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वियतनाम के इतिहास के सबसे लोकप्रिय नेता हो ची मिन्ह का जन्म 1890 में हुआ था, अपने देश के ज़्यादातर लोगों के लिए वे ‘अंकल हो’ थे.
21 वर्ष की आयु में उन्होंने अपना देश छोड़ दिया था और अगले 30 वर्षों तक वो वियतनाम नहीं लौटे थे.
उन्होंने पेरिस में रहते हुए फ़्रेंच कम्युनिस्ट पार्टी की स्थापना की थी.
वो अमेरिका, इंग्लैंड, फ्रांस, मॉस्को और चीन में नाम बदलकर रहे थे.
स्टेनली कार्नोव ने अपनी किताब ‘वियतनाम अ हिस्ट्री’ में लिखा था, “1920 के दशक में अगर उनकी एशियाई शक्ल पर लोगों का ध्यान नहीं जाता तो वो उन्हें एक युवा फ़्रेंच बुद्धिजीवी ही समझते. उनका क़द छोटा था और वे बहुत दुबले हुआ करते थे. उनके काले बाल थे और लोगों के अंदर झाँकती हुई काली आँखें लोगों को प्रभावित करती थीं.”
“वो मोंमात्र इलाक़े के एक होटल के एक गंदे से कमरे में रहा करते थे. उनका पेशा था पुरानी तस्वीरों को सुधारना और उन्हें इनलार्ज करना. उनके हाथ में या तो शेक्सपियर और या फिर एमील ज़ोला की कोई किताब रहा करती थी. वो शांत प्रवृत्ति के ज़रूर थे लेकिन डरपोक नहीं थे. नाटकों, साहित्य और अध्यात्मवाद में दिलचस्पी रखने वाले लोगों की बैठक में वो धाराप्रवाह फ़्रेंच में अपने विचार प्रकट करते थे. उन्होंने पश्चिम के प्रभाव को आत्मसात तो कर लिया था लेकिन वो उसके प्रभुत्व में आने के लिए तैयार नहीं हुए थे.”
हो ची मिन्ह की कलकत्ता यात्रा
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किस्सा मशहूर है कि सन 1941 में अचानक कलकत्ता में भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी के दफ़्तर से सभी कॉमरेडों को फ़ोन किया जाने लगा कि उन्हें तुरंत पार्टी के दफ़्तर पहुंचना है.
कम्युनिस्ट नेता मोहित सेन अपनी आत्मकथा ‘अ ट्रेवेलर एंड द रोड, द जर्नी ऑफ़ एन इंडियन कम्युनिस्ट’ में लिखते हैं, “जब हम दफ़्तर पहुंचे तो हम सब को एक दुबले-पतले लेकिन मुस्कराती हुई आँखों और पतली दाढ़ी वाले शख़्स से मिलवाया गया. वह वो कपड़े पहने हुए थे जिसे बाद में चीनी कम्युनिस्ट पार्टी के नेता पहनने लगे थे. उनके पैरों में रबड़ की सैंडल थी. उनका नाम था हो ची मिन्ह. उन्होंने ख़ुद ही अपना परिचय कराया और कहा कि वो फ़्रेंच सरकार से बातचीत करने पेरिस जा रहे हैं. वे ग्रेट-ईस्टर्न होटल में ठहरे हुए थे और वहाँ के एक वेटर की मदद से कम्युनिस्ट पार्टी के दफ़्तर पहुंचे थे.”
वियतनाम को दिलवाई आज़ादी
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जब भी हो ची मिन्ह का ज़िक्र होता है प्रतिरोध और क्रांतिकारी भावना जैसे शब्द ज़हन में बरबस आ जाते हैं. वो ऐसे शख़्स थे जिन्हें उनके जीवनकाल में जहाँ एक ओर आदर मिला तो दूसरी ओर उनके विरोधियों ने उन्हें हिकारत की नज़र से भी देखा.
लेकिन इसमें कोई दो राय नहीं कि उन्होंने लंबे समय से औपनिवेशिक शासन में जकड़े अपने देश को आज़ादी दिलवाई.
