लेख में कारगिल युद्ध से लेकर ऑपरेशन सिंदूर तक के हालातों और चुनौतियों पर जनरल वीपी मलिक के विचारों को प्रस्तुत किया गया है। उन्होंने राष्ट्रीय सुरक्षा के प्रति जागरूकता बढ़ाने और सेना को आत्मनिर्भर बनाने पर जोर दिया। जनरल मलिक ने कहा कि ऑपरेशन सिंदूर में भारतीय सेना ने पाकिस्तान को करारा जवाब दिया।
रुमनी घोष, नई दिल्ली। ऑपरेशन सिंदूर के तहत पाकिस्तानी सेना को सबक सिखाकर भारतीय सेना ने अपने काम को बखूबी अंजाम दिया। दुनियाभर में कई देशों की यात्रा कर सर्वदलीय टीमों के सदस्यों ने पार्टी लाइन से उठकर अंतरराष्ट्रीय मंच पर भारत के पक्ष को मजबूती से रखा और अपनी-अपनी जिम्मेदारी पूरी की। सरकार ने भी 21 जुलाई से 12 अगस्त के बीच मानसून सत्र बुलाने और संसद में आपरेशन सिंदूर पर नियमानुसार चर्चा कराने की घोषणा कर लोकतांत्रिक भावना जाहिर की।
अब बारी है आम भारतीय नागरिकों की। भारतीय सेना के चीफ आफ स्टाफ कमेटी के 39वें चेयरमैन व थलसेना के 19वें अध्यक्ष रहे जनरल वीपी मलिक खासतौर पर इसका उल्लेख करते हैं। उनका कहना है कि हम राष्ट्रीय सुरक्षा के बारे में ज्यादा बातें नहीं करते हैं। जरूरी नहीं है कि देश सेवा करने के लिए हर बच्चा सेना में भर्ती हो, लेकिन राष्ट्रीय सुरक्षा को लेकर उन्हें जागरूक करना बेहद जरूरी है। इसके लिए एनसीसी जैसी संस्थाओं को विस्तार देने की जरूरत है।
उन्होंने सेना में मैन पावर पर होने वाले खर्च को कम करने व रक्षा बजट का सधे हुए तरीके से इस्तेमाल कर नई तकनीक व उन्नत हथियारों की खरीदी पर भी जोर दिया है। जनरल मलिक के नेतृत्व में ही भारत ने कारगिल युद्ध लड़ा था और विजय प्राप्त की थी। उन्होंने 1962 में लद्दाख सेक्टर में भारत-चीन सीमा संघर्ष में हिस्सा लिया था।
नगालैंड में आतंकवाद विरोधी अभियान, श्रीलंका में भारतीय शांति सेना व मालदीव में आपरेशन कैक्टस में सक्रिय भूमिका निभाई। उन्होंने कारगिल युद्ध पर दो पुस्तकें भी लिखी हैं। कारगिल युद्ध से लेकर आपरेशन सिंदूर के बीच परिस्थितियां कितनी बदलीं? भारतीय सेना के लिए भविष्य की चुनौतियां व जरूरतों पर दैनिक जागरण की समाचार संपादक रुमनी घोष ने उनसे आनलाइन चर्चा की। प्रस्तुत हैं बातचीत के प्रमुख अंशः
‘कारगिल से ऑपरेशन सिंदूर तक’ लेख में आपने अमेरिकी लेखक मार्क ट्वेन को कोट किया है ‘History Doesn’t Repeat, but it has a rhyme’ यानी इतिहास खुद को नहीं दोहराता , लेकिन उनके बीच समानता होती है)? दोनों में आपने क्या समानता देखी?
इस कोट के जरिये मैंने यह बताने की कोशिश की है कि जो हमारे साथ कारगिल युद्ध के दौरान हुआ था, उसमें से कई चीजें ऑपरेशन सिंदूर में दोबारा दोहराई गई हैं। खास तौर पर दो परिस्थितियों का उल्लेख करना चाहूंगा। पहला, न्यूक्लियर थ्रेशहोल्ड (परमाणु सीमा) और एस्केलेशन कंट्रोल (सीमित दायरे में कार्रवाई )।
ऑपरेशन विजय के दौरान भी हमें बहुत ध्यान रखना पड़ा था। जब ऑपरेशन सिंदूर हुआ तो निश्चित रूप से राजनीतिक नेतृत्व व सेना को इन दोनों परिस्थितियों का सामना करना पड़ा होगा।
तो क्या आपरेशन विजय के दौरान भी पाकिस्तान ने परमाणु हथियारों के उपयोग की धमकी दी थी?
