखेंगे, जैसे हम हमेशा आपके हितों का ख़्याल रखने की कोशिश करते रहे हैं.”
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लेकिन हकीकत यह है कि एक बड़ी विश्व शक्ति रूस पहले ही एक स्वतंत्र यूरोपीय देश पर हमला कर चुका है, जिसकी वजह से भारी संख्या में नागरिक और सैनिक मारे गए हैं.
यूक्रेन का आरोप है कि रूस ने कम से कम 20,000 बच्चों का अपहरण कर लिया है. अंतरराष्ट्रीय अपराध न्यायालय (आईसीसी) ने इस मामले में रूसी राष्ट्रपति व्लादिमिर पुतिन के ख़िलाफ़ गिरफ़्तारी वारंट जारी किया है. लेकिन रूस हमेशा इससे इनकार करता रहा है.
रूस कहता है कि उसने नेटो के बढ़ते दबाव से बचने के लिए यह हमला किया, लेकिन राष्ट्रपति पुतिन ने एक मकसद और भी जताया है: रूस के क्षेत्रीय प्रभाव क्षेत्र को फिर से स्थापित करने की इच्छा.
अमेरिका की असहमति
वह अच्छी तरह जानते हैं कि 2025 में कुछ ऐसा हुआ है जिसे ज़्यादातर पश्चिमी देश असंभव मानते थे: यह संभावना कि कोई अमेरिकी राष्ट्रपति उस रणनीतिक व्यवस्था से मुंह मोड़ लेगा, जो द्वितीय विश्व युद्ध के बाद से लागू रही है.
अब अमेरिका न केवल इस बात को लेकर अनिश्चित है कि वह यूरोप की रक्षा करना चाहता है या नहीं, बल्कि उसे वह दिशा भी पसंद नहीं है जिस ओर यूरोप बढ़ रहा है.
ट्रंप प्रशासन की नई राष्ट्रीय सुरक्षा रणनीति रिपोर्ट में दावा किया गया है कि यूरोप में “सभ्यता के मिट जाने की पक्की संभावना” नज़र आ रही है.
क्रेमलिन ने इस रिपोर्ट का स्वागत किया और कहा कि यह रूस की अपनी दृष्टि के अनुरूप है. और आप शर्त लगा लो कि यह है.
संयुक्त राष्ट्र के विशेष मानवाधिकार प्रतिवेदक के अनुसार रूस के भीतर, पुतिन ने अपने ख़िलाफ़ और यूक्रेन युद्ध के ख़िलाफ़ ज़्यादातर आंतरिक विरोध को दबा दिया है.
हालांकि उनकी अपनी भी कई दिक्कतें हैं: हाल ही में महंगाई थोड़ी कम होने के बाद फिर से बढ़ने की संभावना है, तेल राजस्व में गिरावट हुई है, और युद्ध का खर्च उठाने के लिए सरकार को वैट बढ़ाना पड़ा है.
यूरोपीय संघ की अर्थव्यवस्थाएं रूस से 10 गुना बड़ी हैं, और अगर ब्रिटेन को भी जोड़ दें तो उससे भी ज़्यादा बड़ी.
यूरोप की कुल आबादी 45 करोड़ है, जो रूस की 14.5 करोड़ आबादी से तीन गुना से भी ज़्यादा है.
फिर भी पश्चिमी यूरोप अपने आरामदायक जीवन को गंवाने से डरता रहा है और हाल तक अपनी रक्षा पर ख़र्च करने से हिचकिचाता रहा है, उसकी कोशिश रही है कि अमेरिका को उसकी सुरक्षा के लिए राज़ी किया जा सके.
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अमेरिका भी अब अलग है: कम प्रभावशाली, अंदर की ओर ज़्यादा ध्यान देने वाला, और उस अमेरिका से बिल्कुल अलग जिसे मैंने अपने करियर में रिपोर्ट किया है.
अब, बिलकुल 1920 और 30 के दशक की तरह, वह अपने राष्ट्रीय हितों पर ध्यान केंद्रित करना चाहता है.
भले ही राष्ट्रपति ट्रंप अगले साल के मध्यावधि चुनावों में अपनी राजनीतिक ताक़त का बड़ा हिस्सा गंवा दें लेकिन उनका किया मिटाना आसान नहीं होगा.