जैक्सन हार्टी अपनी किताब ‘हो ची मिन्ह फ़्रॉम अ हंबल विलेज टु लीडिंग अ नेशंस फ़ाइट टु फ़्रीडम’ में लिखते हैं, “मध्य वियतनाम के एक गाँव से देश की आज़ादी की लड़ाई के मुखिया तक का उनका सफ़र न सिर्फ़ एक संघर्ष और जीवट की कहानी है बल्कि एक ऐसे शख़्स की कहानी है जिसने दुनिया की सबसे तगड़ी शक्तियों से मिलने वाली चुनौतियों का सामना करने की हिम्मत की. वियत मिन्ह के नेता के तौर पर उन्होंने न सिर्फ़ फ़्रेंच साम्राज्यवादियों के ख़िलाफ़ लड़ाई लड़ी बल्कि उनकी समर्थक महाशक्ति अमेरिका को भी हार मानने के लिए मजबूर कर दिया.”
शुरू में अमेरिका ने झाड़ा पल्ला
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29 अगस्त, 1945 को वियतनाम की आज़ादी के लिए संघर्ष कर रहे दल, वियत मिन्ह ने हनोई को जापान से मुक्त करा लिया.
दो सितंबर को स्वतंत्र वियतनाम राष्ट्र की स्थापना कर दी गई. अमेरिका इस जश्न में शरीक था. अमेरिकी राष्ट्रपति रूज़वेल्ट वियतनाम को वापस फ़्रांसीसियों को सौंपने के पक्ष में नहीं थे.
वो वियतनाम को संयुक्त राष्ट्र संरक्षण या यहाँ तक कि अस्थायी रूप से चीन के नियंत्रण में भी देने को तैयार थे.
अगस्त में पॉट्सडम संधि में अमेरिका और मित्र देशों ने वियतनाम का उत्तर और दक्षिण में विभाजन कर उत्तर में जापानियों से हथियार रखवाने और कानून और व्यवस्था का ज़िम्मा चीन को और दक्षिण में ये काम ब्रिटेन को सौंपते हुए भविष्य में राष्ट्रीय एकीकरण का रास्ता बनाने की सलाह के साथ अपना पल्ला झाड़ लिया.
दूसरे विश्व युद्ध के बाद जब शीत युद्ध शुरू हुआ तो अमेरिका की नज़रों में हो ची मिन्ह अब राष्ट्रवादी देशभक्त नहीं, कट्टर कम्युनिस्ट और ‘मॉस्को के एजेंट’ बन गए.
वीके सिंह अपनी किताब ‘हो ची मिन्ह और उनका वियतनाम’ में लिखते हैं, “27 मार्च, 1947 के ट्रूमेन सिद्धांत ने घोषित किया कि अमेरिका हर उस देश की मदद करेगा जिस पर आंतरिक विद्रोह, बाहरी आक्रमण या किसी भी तरह से कम्युनिस्ट कब्ज़े का ख़तरा है. आठ मई, 1950 को अमेरिका ने फ़्रांस के साथ वियतनाम में सामरिक सहायता समझौता किया. सितंबर, 1953 में अमेरिकी कांग्रेस ने 90 करोड़ डॉलर की सैन्य सहायता की मंज़ूरी दी. 1954 आते-आते अमेरिका वियतनाम में फ़्रांस के युद्ध का 80 फ़ीसदी ख़र्चा वहन करने लगा था.”
सन 1954 में दियेन बियेन फू में फ़्रांस की निर्णायक हार हुई. फ़्रांस के साढ़े सात हज़ार सैनिक हताहत हुए और दस हज़ार युद्धबंदी बने. 19 जुलाई, 1954 को जेनेवा समझौते के तहत युद्ध-विराम के साथ फ़्रांस-वियत मिन्ह युद्ध का निर्णायक अंत हुआ.
वियत मिन्ह ने लाखों लोगों की मौत की कीमत पर सीखा कि अपने से कई गुना बड़ी शक्तियों से युद्ध लड़ा और जीता जा सकता है.