उस समय भी पाकिस्तान की ओर से धमकियां आती रहती थीं कि यदि भारत ने युद्ध छेड़ा तो पाकिस्तान परमाणु हथियारों का उपयोग करेगा। आपको ध्यान होगा कि उस समय पाकिस्तानी सेना एलओसी का उल्लंघन कर हमारी सीमा के भीतर घुस आई थी और कुछ इलाकों में कब्जा कर लिया था।
शुरुआती दौर में पाकिस्तान प्रचार करती रही कि कब्जा करने वाले उनके सेना के जवान नहीं हैं बल्कि आतंकी हैं। यदि भारत ने लड़ाई छेड़ी तो पाकिस्तान इसका जवाब परमाणु हथियारों से देगा। उस समय हमने अंतरराष्ट्रीय स्तर पर यह साबित किया था कि भारत की सीमा के भीतर घुसने वाले पाकिस्तानी सेना के जवान ही हैं।अंतरराष्ट्रीय एजेंसियों को भी यह मानना पड़ा और फिर हमने जवाबी कार्रवाई की थी। इस बार भी पाकिस्तान ने परमाणु हथियार के उपयोग की नीति अपनाई।
परमाणु हथियारों के नाम पर अंतरराष्ट्रीय समुदाय दबाव बनाने लगाता है। कारगिल युद्ध के दौरान सेना इससे कैसे निपटी थी? परमाणु हथियारों का उपयोग वर्ष 1945 के बाद नहीं हुआ है, लेकिन अंतरराष्ट्रीय समुदाय इसको लेकर सक्रिय हो जाती है। आपरेशन विजय के दौरान चार जुलाई 1999 को पाकिस्तान के प्रधानमंत्री नवाज शरीफ अमेरिका पहुंचे थे। उस समय अमेरिका के पूर्व राष्ट्रपति बिल क्लिंटन ने नवाज शरीफ से पूछा था कि क्या आपको पता है कि आपकी फौज परमाणु हथियार के उपयोग का मन बनाकर बैठी है? जब नवाज शरीफ ने जानकारी से इनकार किया तो उन्होंने कहा कि आप कैसे सरकार चला रहे हैं?
फिर राष्ट्रपति क्लिंटन ने नवाज शरीफ से अनुबंध पर हस्ताक्षर करवाया था कि पाकिस्तान एलओसी से पीछे हट जाएगा और सीजफायर करेगा। वह भारत के तत्कालीन प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी को भी बुलाते रहे, लेकिन उन्होंने यह कहते हुए जाने से मना कर दिया था कि जब तक पाकिस्तानी सेना भारत की सीमा से पीछे नहीं हटेगी, तब तक भारत हमला करता रहेगा।उस समय भी पाकिस्तानी सेना की ओर से बार-बार सीजफायर करने का संदेश आता रहा। आखिरकार 26 जुलाई को आपरेशन विजय (कारगिल युद्ध) समाप्त हुआ था।
आपने कहा था कि आपरेशन सिंदूर एक दिन और चलता तो बेहतर होता। क्यों ?
जी, बिल्कुल। यह मेरे निजी विचार हैं। मैं फौजी हूं। हमें हमेशा सिखाया-समझाया जाता है कि जब आप दुश्मन के ऊपर भारी पड़ते हैं और जीत सुनिश्चित हो रही है तो उस पर इतना प्रहार कर दो कि संदेश ठीक से पहुंचे। आपरेशन सिंदूर के दौरान यदि उन्हें थोड़ा और सबक सिखा देते, तो आज पाकिस्तान यह झूठा प्रचार करने की स्थिति में नहीं होता। साथ ही अमेरिका के राष्ट्रपति ट्रंप को भी झूठा क्रेडिट लेने का मौका नहीं मिलता।
हाल ही में इंटरनेशनल इंस्टीट्यूट आफ स्ट्रैटेजिक स्टडीज, सिंगापुर में विश्व के अलग-अलग देशों के सेनाध्यक्षों की बैठक हुई? किस तरह की तस्वीर सामने आ रही है? क्या चीन एक्सपोज हुआ?कारगिल के दौरान हमें राजनीतिक लक्ष्य दिया गया था कि पाकिस्तानी सेना को एलओसी के पार फेंक दो। हमने लक्ष्य को पूरा किया और उन्हें चोटियों से हटाकर बाहर फेंक दिया था। उसके बाद जब-जब मैं विदेश यात्रा पर गया तो मुझसे पूछते थे कि आपके जवान इतने तगड़े कैसे हैं? कैसे उन्होंने इतना कठिन काम किया?
