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योगी आदित्यनाथ 25 मार्च को उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री के रूप में आठ साल पूरे करने जा रहे हैं. 52 साल के योगी आदित्यनाथ 1998 में महज 26 साल की उम्र में लोकसभा सांसद बन गए थे.
वहीं नरेंद्र मोदी 52 साल की उम्र में पहली बार चुनावी राजनीति में आए थे. लेकिन मोदी की चुनावी राजनीति की शुरुआत मुख्यमंत्री बनने से हुई और योगी की लोकसभा सांसद बनने से.
योगी के समर्थक उन्हें मोदी के बाद प्रधानमंत्री के रूप में देखना चाहते हैं लेकिन एक खेमा ऐसा भी है जो कहता है कि मोदी और अमित शाह योगी को पंसद नहीं करते हैं.
ऐसा कहने वाले विपक्षी पार्टियों के नेता तो हैं ही साथ में राजनीतिक विश्लेषणों में भी ये बात उठती रहती है.
पिछले साल लोकसभा चुनाव से पहले दिल्ली के तत्कालीन मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल कथित भ्रष्टाचार के मामले में ज़मानत पर जेल से बाहर आए थे.
जेल से बाहर आने के बाद अपनी पहली प्रेस कॉन्फ़्रेंस में अरविंद केजरीवाल ने कहा था, ”बीजेपी अगर फिर से सत्ता में आती है तो उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ को किनारे कर दिया जाएगा और अमित शाह प्रधानमंत्री बनेंगे. पीएम मोदी की उम्र 75 साल हो गई है, इसलिए वो रिटायर हो जाएंगे.”
हालांकि ऐसा कुछ भी नहीं हुआ और मोदी ही तीसरी बार प्रधानमंत्री बने.
ऐसी बातें समाजवादी पार्टी के प्रमुख अखिलेश यादव भी करते रहते हैं. यहाँ तक कि पीएम मोदी और अमित शाह के साथ योगी आदित्यनाथ जहाँ भी होते हैं, वहाँ मीडिया के कैमरे की नज़र उन भाव भंगिमाओं पर होती हैं, जिनसे पता चल सके कि योगी के प्रति उनकी कितनी गर्मजोशी है या उपेक्षा का भाव है.
कई बार तो डॉक्टर्ड वीडियो भी सोशल मीडिया पर वायरल किया जाता है, जिससे मोदी बनाम योगी की बात को हवा मिल सके. ऐसा ही एक वीडियो पिछले साल जुलाई में वायरल किया गया था, जिसमें बताने की कोशिश की गई थी कि योगी ने पीएम मोदी को अभिवादन नहीं किया जबकि ऐसा नहीं था.
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संंबंधों पर संदेह क्यों
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14 जुलाई 2024 को लखनऊ में बीजेपी की बैठक चल रही थी. बीजेपी के राष्ट्रीय अध्यक्ष जेपी नड्डा की मौजूदगी में यूपी सरकार के दो शीर्ष नेताओं ने यूपी के अंदर बीजेपी के ख़राब प्रदर्शन की अलग-अलग वजहें गिनवाई थीं.
योगी आदित्यनाथ ने अति आत्मविश्वास को यूपी में ख़राब प्रदर्शन का कारण बताया था. दूसरी तरफ़ उपमुख्यमंत्री केशव प्रसाद मौर्य ने संगठन के सरकार से बड़े होने की बात कही थी.
मुख्यमंत्री और उपमुख्यमंत्री दोनों ने यूपी में ख़राब प्रदर्शन के अलग-अलग कारण बताए. लेकिन केशव प्रसाद मौर्य के बयान को योगी सरकार के ख़िलाफ़ टिप्पणी के रूप में देखा गया था.
केशव प्रसाद मौर्य कहना चाह रहे थे कि यूपी की योगी सरकार पार्टी से बड़ी हो गई है. दूसरी तरफ़ योगी के बयान को इस रूप में लिया गया कि केंद्रीय नेतृत्व अतिआत्मविश्वास में था.
मौर्य और योगी की अलग-अलग टिप्पणी को भी योगी बनाम मोदी और अमित शाह के रूप में देखा गया था. केशव प्रसाद मौर्य को अमित शाह का विश्वासपात्र माना जाता है.
पिछले साल हुए लोकसभा चुनाव में बीजेपी को स्पष्ट बहुमत नहीं मिला था और इसमें उत्तर प्रदेश में बीजेपी को सबसे बड़ा झटका लगा था.