अमेरिका ने अपनी पूरी ताक़त झोंकी
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जेनेवा समझौते के बाद वियतनाम के एकीकरण की राह खोजने के बजाए राष्ट्रपति आइज़नहावर और उनके विदेश मंत्री जॉन फ़ास्टर डलेस ने उस क्षेत्र में साम्यवाद के विस्तार को रोकने के लिए दक्षिण वियतनाम को एक अलग देश के रूप में खड़ा करने का फ़ैसला किया.
आइज़नहावर पहले अमेरिकी राष्ट्रपति थे जिन्होंने वियतनाम में सीधे अमेरिकी हस्तक्षेप की शुरुआत की. इसके बाद कैनेडी, लिंडन जॉनसन और रिचर्ड निक्सन के कार्यकाल में अमेरिकी हस्तक्षेप बढ़ता ही चला गया, 27 जनवरी, 1965 को अमेरिका के राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार मैकगेवर्ज़ बंडी और रक्षा मंत्री रॉबर्ट मेक्नमारा ने राष्ट्रपति जॉनसन से कहा कि वियतनाम में सीमित सैनिक हस्तक्षेप पूरी तरह से नाकाम रहा है.
अब अमेरिका के सामने दो ही विकल्प हैं. या तो वो इस लड़ाई में पूरी तरह से कूद पड़े या फिर वहाँ से पूरी तरह से वापस आ जाए. छह फ़रवरी, 1965 को जॉनसन ने ‘ऑपरेशन फ़्लेमिंग डार्ट’ को मंज़ूरी दे दी.
अमेरिकी बलों की ताक़त के बावजूद उत्तरी वियतनाम की सेना ने उसे कड़ी टक्कर दी.
डेविड लेन फ़ैम हो ची मिन्ह की जीवनी में लिखते हैं, “हो ची मिन्ह के सामरिक नेतृत्व और उत्तरी वियतनाम के कम्युनिस्ट शासन ने लड़ाई जारी रखने के लिए वियतकॉन्ग को आवश्यक संसाधन और वैचारिक समर्थन प्रदान किया. अमेरिकियों को जल्द ही ये अंदाज़ा हो गया कि वो एक सैनिक बल से नहीं बल्कि पूरी जनता से लड़ रहे हैं. ये लड़ाई अमेरिका के लिए एक तरह की दलदल बन कर रह गई जहाँ जीत का कहीं नामोनिशान नहीं था. अमेरिकी सेना को न सिर्फ़ वियतनाम में हो ची मिन्ह के सैनिकों का प्रतिरोध करना पड़ रहा था बल्कि उनके अपने देश में युद्ध विरोधी आंदोलन ज़ोर पकड़ने लगा था जहाँ लड़ाई की नैतिकता और उसके असरदार होने पर सवाल उठाए जाने लगे थे.”
छापामार युद्ध पर ज़ोर
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पूरे युद्ध के दौरान हो ची मिन्ह ने बदलती हुई परिस्थितियों के अनुसार अपने-आप को ढालने की अद्भुत क्षमता दिखाई.
विलियम जे डाइका ने अपनी किताब ‘हो ची मिन्ह अ लाइफ़’ में लिखा, “हो के नेतृत्व ने लड़ाई के दौरान उत्तरी वियतनाम के संकल्प को बरकरार रखने और वियतनामी लोगों को राष्ट्रवाद और समाजवाद के झंडे तले एकजुट रखने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई. संघर्ष के बारे में उनकी समझ और मुश्किल के दौरान उनका ठोस नेतृत्व उनकी सफलता का मुख्य कारण बना.”
हो ची मिन्ह की कामयाबी का एक बड़ा कारण था छापामार युद्ध पर उनका ज़ोर. उनको बहुत अच्छी तरह से पता था कि वियतनाम जैसे जंगलों से भरे देश में परंपरागत लड़ाई नहीं लड़ी जा सकती. उनकी रणनीति थी वियतकॉन्ग का ग्रामीण जनता में घुलमिल जाना, अमेरिकी सैनिकों पर अचानक हमला करना और जंगलों और गाँवों में विलीन हो जाना. अमेरिकी सैनिकों को इस तरह की लड़ाई के लिए प्रशिक्षित नहीं किया गया था.