ऑपरेशन सिंदूर में भी भारतीय सेना की कार्रवाई उतनी ही सटीक रही। जहां तक चीन को एक्सपोज करने की बात है, तो पाकिस्तान में 80 प्रतिशत हथियार चीन से आयातित हैं। यदि पाकिस्तान उनका उपयोग नहीं कर पाया या उनका सिस्टम फेल हो गया तो जाहिर तौर पर चीन के हथियार बेअसर साबित हुए।नई मिसाइल व हथियारों की मदद से हमने उनकी वायुसेना को इतनी चोट पहुंचाई कि वह उड़ने की स्थिति में नहीं रही। उन्हें सीजफायर मांगना पड़ा। इस वजह से चीन निश्चित रूप से एक्सपोज हुआ।
इनफार्मेशन वार के दौर में दुष्प्रचार का बड़ा खतरा। इसे कैसे नियंत्रित किया जा सकता है?
आजकल इनफार्मेशन वार (सूचना युद्ध) व परसेप्शन मैनेजमेंट (धारणा प्रबंधन) लड़ाई या युद्ध का हिस्सा बन गया है। किसी के दुष्प्रचार से सेना की कार्रवाई या लक्ष्य भेदने की क्षमता पर कोई असर नहीं पड़ता है, लेकिन हम सभी चाहते हैं कि हम जो कार्रवाई कर रहे हैं उसकी धारणा देश के भीतर और अंतरराष्ट्रीय मंच पर सही ढंग से और सही समय पर पहुंचे।ताकि सभी का मनोबल ऊंचा रहे। सर्वदलीय सदस्यों को विदेश दौरे पर भेजकर दुनिया को बताना इसका हिस्सा है। हालांकि मेरा आकलन है कि शुरू से हम इस तरह से अपनी सूचनाओं को रखते तो पाकिस्तान को दुष्प्रचार का मौका ही नहीं मिलता।हालांकि सच को छिपाया नहीं जा सकता है। आहिस्ता-आहिस्ता बाहर आ ही जाता है। जहां तक मीडिया की बात है तो भारतीय (इलेक्ट्रानिक) मीडिया को युद्ध के कवरेज को लेकर न सिर्फ विशेषज्ञता हासिल करनी होगी, बल्कि नई गाइडलाइन भी बनानी होगी। विदेश में काफी वरिष्ठ व सामरिक जानकार ही विशेषज्ञ के रूप में शामिल होते हैं। यहां ऐसा नहीं है।
आप आम लोगों को राष्ट्रीय सुरक्षा के प्रति जागरूक करने की बात करते हैं। क्यों?
हम लोग राष्ट्रीय सुरक्षा पर ज्यादा बात नहीं करते हैं। वर्ष 1986 में साउथ कोरिया गया था। वहां मैंने देखा कि साउथ और नार्थ कोरिया के बीच तीन-चार टनल बनाई थी, जिसके जरिये नार्थ कोरिया वाले साउथ कोरिया में अपनी सेना भेजते थे।वहां स्कूल के बच्चे अपने शिक्षक के साथ आए थे। उन्होंने बताया कि राष्ट्रीय सुरक्षा की कक्षाएं चल रही हैं। बच्चों को इसका अनुभव दिया जा रहा था। भारत में बच्चों में राष्ट्रीय सुरक्षा को लेकर और जागरूकता आना चाहिए।अहमदाबाद में एक आयोजन में गया तो मैंने पूछा कि कारगिल युद्ध के दौरान किन जवानों को परमवीर चक्र मिला? एक आर्मी अफसर की बेटी के अलावा कोई जवाब नहीं दे पाया। जब बात नहीं होगी तो कैसे पता चलेगा कि योगेंद्र यादव व विक्रम बत्रा जैसे जवान कैसे शहीद हुए।
जागरूकता के लिए क्या करना चाहिए?