उन्होंने अमेरिका को अलगाववाद की ओर इतना धकेल दिया है कि 2028 में अगर कोई नेटो-समर्थक अमेरिकी राष्ट्रपति आए भी, तो उसके लिए यूरोप की मदद करना मुश्किल हो सकता है.
और आप यह मत सोचिए कि व्लादिमिर पुतिन ने यह नोटिस नहीं किया है.
तनाव बढ़ने का ख़तरा
आने वाला साल, 2026, बेहद अहम दिख रहा है.
ज़ेलेंस्की शायद शांति समझौते पर सहमत होने के लिए मजबूर हो जाएं, जिसमें उन्हें यूक्रेन के बड़े हिस्से को खोना पड़ सकता है.
लेकिन क्या इतने मज़बूत भरोसेमंद आश्वासन मिल पाएंगे कि राष्ट्रपति पुतिन कुछ साल बाद फिर से और ज़्यादा लेने वापस न आ जाएं?
यूक्रेन और उसके यूरोपीय समर्थकों के लिए, जो पहले से ही ऐसा महसूस कर रहे हैं कि वह रूस के साथ जंग लड़ रहे हैं, यह एक बड़ा सवाल है.
यूरोप को यूक्रेन को संभालने की कहीं बड़ी ज़िम्मेदारी उठानी होगी, लेकिन अगर अमेरिका ने अपनी कभी-कभार दी जाने वाली धमकियों के अनुरूप यूक्रेन से मुंह मोड़ लिया, तो यह बोझ बहुत भारी हो जाएगा.
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लेकिन क्या यह युद्ध परमाणु टकराव में बदल सकता है?
हम जानते हैं कि राष्ट्रपति पुतिन जोखिम उठाने वाले नेता हैं; कोई और सतर्क नेता फरवरी 2022 में यूक्रेन पर हमला करने से बचता.
उनके सहयोगी डरावनी धमकियां देते हैं कि रूस के नए हथियारों से ब्रिटेन और अन्य यूरोपीय देशों को नक्शे से मिटा देंगे, लेकिन पुतिन खुद आमतौर पर कहीं ज़्यादा संयमित रहते हैं.
जब तक अमेरिका नेटो का सक्रिय सदस्य है, तब तक यह ख़तरा बना हुआ है कि वह अपने विनाशकारी परमाणु हमले से जवाब दे सकता है. फिलहाल की स्थिति यह है.
चीन की वैश्विक भूमिका
जहां तक चीन की बात है, राष्ट्रपति शी जिनपिंग ने पिछले कुछ समय में स्वशासित द्वीप ताइवान को कुछ सीधी धमकियां दी हैं.
लेकिन दो साल पहले, सीआईए के तत्कालीन निदेशक विलियम बर्न्स ने कहा था कि शी जिनपिंग ने पीपुल्स लिबरेशन आर्मी को 2027 तक ताइवान पर हमला करने के लिए तैयार रहने का आदेश दिया है.
अगर चीन ताइवान पर दावा करने के लिए कोई निर्णायक कदम नहीं उठाता, तो शी जिनपिंग को यह कमज़ोर दिखने जैसा लग सकता है. और वह ऐसा नहीं चाहेंगे.
आप सोच सकते हैं कि आज चीन इतना मज़बूत और संपन्न है कि उसे घरेलू जनमत की परवाह नहीं होगी. लेकिन ऐसा नहीं है. 1989 में देंग शियाओपिंग के ख़िलाफ़ हुए विद्रोह के बाद से – जो तियानमेन नरसंहार में ख़त्म हुआ – चीनी नेताओं ने देश की प्रतिक्रिया को बेहद सतर्कता से देखना शुरू कर दिया.
मैंने खुद तियानमेन की घटनाओं को होते देखा और रिपोर्टिंग की, कभी-कभी चौक में रहकर भी.
4 जून 1989 की कहानी उतनी सीधी नहीं थी जितनी हमने उस समय समझी थी: हथियारबंद सैनिकों ने निहत्थे छात्रों पर गोली चलाई.
यह तो ज़रूर हुआ था, लेकिन बीजिंग और कई अन्य चीनी शहरों में एक और लड़ाई भी चल रही थी. हज़ारों आम कामकाज़ी लोग सड़कों पर उतर आए थे. उन्होंने तय कर लिया था कि छात्रों पर हमले को वे चीनी कम्युनिस्ट पार्टी के नियंत्रण को पूरी तरह उखाड़ फेंकने का मौका बनाएंगे.
