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सुप्रीम कोर्ट ने बीते सप्ताह एक महत्वपूर्ण फ़ैसला दिया है. इसमें यह साफ़ किया कि किसी विधेयक यानी बिल को अगर राज्यपाल और राष्ट्रपति के पास अनुमति के लिए भेजा जाए तो वे उसे किन हालात में और कब रोक सकते हैं. यह फ़ैसला जस्टिस जेबी पारदीवाला ने दिया है.
हाल ही में ऐसे कई विवाद सामने आए हैं, जहाँ राज्यपालों ने राज्य की विधानसभा और विधान परिषद से पारित विधेयकों को मंज़ूरी नहीं दी. ऐसा ख़ासकर विपक्ष शासित राज्यों जैसे केरल, पंजाब और तमिलनाडु में देखा गया.
यह फ़ैसला ऐसे हालत में कुछ महत्वपूर्ण सिद्धांत और टाइमलाइन यानी समय सीमा निर्धारित करता है.
दरअसल, तमिलनाडु विधानसभा ने कई विधेयक पारित किए थे और उन्हें राज्यपाल को भेजा था. राज्यपाल ने इन विधेयकों को लंबे वक़्त तक रोके रखकर एक तरह से ‘पॉकेट वीटो’ का उपयोग किया. ‘पॉकेट वीटो’ यानी बिल को अपने पास लंबित रख कर उसे क़ानून बनने से रोके रखा.
हालाँकि, सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि राज्यपाल के पास ऐसा कोई अधिकार नहीं है और उनके इस काम को असंवैधानिक क़रार दिया.
कोर्ट ने साथ ही यह भी कहा कि जिन विधेयकों को राज्यपाल अनुमति नहीं दे रहे थे, उन्हें क़ानून माना जाएगा. इस तरह का फ़ैसला पहली बार हुआ है.
क़ानून कैसे पारित किया जाता है?
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सबसे पहले यह समझें कि किसी राज्य में क़ानून कैसे पारित किया जाता है. विधानसभा और विधानपरिषद द्वारा विधेयक पारित करने के बाद उसे राज्यपाल के सामने पेश किया जाता है. किसी विधेयक के क़ानून बनने के लिए राज्यपाल की मंज़ूरी ज़रूरी है. कई राज्यों में विधानपरिषद नहीं हैं.
संविधान के अनुच्छेद 200 के तहत, जब कोई विधेयक राज्यपाल के पास जाता है तो उनके पास तीन विकल्प होते हैं.
पहला, विधेयक को मंज़ूरी देना. दूसरा विकल्प है, मंज़ूरी देने से रोकना.
जब राज्यपाल मंजूरी से रोकते हैं, तो संविधान कहता है कि उन्हें विधेयक को ‘जितनी जल्दी हो सके’ विधानमंडल को पुनर्विचार के लिए सुझावों के साथ वापस करना चाहिए.
इसके बाद, राज्य सरकार विधेयक को अगर फिर से पारित करती है तो राज्यपाल के पास इसे मंज़ूर करने के अलावा कोई विकल्प नहीं है. भले ही विधानमंडल ने उनके सुझावों को शामिल किया हो या नहीं.
तीसरा विकल्प है, विधेयक को राष्ट्रपति के पास मंज़ूरी के लिए भेजना. अगर कोई विधेयक उच्च न्यायालय की मूल शक्तियों को छीनता है तो राज्यपाल को अनुच्छेद 200 के तहत विधेयक को आवश्यक रूप से राष्ट्रपति को भेजना होगा. इसके अलावा कुछ और ऐसी परिस्थितियाँ भी हैं, जिनमें राष्ट्रपति की मंज़ूरी आवश्यक है.
जब विधेयक राष्ट्रपति को भेजा जाता है तो वे भी इसे मंज़ूरी दे सकती हैं या मंज़ूरी रोक सकती हैं. यदि वे मंज़ूरी रोकती हैं तो विधेयक राज्य सरकार के पास वापस भेजा जाता है. वह इसे फिर से पारित करने पर विचार कर सकती है.
यदि विधेयक फिर से पारित होता है तो इसे राष्ट्रपति के सामने दोबारा प्रस्तुत किया जाता है. राष्ट्रपति के पास इसे मंज़ूरी देने या इसे रोकने के विकल्प हैं. यह प्रक्रिया संविधान के अनुच्छेद 201 में दी गई है.