मैं नहीं मानता हूं कि हर बच्चे को सेना में आने की जरूरत है। स्कूलों-कालेजों में राष्ट्रीय सुरक्षा को लेकर कक्षाएं शुरू होनी चाहिए। सरकार को एनसीसी को और ज्यादा विस्तार व लोकप्रिय बनाना चाहिए।इससे बच्चे अनुशासित भी होंगे और जागरूकता भी। अभी एनसीसी सिर्फ सरकारी स्कूल-कालेजों तक ही सीमित हो गया है। प्राइवेट स्कूलों में तो यह नजर ही नहीं आता है। ।आप सेना को आत्मनिर्भर बनाने की पैरोकारी करते रहे हैं। कारगिल व आपरेशन सिंदूर के बीच सेना कितनी आत्मनिर्भर हुई?कारगिल के दौरान हमारे 70-75 प्रतिशत हथियार बाहर से आते थे। आज आर्टिलरी, मिसाइल और हथियारों के रखरखाव के क्षेत्र में हम आत्मनिर्भर हो गए हैं, लेकिन बड़े हथियार हमको अभी भी बाहर से ही मंगवाने पड़ रहे हैं। आपरेशन सिंदूर में ब्रह्मोस व आकाश मिसाइल ने अच्छा प्रदर्शन किया। फिर भी रास्ता अभी बहुत लंबा है।सरकार को क्या करना चाहिए ?देखिए, सेना को आज-कल की नहीं, 15-20 साल आगे की तैयारी करनी पड़ती है। जैसा मैंने कारगिल युद्ध के बाद सीआइआइ सहित अन्य मंचों से कहा था कि सरकार, हथियार बनाने वाली भारतीय निजी कंपनियों पर भरोसा जताए। सरकारी व पब्लिक सेक्टर की कंपनियों पर समय पर हथियार उपलब्ध करवाने के लिए दबाव बढ़ाए।बचत के लिए 1997-98 में कारगिल युद्ध से पहले आपने एक लाख पोस्ट सरेंडर करने की बात कही थी। क्या रक्षा बजट कम है?अमेरिका और चीन से तो हम भारत के रक्षा बजट की तुलना नहीं कर सकते हैं, लेकिन इसे बढ़ाना चाहिए। हमारा रक्षा बजट जीडीपी का 1.8 से 1.9 प्रतिशत है, इसे बढ़ाकर 2.0 से 2.25 प्रतिशत तक ले जाना चाहिए। अग्निपथ योजनाओं के जरिये पेंशन पर होने वाले खर्च को थोड़ा कम किया जा सकता है।मैं भी अग्निपथ योजना की बहुत सी नीतियों से सहमत नहीं लेकिन, फौज का पहला काम ठीक से लड़ाई लड़ना और उसे जीतना है। उसके लिए हमें ‘मैक्सिमम बैंग फार द बक’ (पाई-पाई का सही निवेश) की थ्योरी पर ही चलना होगा।
युद्ध तकनीक तो बदल रही है। यूक्रेन का स्पाइडर वेब इसका ताजा उदाहरण हैं। पहले से की गई तैयारियां कितनी कारगर होंगी ?
स्पाइडर वेब के जरिये दुनिया के सामने तकनीकी युद्ध का नया तरीका सामने आया है। यह सस्ता, चालाकी से तैयार किया गया नवाचार और चौंकाने वाला हथियार है।1000-1200 डॉलर के छोटे ड्रोन समूह ने चार-पांच किलो का बारूद उठाया और रूस के एक-तिहाई बमवाहक हवाई जहाजों को बर्बाद कर दिया। यह काम यूक्रेन की सेना नहीं बल्कि सीक्रेट सर्विस ने किया।भौगोलिक स्थिति के मद्देनजर भारत को पारंपरिक हथियारों की तैयारी हमेशा रखनी होगी, लेकिन इस तरह के तकनीक युद्ध का सामना करने के लिए तैयार रहना होगा। साथ ही ऐसी सोच भी बनानी होगी।
क्या सिंक्रोनाइज्ड आर्मी की ओर इशारा है?
जी। पूरी फौज, यानी आर्मी, नेवी और एयरफोर्स को अपने प्रशिक्षण में बदलाव करना होगा। आर्मी फार्मेशन जैसे कोर, डिविजन को भी अपग्रेड करना होगा।
और जैविक युद्ध की संभावना?
