सोवियत संघ को बिखरे महज आठ साल हुए थे तभी व्लादिमीर पुतिन साल 2000 में 26 मार्च को रूस के राष्ट्रपति बन गए थे. तब पुतिन की उम्र 48 साल हो रही थी.
अब पुतिन 73 साल के हो गए हैं और अब भी वही रूस के राष्ट्रपति हैं. अमेरिका में इस दौरान पाँच राष्ट्रपति बदल चुके हैं. लेकिन पाँचों राष्ट्रपति की मुलाक़ात पुतिन से अमेरिकी ज़मीन पर नहीं हुई.
राष्ट्रपति के रूप में पुतिन सात बार अमेरिका जा चुके हैं. पुतिन पहली बार अमेरिका साल 2000 में छह सितंबर को गए थे.
तब उनकी मुलाक़ात अमेरिका के तत्कालीन राष्ट्रपति बिल क्लिंटन से हुई थी. पुतिन आख़िरी बार अमेरिका 2015 में गए थे. यानी पिछले 10 सालों से पुतिन अमेरिका नहीं गए हैं. अमेरिका में पुतिन के ज़्यादातर दौरे द्विपक्षीय नहीं थे.
अमेरिका के राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप ने बुधवार को कहा कि रूस ने दूसरे विश्व युद्ध में अमेरिका का साथ दिया था और इसे भुलाया नहीं जा सकता है. लेकिन ट्रंप यह भूल गए कि दूसरे विश्व युद्ध के ख़त्म हुए 80 साल होने जा रहे हैं और इन 80 सालों में बहुत कुछ बदल चुका है.
अव्वल तो यह कि दूसरे विश्व में जो सोवियत संघ अमेरिका के साथ था, वह 1991 में कई टुकड़ों में बिखर चुका था. तब अमेरिका इस बिखराव पर जश्न मना रहा था.
ऐसे में ट्रंप जब दूसरे विश्व युद्ध में यूएसएसआर के साथ होने का हवाला दे रहे हैं तो इसका कोई औचित्य नहीं रह जाता है.
दिल्ली स्थिति जवाहरलाल नेहरू यूनिवर्सिटी में रूसी और मध्य एशिया अध्ययन केंद्र में प्रोफ़ेसर संजय पांडे कहते हैं कि दरअसल ट्रंप यह कहना चाह रहे हैं कि दूसरे विश्व युद्ध में अमेरिका और सोवियत संघ तब साथ थे, जब दोनों के बीच पर्याप्त वैचारिक मतभेद थे.
ट्रंप ने दूसरे विश्व युद्ध का हवाला क्यों दिया?
प्रोफ़ेसर संजय पांडे कहते हैं, ”1917 में जब सोवियत संघ में क्रांति हुई तो अमेरिका से वैचारिक मतभेद और बढ़ गए थे लेकिन दूसरा विश्व युद्ध शुरू होने तक नाज़ी जर्मनी के ख़िलाफ़ अमेरिका और यूएसएसआर साथ आ गए थे. ट्रंप इस बात को जानते हैं कि अगर चीन को चुनौती देनी है तो रूस को साथ लाना होगा. अमेरिका रूस और चीन दोनों से एक साथ नहीं लड़ सकता है. ट्रंप यही कहना चाह रहे हैं कि दूसरे विश्व युद्ध में जब हम साथ आ सकते हैं तो अभी क्यों नहीं?”
दरअसल, पुतिन जब सत्ता में आए तो रूस का मिजाज़ अमेरिका विरोधी हो चुका था. ऐसा मिज़ाज केवल वहां की सरकार का ही नहीं था बल्कि लोगों का भी हो गया था. द लेवाडा सेंटर मॉस्को स्थित एक पोलिंग समूह है. यह 1990 के दशक से रूस में अमेरिका के प्रति लोगों का रुझान कैसा है, उस पर सर्वे करता रहा है.