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दो दिन बाद जब मैं सड़कों से गुज़रा, तो मैंने कम से कम पांच पुलिस थाने और तीन स्थानीय सुरक्षा पुलिस मुख्यालय जले हुए देखे.
एक उपनगर में गुस्साई भीड़ ने एक पुलिसकर्मी को आग लगा दी थी और उसका जला हुआ शरीर दीवार के सहारे खड़ा कर दिया था. उसके सिर पर वर्दी की टोपी तिरछे अंदाज़ में रखी गई थी और उसके जले हुए होंठों के बीच एक सिगरेट ठूंस दी गई थी.
असल में सेना सिर्फ़ छात्रों के लंबे समय से चल रहे प्रदर्शन को दबा नहीं रही थी, बल्कि आम चीनी लोगों के एक जनविद्रोह को कुचल रही थी.
चीन का राजनीतिक नेतृत्व अब भी 36 साल पहले हुई घटनाओं की यादों को दबा नहीं पाया है.
वह लगातार विरोध के संकेतों पर नज़र रखता है – चाहे वह फ़ालुन गोंग जैसे संगठित समूह हों, स्वतंत्र ईसाई चर्च हो, हांगकांग का लोकतंत्र आंदोलन हो, या फिर सिर्फ़ स्थानीय भ्रष्टाचार के ख़िलाफ़ प्रदर्शन करने वाले लोग. इन सबको बेहद कठोरता से दबा दिया जाता है.
1989 से अब तक मैंने काफ़ी समय चीन में रिपोर्टिंग की है और उसकी आर्थिक और राजनीतिक ताक़त को बढ़ते हुए देखा है.
मैं एक शीर्ष राजनेता को भी जानने लगा था जो शी जिनपिंग के प्रतिद्वंद्वी और प्रतियोगी थे.
उनका नाम बो शीलाई था. वह अंग्रेज़ी संस्कृति के प्रशंसक थे और आश्चचर्यजनक ढंग से चीन की राजनीति पर खुलकर बातें करते थे.
उन्होंने एक बार मुझसे कहा था: “आप कभी नहीं समझ पाएंगे कि कोई सरकार कितना असुरक्षित महसूस करती है जब उसे पता होता है कि उसे जनता ने चुना ही नहीं है.”
जहां तक बो शीलाई की बात है, उन्हें 2013 में रिश्वतखोरी, गबन और सत्ता के दुरुपयोग का दोषी पाए जाने के बाद उम्रकैद की सज़ा दी गई.
अहम दिख रहा है 2026 का साल

कुल मिलाकर, 2026 एक अहम साल दिख रहा है. चीन की ताक़त और बढ़ेगी, और ताइवान पर कब्ज़ा करने की उसकी रणनीति – जो शी जिनपिंग की बड़ी महत्वाकांक्षा है – और स्पष्ट होगी. हो सकता है कि यूक्रेन का युद्ध सुलझ जाए, लेकिन शर्तें ऐसी हों जो राष्ट्रपति पुतिन के अनुकूल हों.
वह जब चाहें तब और यूक्रेनी क्षेत्र लेने के लिए वापस आ सकते हैं. और भले ही नवंबर के मध्यावधि चुनावों में राष्ट्रपति ट्रंप की राजनीतिक ताक़त कम हो जाए, वह अमेरिका को यूरोप से और भी दूर कर देंगे.
यूरोप के दृष्टिकोण से, भविष्य इससे ज़्यादा निराशाजनक शायद ही हो सकता है.
अगर आप सोचते हैं कि तीसरा विश्व युद्ध परमाणु हथियारों से सीधी लड़ाई होगी, तो फिर से सोचिए. इसकी संभावना कहीं ज़्यादा है कि यह कूटनीतिक और सैन्य चालों का एक सिलसिला होगा, जिसमें तानाशाही और फलेगी-फूलेगी. यह पश्चिमी गठबंधन को तोड़ने तक का ख़तरा पैदा कर सकता है.
और यह प्रक्रिया शुरू हो चुकी है.
ऊपर वाली तस्वीर का क्रेडिटः एएफ़पी / गेटी इमेजिस
बीबीसी के लिए कलेक्टिव न्यूज़रूम की ओर से प्रकाशित.