ईराक युद्ध के बाद अंतरराष्ट्रीय स्तर समझौते हुए, जिसके तहत कोई भी देश इस तरह का हथियार नहीं बना सकता है। इसलिए संभावना नजर नहीं आती है।
सामरिक विशेषज्ञों का मानना है भारत-पाक संघर्ष हो रहा था, लेकिन अमेरिका-चीन का ‘ट्रायल’ था। इसके बाद अमेरिका ने गोल्डन डोम की घोषणा क्यों की?
हर बड़े देशों के पास अपनी सरकारी और निजी हथियार कंपनियां है। उनकी नजर हमेशा एक-दूसरे पर बनी रहती है। यह तो उनके लिए ट्रायल से भी कहीं ज्यादा बेहतर मौका था। जहां तक गोल्डन डोम की बात है, तो अमेरिका ने अपनी सुरक्षा के लिए पैसा दिया है।इसके लिए उन्हें ट्रिलियन डालर का खर्च करना पड़ेगा। अमेरिका अपने लिए हथियार बनाता है और दूसरे देशों को भी बेचता भी है। डोम बन जाएगा तो आदतन अमेरिका इसको दूसरे देशों को बेचना शुरू कर देगा।
ऑपरेशन सिंदूर का ‘सबक’ क्या है?
कारगिल युद्ध के बाद सरकार ने मुझसे पूछा था कि हम एक जांच कमेटी गठित करना चाहते हैं। मैंने कहा था कि मुझे कोई आपत्ति नहीं है। तब वरिष्ठ आइएएस अधिकारी के सुब्रह्मणयम (विदेश मंत्री एस जयशंकर के पिता) के अधीन एक कमेटी गठित हुई थी।उनकी रिपोर्ट सार्वजनिक भी की गई थी। ऑपरेशन सिंदूर को लेकर भी कमेटी (अंदरूनी या बाहरी) गठित होगी। हां, मुझे यह जरूर लगता है कि पहलगाम की घटना को लेकर जांच कमेटी बनानी चाहिए, जो पता लगाए कि कोई सुरक्षा चूक हुई थी या नहीं। जम्मू-कश्मीर की यूनिफाइड कमांड फोर्स (सभी एजेंसियों के प्रमुखों का समूह) की भूमिका की समीक्षा कर सक्रिय किया जाए। इसकी जरूरत है।
गुलाम जम्मू-कश्मीर को वापस लेने का समय कब आएगा?
अभी यह दूर की बात है। इस वक्त गुलाम जम्मू-कश्मीर की बात करने या उछालने का सही समय नहीं है। अगले पांच-दस साल के हिसाब से देखें तो हम बलपूर्वक पूरे गुलाम जम्मू-कश्मीर को कैप्चर नहीं कर सकते। यदि हम अभी ऐसा कुछ करेंगे तो हमें वैश्विक स्तर पर कोई समर्थन नहीं मिलेगा।हमें समझना होगा कि यह बहुत कठिन इलाका है। तैयारी में समय लगेगा और योजनाबद्ध तरीके से ही आगे बढ़ना होगा। यह जरूर है कि जिस तरह से वहां के लोगों का सरकार से विश्वास हट रहा है। हो सकता है कि किसी दिन बांग्लादेश जैसी स्थिति बन जाए। उस स्थिति में यह हमारे पास आ सकता है।
बलूचिस्तान भी तो आजाद होना चाह रहा है?
बलूचिस्तान पर तो भारत हक नहीं जमा सकता है, लेकिन गुलाम जम्मू-कश्मीर पर हमारा हक है। यह हमारी लाइन आफ कंट्रोल से जुड़ी हुई है। बलूचिस्तान की सीमा हमसे जुड़ी हुई नहीं है।
तो फिर पाकिस्तान का क्या हल है?
जब तक वहां की चुनी हुई सरकार फौज पर नियंत्रण नहीं करेगी, तब तक यह संभव नहीं है। पाकिस्तान की सेना ने भारत से खतरा बताकर ही अपना अस्तित्व बना रखा है। वहां की सरकार यदि भारत की ओर हाथ बढ़ाने की कोशिश करती है तो सेना किसी ने किसी बहाने से युद्ध शुरू कर देती है। लाहौर समझौते के बाद ही उन्होंने कारगिल युद्ध शुरू किया था।