ऐसा नहीं है कि रूस के लोगों का रुझान शुरू से ही अमेरिका विरोधी था. द लेवाडा सेंटर के मुताबिक़ 1990 के दशक की शुरुआत में ज़्यादातर रूसी अमेरिका को न केवल इकलौ़ती महाशक्ति के रूप में देखते थे बल्कि रोल मॉडल के रूप में भी देखते थे.
1990-1991 में किए गए सर्वे के मुताबिक़ 39 प्रतिशत रूसी अमेरिका में दिलचस्पी रखते थे. इसकी तुलना में 27 प्रतिशत जापान में और महज 17 प्रतिशत जर्मनी में. तब रूस के लोगों से पूछा गया था कि पश्चिम का कौन सा ऐसा देश है, जिसके साथ रूस को अच्छा संबंध रखना चाहिए तो 74 प्रतिशत लोगों का जवाब था- अमेरिका.
अमेरिका ने 1993 में इराक़ पर बमबारी की थी. कहा जाता है कि यह बमबारी अमेरिका के समर्थन वाली भावना के लिए पहली बड़ी चुनौती बनी. अमेरिका को लेकर लोगों का राय बँटने लगी.
1998 से 1999 के बीच अमेरिका और उसके सहयोगी देशों ने ऐसी कई कार्रवाइयां कीं, जिनकी वजह से रूस में अमेरिका को लेकर लोगों की राय बदलती गई.
1999 में नेटो ने युगोस्लाविया में बमबारी की और रूस की सरकार ने इसे लेकर सख़्त आपत्ति जताई. रूस के लोगों को लगने लगा कि अमेरिका के नेतृत्व में पश्चिम के देश उसके हितों के ख़िलाफ़ काम कर रहे हैं.
इसके अलावा दूसरा चेचेन वॉर शुरू हुआ और पश्चिम ने रूस की आलोचना शुरू कर दी. अमेरिका ने ख़ुद को एबीएम संधि से अलग कर लिया और सोवियत संघ के पतन के बाद नेटो का विस्तार पहली बार रूस के क़रीबी देशों तक आ पहुँचा.
पुतिन कैसे बने अमेरिका विरोधी
एबीएम ट्रीटी यानी एंटी बैलिस्टिक मिसाइल ट्रीटी अमेरिका और यूएसएसआर के बीच थी. इसके तहत दोनों देशों को एंटी बैलिस्टिक मिसाइल के विकास और तैनाती को सीमित करना था.
बाद के सर्वे में यह बात सामने आई कि नेटो की अफ़ग़ानिस्तान, इराक़, लीबिया और सीरिया में सैन्य कार्रवाइयां अमेरिका विरोधी भावना बढ़ाने की अहम वजह रहीं.
यानी पुतिन जब रूस के राष्ट्रपति बने, उसके पहले ही अमेरिका विरोधी भावना घर कर चुकी थी. अमेरिका ने 2003 में एक बार फिर से इराक़ पर हमला किया. तब जॉर्ज डब्ल्यू बुश अमेरिका के राष्ट्रपति थे और पुतिन के पास रूस की कमान थी. रूस ने अमेरिका के इस हमले का विरोध किया लेकिन अमेरिका की अगुआई वाला सैन्य गठबंधन इस विरोध को लेकर बेपरवाह रहा.
इराक़ पर अमेरिकी हमले से दो साल पहले जॉर्ज डब्ल्यू बुश ने पुतिन की प्रशंसा की थी. जून 2001 में अमेरिका के तत्कालीन राष्ट्रपति जॉर्ज डब्ल्यू बुश से पुतिन की मुलाक़ात हुई थी.
इस मुलाक़ात के बाद बुश ने पुतिन के बारे में कहा था, ”मैंने पुतिन की आँखों में देखा तो वह संवेदनशील लगे. मुझे वह बेबाक और भरोसे लायक़ दिखे.”
