इस समय आप देश में किसी को भी कॉल करके देखिए – अपने CA, किसी रिश्तेदार या फिर डॉक्टर को – पहली घंटी बजने के पहले ही सरकार की तरफ से जारी एक संदेश सुनाई पड़ता है। इसमें चेतावनी दी जाती है कि डिजिटल स्कैम से सावधान रहें। इसकी शुरुआत होती है कि सतर्क रहें, अगले 95 सेकंड तक संदेश सुनने वाला सतर्क ही रहता है, क्योंकि इसमें क्यूआर कोड, OTP और एहतियाती कदमों के बारे में बात होती है। लेकिन विडंबना है कि सरकार हमें जिस आवाज में सतर्क करती है, साइबर ठग उसी आवाज में हमें निशाना बनाते हैं।
एक्टिंग है हथियार: भारत में अब एक स्कैमर का सबसे बड़ा हथियार कोई करप्ट सॉफ्टवेयर नहीं, बल्कि एक्टिंग है। मान लीजिए कि फोन कॉल आती है, ‘हैलो, मैं क्राइम सेल से सब-इंस्पेक्टर नरेश बोल रहा हूं।’ अब आप चाहे रिटायर्ड स्कूल टीचर हों या फिर 22 साल के सॉफ्टवेयर कोडर, पुलिस का नाम सुनते ही सन्न रह जाते हैं। जीवन भर की सरकारी दफ्तरों वाली ट्रेनिंग एक्टिवेट हो जाती है और अभी तक सामने वाले ने स्कैम शुरू भी नहीं किया है, लेकिन नर्वस सिस्टम पहले ही शिकार बन चुका है।
सरकारी टोन: साइबर ठगों को बहुत थोड़ी चीजें चाहिए – एक बर्नर फोन, फर्जी बैज, सरकारी जैसी दिखने वाली मुहर और ऐसी आवाज, जिसे सुनकर ऐसा लगे कि वह हमेशा नाराज है। वे सरकारी सिस्टम के शब्द, उसकी आवाज, टोन, हावभाव को अपनाते हैं। वे इसलिए सफल नहीं हैं, क्योंकि उनकी तकनीकी समझ शानदार है – वे इसलिए सफल होते हैं क्योंकि भावनात्मक रूप से बिल्कुल सही काम करते हैं। यह मामला डिजिटल निरक्षरता का नहीं, इमोशनल कंडिशनिंग का है।
डराने वाली भाषा: दशकों से भारतीय राज्य एक सहयोगी नहीं, बल्कि डांटने-फटकारने वाले बॉस की तरह संवाद करता आया है। सरकारी दस्तावेज ‘जबकि’ से शुरू होते हैं और ‘दंडात्मक परिणाम’ पर खत्म। फॉन्ट ऐसे चुने जाते हैं, जो अदालती समन की याद दिलाएं। नोटिस का मकसद जानकारी देना नहीं, भय पैदा करना लगता है। आज जब हमारे कानून आधुनिक हो रहे हैं और सरकारी व्यवस्थाएं डिजिटल, तब भी सरकारी भाषा की टोन टाइपराइटर के युग की बनी हुई है।
भय का ढांचा: आशीष नंदी ने कहा था कि भारत में औपनिवेशिक शक्ति को खत्म नहीं किया गया, उसे बस घरेलू रूप दे दिया गया है। वायसराय अब कलेक्टर बन गए हैं, रानी की अंग्रेजी एफिडेविट की हिंदी में तब्दील हो गई है। लेकिन, भय का भावनात्मक ढांचा अब भी पहले की तरह बना हुआ है। आज के स्कैमर इसी का फायदा उठाते हैं। उन्हें डर और चिंता पैदा करने की जरूरत नहीं है, उन्हें यह विरासत में मिलता है। वे थोड़ी-सी धमकी देते हैं और आम नागरिक झुक जाता है।
बदलाव चाहिए: यह भी विडंबना है कि जिस स्टेट ने हमें इस भाषा से डरना सिखाया, वह कह रहा है कि शांत रहो और किसी पर भरोसा न करो। जिन लोगों को आदेश का पालन करने की ट्रेनिग दी गई हो, उन्हें आप शक करना नहीं सिखा सकते। आप उसी लहजे में शांत रहने के लिए नहीं कह सकते, जिस लहजे में कभी तहसीलदार के दफ्तर से समन आया था। इसका यह मतलब नहीं है कि इन अपराधों के लिए सरकार जिम्मेदार है, लेकिन उसे यह समझना होगा कि उसने जिस चीज का दिखावा किया था, वह अब सार्वजनिक संपत्ति बन चुकी है। अब कोई भी उसका इस्तेमाल कर सकता है। इसका उपाय कोई अभियान नहीं है, हमें सांकेतिक बदलाव करने की जरूरत है। सोचना होगा कि सत्ता किस तरह बात करती है।