बीजेपी को 2024 के लोकसभा चुनाव में यूपी में 80 में से केवल 33 सीटों पर जीत मिली थी जबकि 2019 के लोकसभा चुनाव में कुल 62 सीटों पर जीत मिली थी. यानी 2019 के लोकसभा चुनाव की तुलना में बीजेपी को यूपी में 29 सीटें कम मिलीं और 2014 की तुलना में 38 सीटें कम मिलीं. 2014 के लोकसभा चुनाव में बीजेपी को यूपी में 80 में से 71 सीटों पर जीत मिली थी.
जब बीजेपी की कमान अटल-आडवाणी के पास थी तो योगी बीजेपी नेतृत्व को खुली चुनौती देते रहे हैं. योगी को इसी अतीत के आईने में कई बार मोदी-शाह के नेतृत्व वाली बीजेपी में देखा जाता है. मोदी और शाह ने कई बार ऐसे फ़ैसले लिए, जिसे योगी को असहज करने वाला माना गया.
अटल-आडवाणी की बीजेपी में योगी
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जैसे 2016 में बीजेपी ने शिव प्रताप शुक्ला को राज्यसभा सांसद बनाया था. एक तरीक़े से सक्रिय राजनीति में शिव प्रताप शुक्ला की 14 साल बाद वापसी हुई थी. शुक्ला को राज्यसभा सांसद बनाने के एक साल बाद मोदी सरकार के पहले कार्यकाल में वित्त राज्य मंत्री बना दिया गया. मोदी और शाह के इस फ़ैसले को योगी के लिए संदेश के रूप में देखा गया था.
शिव प्रताप शुक्ला गोरखपुर शहर से 1989, 1991, 1993 और 1996 में लगातार चार बार विधायक चुने गए थे. 2002 में योगी आदित्यनाथ ने बीजेपी पर शिव प्रताप शुक्ला को टिकट नहीं देने का दबाव डाला था लेकिन पार्टी नहीं मानी थी.
इसके जवाब में योगी आदित्यनाथ ने अपने सहयोगी राधा मोहन दास अग्रवाल को शुक्ला के ख़िलाफ़ निर्दलीय उतार दिया था. इसका नतीजा यह हुआ कि शु्क्ला चुनाव हार गए. इसके बाद इस इलाक़े में बीजेपी पूरी तरह से योगी के नियंत्रण में आ गई और शिव प्रताप शुक्ला को पूरी तरह से किनारे होना पड़ा था.
कहा जाता है कि 2002 के चुनाव में शिव प्रताप शुक्ला और योगी के बीच की प्रतिद्वंद्विता केवल दो व्यक्तियों के बीच की नहीं थी बल्कि दो जातियों की थी- ब्राह्मण और ठाकुर. गैंगस्टर श्री प्रकाश शुक्ला के मारे जाने और शिव प्रताप शुक्ला के निष्प्रभावी होने के बाद इस इलाक़े में ब्राह्मणों का दबदबा कमज़ोर पड़ने के रूप में भी देखा जाता है. वहीं योगी के उभार को इस इलाक़े में ठाकुरों के राजनीतिक दबदबे के उभार के रूप में देखा जाता है.
हालांकि केंद्र में मंत्री बनने के बाद भी शिव प्रताप शुक्ला की राजनीति फिर से ज़िंदा नहीं हो पाई. अब वह हिमाचल प्रदेश के राज्यपाल हैं और राज्यपाल के पद को राजनीति में रिटायरमेंट का आख़िरी पड़ाव माना जाता है.
क्या योगी के संबंध दिल्ली के नेतृत्व से असहज हैं?
इस सवाल के जवाब में योगी आदित्यनाथ ने हँसते हुए 10 मार्च को इंडिया टुडे कॉन्क्लेव में कहा था, ”भाई मैं तो एक योगी हूँ. मेरा इक्वेशन किसी से ख़राब क्यों होगा? प्रधानमंत्री जी हमारे नेता हैं और राष्ट्रीय नेतृत्व का सम्मान करना मेरा धर्म है. हमलोग यह सम्मान पूरी प्रतिबद्धता के साथ करते हैं. जब मैंने संन्यास लिया था, तब भी लोगों ने ऐसी ही बात कही थी. अगर हम इन अफ़वाहों में पड़ेंगे तो कुछ भी नहीं कर पाएंगे.”
योगी राष्ट्रीय नेतृत्व से संबंध पर क्या कहते हैं?
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योगी ने कहा, ”हमें जो ज़िम्मेदारी दी गई है, उसका पूरी ईमानदारी के साथ हम पालन करते हैं. बोलने वालों का मैं मुंह बंद नहीं कर सकता हूँ. राजनीति में बहुत सारी चीज़ें ऐसी होती हैं, जिनमें कुछ मजबूरियां भी होती हैं. टिकट देने में एक सिस्टम काम करता है. क्या मेरी कार्यपद्धति से लगता है कि मैं बंधकर काम करता हूँ?”