इसी प्रेस कॉन्फ़्रेंस में बुश ने पुतिन के बारे में कहा था, ”पुतिन अपने मुल्क को लेकर काफ़ी प्रतिबद्ध हैं. वह अपने देश के हितों को लेकर सजग रहते हैं. मैं बेबाक बातचीत के लिए उनकी प्रशंसा करता हूँ. अगर मुझे पुतिन पर भरोसा नहीं होता तो उन्हें आमंत्रित ही नहीं करता. रूस और अमेरिका को शीत युद्ध की मानसिकता से बाहर निकलकर नए सिरे से संबंध मज़बूत करने चाहिए.”
नॉर्थ अटलांटिक ट्रीटी ऑर्गेनाइज़ेशन यानी नेटो दूसरे विश्व युद्ध के बाद 1949 में बना था.
इसे बनाने वाले अमेरिका, कनाडा और अन्य पश्चिमी देश थे. इसे इन्होंने सोवियत यूनियन से सुरक्षा के लिए बनाया था.
तब दुनिया दो ध्रुवीय थी. एक महाशक्ति अमेरिका था और दूसरी सोवियत यूनियन.
नेटो एक रणनीतिक भूल?
शुरुआत में नेटो के 12 सदस्य देश थे. नेटो ने बनने के बाद घोषणा की थी कि उत्तरी अमेरिका या यूरोप के इन देशों में से किसी एक पर हमला होता है तो इस संगठन में शामिल सभी देश अपने ऊपर हमला मानेंगे.
ऐसा नहीं है कि पुतिन राष्ट्रपति बनने के बाद से ही नेटो विरोधी हो गए थे. पुतिन से साल 2000 में पाँच मार्च को बीबीसी के डेविड फ़्रॉस्ट ने पूछा था, “नेटो को लेकर आप क्या सोचते हैं? नेटो को आप संभावित साझेदार के तौर पर देखते हैं या एक प्रतिद्वंद्वी या फिर दुश्मन के तौर पर?”
इसके जवाब में पुतिन ने कहा था, ”रूस यूरोप की संस्कृति का हिस्सा है. मैं ख़ुद अपने देश की कल्पना यूरोप से अलगाव में नहीं कर सकता. हम इसे ही अक्सर सभ्य दुनिया कहते हैं.ऐसे में नेटो को दुश्मन के तौर पर देखना मेरे लिए मुश्किल है. मुझे लगता है कि इस तरह का सवाल खड़ा करना भी रूस या दुनिया के लिए अच्छा नहीं होगा. इस तरह के सवाल ही नुक़सान पहुँचाने के लिए काफ़ी हैं.”
पुतिन ने कहा था, ”रूस अपने साझेदारों से बराबरी और न्यायसंगत संबंध चाहता है. जिन साझे हितों पर पहले से सहमति है, उनसे अलग होना मुख्य समस्या है. ख़ासकर अंतरराष्ट्रीय सुरक्षा के मुद्दों को हल करना अहम है. हम बराबरी के सहयोग और साझेदारी के लिए तैयार हैं. हम नेटो के साथ सहयोग के लिए बात कर सकते हैं लेकिन यह तभी संभव होगा,जब रूस को बराबरी के साझेदार के तौर पर रखा जाएगा. आप जानते हैं कि हम पूरब में नेटो के विस्तार का विरोध करते रहे हैं.”
जॉर्ज रॉबर्टसन ब्रिटेन के पूर्व रक्षा मंत्री हैं और वह 1999 से 2003 के बीच नेटो के महासचिव थे.
उन्होंने 2021 के नवंबर महीने में कहा था कि पुतिन रूस को शुरुआत में नेटो में शामिल करना चाहते थे, लेकिन वह इसमें शामिल होने की सामान्य प्रक्रिया को नहीं अपनाना चाहते थे.
जॉर्ज रॉबर्टसन ने कहा था, ”पुतिन समृद्ध, स्थिर और संपन्न पश्चिम का हिस्सा बनना चाहते थे.”
नेटो से चिढ़ क्यों?