संविधान में यह निर्धारित नहीं किया गया है कि राज्यपाल या राष्ट्रपति को कितने दिनों के भीतर मंज़ूरी देनी होगी या अपनी नामंज़ूरी के बारे में बताना होगा.
इस मामले में समस्या क्या थी?
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तमिलनाडु विधानसभा ने साल 2020 और 2023 के बीच 12 विधेयक पारित किए. ये राज्यपाल आरएन रवि को भेजे गए. राज्यपाल ने इन विधेयकों को लंबित रखा. उन पर कोई कार्रवाई नहीं की.
अक्तूबर 2023 में राज्य सरकार ने इसके ख़िलाफ़ सुप्रीम कोर्ट में याचिका दायर की. राज्य सरकार का कहना था कि राज्यपाल के पास अनुमति न देने का ऐसा अधिकार नहीं है. इसके बाद, राज्यपाल ने 10 विधेयकों को बिना किसी सुझाव के वापस कर दिया. यही नहीं, दो विधेयकों को राष्ट्रपति के पास विचार के लिए भेज दिया.
राज्य सरकार ने इन 10 विधेयकों को फिर से पारित किया और उन्हें राज्यपाल के पास दोबारा भेजा. उन्होंने इस बार इन सभी विधेयकों को राष्ट्रपति के पास विचार के लिए भेज दिया.
ये दस विधेयक तमिलनाडु के विभिन्न विश्वविद्यालयों में कुलपति की नियुक्ति की शक्ति को राज्यपाल से लेकर राज्य सरकार को दे रहे थे.
राज्य सरकार ने तर्क दिया कि राज्यपाल के पास विधेयक की मंज़ूरी को अनिश्चितकाल तक रोकने और विधेयक पर ‘पॉकेट वीटो’ करने का अधिकार नहीं है. दूसरी ओर, राज्यपाल ने तर्क दिया कि उनके पास संविधान के तहत ऐसा अधिकार है.
कोर्ट ने क्या फ़ैसला सुनाया?
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सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि राज्यपाल का 10 विधेयकों को दूसरी बार पारित होने के बाद भी राष्ट्रपति को भेजना असंवैधानिक था. कोर्ट ने यह भी कहा कि राज्यपाल ने ‘ईमानदारी’ से काम नहीं किया. इसलिए उनके लिए यह ‘कठिन’ है कि वे राज्यपाल पर भरोसा करें कि वे कोर्ट के निर्देश का पालन करेंगे. इसलिए, कोर्ट ने कहा कि इन 10 विधेयकों को पारित माना जाएगा. यह पहली बार था जब राज्यपाल की मंज़ूरी के बिना विधेयकों को पारित माना गया.
कोर्ट ने इस मामले में महत्वपूर्ण सिद्धांत भी निर्धारित किए. यही नहीं, विधेयकों की मंज़ूरी के लिए राज्यपाल और राष्ट्रपति के लिए समयसीमा भी निर्धारित की.
सबसे पहले कोर्ट ने कहा कि विधेयक प्रस्तुत होने पर राज्यपाल के पास केवल तीन विकल्प हैं: या तो मंज़ूरी देना, मंज़ूरी रोकना और विधेयक को विधानसभा के पास वापस भेजना या विधेयक को राष्ट्रपति के विचार के लिए भेजना.
कोर्ट ने कहा कि राज्यपाल या राष्ट्रपति द्वारा ‘वीटो’ का कोई प्रावधान नहीं है. हालाँकि, कुछ हालात में राज्यपाल विधेयक को राष्ट्रपति को भेज सकते हैं. ये स्थितियाँ हैं, अगर विधेयक उच्च न्यायालय की मूल शक्तियों को छीनता है या वह लोकतंत्र के ‘मूल सिद्धांतों को ख़तरे में डालता है’.
कोर्ट के मुताबिक, कई जगह संविधान राष्ट्रपति की मंज़ूरी को अनिवार्य करता है. जैसे: जहाँ विधेयक केंद्र द्वारा बनाए गए क़ानून के ख़िलाफ़ जाता है या केंद्र की वित्त नीति के ख़िलाफ़ जाता है. कोर्ट ने यह भी कहा कि राज्यपाल को किसी विधेयक को राष्ट्रपति के पास भेजने के कारण साफ़ तौर पर बताने होंगे.