चीन और सोवियत संघ का सहयोग
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हो ची मिन्ह की सफलता का एक और कारण था उन्हें सोवियत संघ और चीन का पूर्ण सैनिक और राजनीतिक समर्थन. सन 1957 में हो चीन की यात्रा पर गए थे. भारत के विदेश मंत्री रहे नटवर सिंह अपनी किताब ‘फ़्रॉम हार्ट टु हार्ट’ में लिखते हैं, “जब हो पीकिंग आए थे तो चीन का माओत्से तुंग से लेकर चाउ एन लाई और लिउ शाओ ची तक चीन का पूरा चोटी का नेतृत्व उनके स्वागत के लिए हवाई-अड्डे पर गया था. वो चप्पल पहनकर विमान से नीचे उतरे थे. वो बाहर से ज़रूर बहुत सौम्य लग रहे थे लेकिन उनकी हड्डियों में लोहे जैसी मज़बूती थी.”
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सन 1953 में स्टालिन की मृत्यु से कुछ माह पहले हो ची मिन्ह ने उनसे मॉस्को में मुलाकात की थी.
विलियम डाइक लिखते हैं, “इस मुलाकात में स्टालिन ने दो कुर्सियों की तरफ़ इशारा करते हुए हो से पूछा था कि इनमें से एक कुर्सी राष्ट्रवादियों की है और दूसरी अंतरराष्ट्रवादियों की है. आप इनमें से किस पर बैठना पसंद करेंगे. हो ने जवाब दिया था, ‘कॉमरेड स्टालिन मैं दोनों कुर्सियों पर बैठना पसंद करूँगा. स्टालिन ने हो की हाज़िरजवाबी की बहुत तारीफ़ की थी. जब मॉस्को से ट्रेन से पीकिंग के रास्ते हनोई लौटते हुए हो ची मिन्ह ने ये किस्सा साथ चल रहे माओत्से तुंग और चाउ एन लाई को सुनाया तो उन्होंने कहा था, स्टालिन से कुछ ले पाना उसी तरह हुआ कि शेर के मुँह से गोश्त छीन लिया जाए.”
79 वर्ष की आयु में देहावसान
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हो ची मिन्ह महात्मा गांधी और जवाहरलाल नेहरू के बहुत बड़े प्रशंसक थे. नेहरू ने प्रधानमंत्री के रूप में हो से दो बार मुलाकात की थी.
एक बार 1954 में हनोई में और दूसरी बार 1958 में दिल्ली में जब हो ची मिन्ह भारत की सरकारी यात्रा पर आए थे.
उसी यात्रा के दौरान भारत की मशहूर साहित्यकार अमृता प्रीतम की मुलाकात हो ची मिन्ह से हुई थी.
उन्होंने अपने आत्मकथा रसीदी टिकट में लिखा था, “हो ची मिन्ह ने मेरा माथा चूमते हुए कहा था, ‘हम दोनों सिपाही हैं. तुम कलम से लड़ती हो. मैं तलवार से लड़ता हूँ.”
सन 1969 की शुरुआत में उन्हें दिल की बीमारी शुरू हुई. अगस्त आते-आते ये बीमारी गंभीर हो गई दो सितंबर, 1969 को सुबह 9 बज कर 45 मिनट पर हो ची मिन्ह ने 79 साल की उम्र में इस दुनिया का अलविदा कहा.
पूरा वियतनाम शोक में डूब गया लेकिन उनके उत्तराधिकारियों ने कहा कि वो हो ची मिन्ह की नीतियों को तब तक जारी रखेंगे जब तक उनके देश की भूमि पर एक भी विदेशी रहता है.
करीब एक लाख लोगों ने उनकी अंतिम यात्रा में भाग लिया. 121 देशों ने वियतनाम को संवेदना संदेश भेजे. अमेरिका ने एक शब्द भी नहीं कहा लेकिन एक दिन के लिए वियतनाम पर बमबारी रोक दी.
उनकी मृत्यु के छह साल बाद सन 1975 में अमेरिका को उनके देश को छोड़ना पड़ा.
बीबीसी के लिए कलेक्टिव न्यूज़रूम की ओर से प्रकाशित