जॉर्ज रॉबर्टसन ने पुतिन से शुरुआती मुलाक़ात को याद करते हुए बताया था, ”पुतिन ने कहा, आप हमें नेटो में शामिल होने के लिए कब आमंत्रित करने जा रहे हैं? मैंने जवाब में कहा, हम नेटो में शामिल होने के लिए लोगों को बुलाते नहीं हैं. जो इसमें शामिल होना चाहते हैं, वे आवेदन करते हैं. इसके जवाब में पुतिन ने कहा था, मैं उन देशों में नहीं हूँ कि इसमें शामिल होने के लिए आवेदन करूँ.”
इसके बाद पुतिन का नेटो विरोध कभी थमा नहीं. नेटो ने भी अपने विस्तार का रुख़ रूस की तरफ़ मोड़ दिया था. 2004 में शीत युद्ध के बाद नेटो का दूसरा विस्तार हुआ. इस विस्तार में एस्टोनिया, लिथुआनिया, लात्विया, बुल्गारिया, रोमानिया और स्लोवाकिया नेटो में शामिल हो गए.
नवंबर, 2003 में जॉर्जिया में रोज़ रिवॉल्युशन हुआ था और वह पश्चिम के पाले में चला गया.
2004 में यूक्रेन की सड़कों पर भारी संख्या में लोग विरोध-प्रदर्शन के लिए उतरे और इसे ऑरेंज रिवॉल्युशन कहा गया.
प्रदर्शनकारी रूस को ख़ारिज कर अपना भविष्य पश्चिम के साथ देख रहे थे. क्रोएशिया और अल्बानिया भी 2009 में नेटो में शामिल हो गए.
नौ फ़रवरी, 1990 को अमेरिका के तत्कालीन विदेश मंत्री जेम्स बेकर ने सोवियत यूनियन के आख़िरी नेता मिखाइल गोर्बाचोव को आश्वस्त किया था कि नेटो पूरब की ओर एक इंच भी आगे नहीं बढ़ेगा.
अमेरिका के पूर्व डिप्लोमैट जॉर्ज केनन ने कहा था कि नेटो का विस्तार शीत युद्ध के दौरान अमेरिका की सबसे विनाशक विदेश नीति रही है. लेकिन ऐसा कहने वाले केवल केनन ही नहीं थे.
सीनेटर एडवर्ड केनेडी, सीनेटर सैम नुन और थॉमस फ्रिडमैन ने भी 1990 के दशक में कहा था कि बिना रूस को शामिल किए नेटो का विस्तार किया गया तो नया शीत युद्ध शुरू होने से कोई नहीं रोक सकता है.
कहा जा रहा है कि दुनिया एक बार फिर से शीत युद्ध की ओर बढ़ रही है और इस बार चुनौती रूस के साथ चीन भी है.
यरूशलम पोस्ट के पूर्व संपादक और जाने-माने पुलित्ज़र विजेता स्तंभकार ब्रेट स्टीफ़ेंस ने 2022 में 29 मार्च को न्यूयॉर्क टाइम्स में ‘हम दूसरा शीत युद्ध कैसे जीत सकते हैं’ शीर्षक से एक कॉलम लिखा था.
इस कॉलम की शुरुआत में ही स्टीफ़ेंस ने लिखा था, ”पहले शीत युद्ध में सोवियत यूनियन और उसके सैटलाइट के ख़िलाफ़ अमेरिका और हमारे सहयोगियों के पास एक गोपनीय हथियार था. यह हथियार न तो सीआईए ने बनाया था और न ही ये DARPA या किसी लैब से आया था. यह हथियार कम्युनिज़्म था.”
स्टीफ़ेंस ने लिखा था, ”रूसी कम्युनिज़्म के कारण पश्चिम को बढ़त मिली थी क्योंकि मुक्त बाज़ार के सामने यह व्यवस्था टिक नहीं पा रही थी. उनकी नीतियाँ सोवियत यूनियन के भीतर ही नाकाम हो रही थीं. लेकिन अब हमारे पास ऐसा कोई हथियार नहीं है.”
बीबीसी के लिए कलेक्टिव न्यूज़रूम की ओर से प्रकाशित.