कोर्ट का मानना था कि राज्यपाल ‘राजनीतिक या किसी अन्य कारणों’ के आधार पर विधेयक को राष्ट्रपति के पास नहीं भेज सकते.
यदि राष्ट्रपति किसी विधेयक की मंज़ूरी रोकना चाहते हैं, तो उन्हें आदर्श तौर पर उसमें समस्याओं और बदलावों के बारे में बताना होगा. यदि यह दूसरी बार भी उनके पास आता है तो मंज़ूरी रोकने के लिए उन्हें अपने कारण साफ़ तौर पर बताने होंगे.
कोर्ट ने यह भी माना कि यदि राज्यपाल ने विधेयक को विधानसभा के पास वापस भेजा है और विधानसभा इसे फिर से पारित करती है तो राज्यपाल सामान्य रूप से विधेयक को राष्ट्रपति के पास नहीं भेज सकते.
इस मामले में सिर्फ़ एक स्थिति में राज्यपाल विधेयक को राष्ट्रपति के पास भेज सकते हैं. वह स्थिति है, जब विधानसभा ने राज्यपाल द्वारा बताए हुए बदलावों को विधेयक में शामिल न किया हो और वे बदलाव ऊपर बताई गई शर्तों के तहत आते हों.
क्या इनको अदालत में चुनौती दी जा सकती है?
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कोर्ट ने यह भी कहा कि राज्यपाल या राष्ट्रपति द्वारा विधेयक की मंज़ूरी रोकने को अदालतों में चुनौती दी जा सकती है.
यदि राज्यपाल किसी विधेयक को राष्ट्रपति के पास भेजते हैं और राज्य सरकार का मानना है कि यह उनके अधिकार क्षेत्र से बाहर है तो वे इसे अदालत में चुनौती दे सकते हैं. अदालत राज्यपाल के विधेयक को राष्ट्रपति के पास भेजने के कारणों की जाँच करेगी. इसे संवैधानिक और क़ानूनी प्रावधानों पर परखेगी.
ऐसे विधेयकों के मामले में जहाँ संविधान राष्ट्रपति की मंज़ूरी अनिवार्य करता है, उस हालत में अदालतों का हस्तक्षेप सीमित होगा. इसके लिए ज़रूरी होगा कि यह देखा जाए कि कहीं यह मंज़ूरी ‘मनमाने या दुर्भावनापूर्ण कारणों’ से तो रोकी नहीं जा रही है. अगर विधेयक को लोकतंत्र के ख़िलाफ़ होने के कारण राष्ट्रपति के पास भेजा जाता है तो उन मामलों में अदालतों के पास व्यापक समीक्षा का अधिकार होगा. कोर्ट ने माना कि राष्ट्रपति को उन मामलों में आदर्श रूप से सुप्रीम कोर्ट की राय लेनी चाहिए.
राष्ट्रपति को भी अदालत द्वारा निर्धारित समय सीमा का पालन करना होगा.
अदालत ने क्या समय सीमा निर्धारित की?
यदि राज्य कैबिनेट या मंत्रिमंडल की सलाह पर राज्यपाल मंज़ूरी रोकते हैं या विधेयक को राष्ट्रपति के पास भेजते हैं तो राज्यपाल को एक महीने के भीतर कार्रवाई करनी होगी.
यदि राज्य मंत्रिमंडल की सलाह के उलट राज्यपाल मंज़ूरी रोकते हैं या विधेयक को राष्ट्रपति के विचार के लिए भेजते हैं तो उन्हें यह कार्रवाई तीन महीने के अंदर करनी होगी. जब विधेयक राष्ट्रपति के पास पहुँचे तो उनके पास भी इस पर फ़ैसला लेने का तीन महीने का वक़्त होगा.
यदि राज्यपाल विधेयक वापस भेजते हैं और राज्य विधानसभा उसे फिर से पारित कर देता है तो राज्यपाल को एक महीने के भीतर मंज़ूरी देनी होगी.
यदि राज्यपाल या राष्ट्रपति इन समय सीमाओं के भीतर कोई कार्रवाई नहीं करते हैं तो राज्य सरकार समय सीमा लागू करने के लिए अदालत जा सकती है. हालाँकि, राज्यपाल या राष्ट्रपति के पास यह साबित करने का अधिकार होगा कि देरी उचित आधारों पर हुई थी.
बीबीसी के लिए कलेक्टिव न्यूज़रूम की ओर से प्रकाशित.