क्या योगी का मोदी और अमित शाह से मतभेद है? इस सवाल के जवाब में लखनऊ की वरिष्ठ पत्रकार सुनीता एरोन कहती हैं, ”ये सवाल हमेशा उठता है लेकिन इसका जवाब इतना सरल नहीं है. अमित शाह और योगी का लक्ष्य किसी पोजिशन के लिए हो सकता है. अगर लक्ष्य एक ही पोजिशन है तो महत्वाकांक्षाएं टकरा सकती हैं. योगी जी की लोकप्रियता काफ़ी बढ़ी है. वह हिन्दुत्व की राजनीति को लेकर अडिग हैं लेकिन मोदी जी का भी करिश्मा ख़त्म नहीं हुआ है. मुझे लगता है कि अब भी योगी को मोदी की ज़रूरत है. हम कह सकते हैं कि दोनों को एक दूसरे की ज़रूरत हैं.”
क्या मोदी और योगी के समर्थक अलग-अलग हैं? इस सवाल के जवाब में सुनीता एरोन कहती हैं, ”मुझे लगता है कि मोदी और योगी दोनों के समर्थक एक ही हैं. आप ये नहीं कह नहीं सकते हैं कि दोनों के समर्थक अलग-अलग हैं. मोदी जी का एक डेवलपमेंट मॉडल है लेकिन योगी जी की यह छवि मज़बूत नहीं हो पाई है. मोदी जी से योगी की भाषा में ज़्यादा आक्रामकता है. इस आधार पर वोट बैंक में थोड़ा फ़र्क़ नज़र आता है.”
क्या योगी यूपी में स्वतंत्र होकर काम कर रहे हैं?
सुनीता एरोन कहती हैं, ”बीजेपी की कार्यप्रणाली में कंट्रोल काफ़ी है. ऐसे में ये कहना कि स्वतंत्र होकर काम कर रहे हैं, 100 फ़ीसदी सही नहीं होगा. बीजेपी में कई चीज़ों की तगड़ी निगरानी होती है. मोदी-शाह की बीजेपी में ऐसी निगरानी बढ़ी है. लेकिन मुझे लगता है कि पिछले कुछ महीनों से योगी ज़्यादा दृढ़ दिख रहे हैं. आप बाक़ी राज्यों में बीजेपी के मुख्यमंत्रियों को देखिए और योगी को देखिए तो अंतर साफ़ दिखता है. योगी को एक लोकप्रिय चेहरा के रूप में प्रमोट किया जा रहा है और ऐसा लगता है कि इनकी हैसियत बाक़ियों से ज़्यादा है.”
अटल-आडवाणी की बीजेपी में योगी क्या ज़्यादा आक्रामक थे? सुनीता एरोन कहती हैं, ”तब योगी की हिन्दू युवा वाहिनी थी, भले वो बीजेपी के सांसद थे. तब योगी एक इलाक़े के नेता थे न कि यूपी के मुख्यमंत्री. उनका कंट्रोल गोरखपुर के इलाक़े में था और टिकट बँटवारे में उन्हीं की चलती थी. उस वक़्त योगी स्वतंत्र होकर राजनीति करते थे लेकिन अब एक सिस्टम के अंदर हैं. इसके बावजूद योगी जितना दृढ़ दिखते हैं, उतना कोई नेता नहीं दिख रहा है. मुझे लगता है कि बीजेपी और आरएसएस ने ही योगी को इतना बड़ा नेता बनाया है.”
क्या योगी को चुनाव जीतने के लिए अब मोदी की ज़रूरत नहीं है? यह सवाल पीएम मोदी पर एक किताब लिख चुके लेखक और पत्रकार नीलांजन मुखोपाध्याय से मई 2023 में पूछा था तो उनका जवाब था, ”2017 के उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनाव में जीत का श्रेय मोदी को जाता है. 2022 के यूपी विधानसभा चुनाव में जीत का श्रेय मोदी और योगी दोनों को जाता है. अब योगी ख़ुद भी बहुत लोकप्रिय नेता बन गए हैं. उत्तर प्रदेश में 2027 में अगला विधानसभा चुनाव होगा. 2027 को लेकर अभी से कुछ भी कहना जल्दबाज़ी होगी. लेकिन इतना ज़रूर कहा जा सकता है कि चुनाव जीतने के लिए योगी की मोदी पर निर्भरता कम हुई है.”
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