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साल 1972 में जुलाई के पहले सप्ताह में हिमाचल प्रदेश की राजधानी शिमला में काफ़ी गहमागहमी थी.
यह वह दौर था जब पाकिस्तान की सेना ने पूर्वी पाकिस्तान में भारतीय सेना के सामने आत्मसमर्पण कर दिया था. पाकिस्तान के आधिकारिक आंकड़ों के अनुसार, 73 हज़ार युद्धबंदी भारतीय हिरासत में थे, जिसमें 45 हज़ार सैनिक या अर्धसैनिक शामिल थे, और पश्चिमी पाकिस्तान का लगभग 5 हज़ार वर्ग मील क्षेत्र भारत के क़ब्ज़े में था.
इसी पृष्ठभूमि में भारत की प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी और पाकिस्तान के राष्ट्रपति जुल्फ़िक़ार अली भुट्टो शिमला में मिल रहे थे. बाद में जो यहां समझौता हुआ उसे शिमला समझौता कहा गया.
समझौते के दस्तावेज़ों पर हस्ताक्षर की तारीख़ 2 जुलाई 1972 दर्ज है. जबकि वास्तव में इस दस्तावेज़ पर 3 जुलाई की सुबह हस्ताक्षर किए गए थे.
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भारत और पाकिस्तान के बीच 1971 के युद्ध के बाद पूर्वी पाकिस्तान, बांग्लादेश के रूप में एक स्वतंत्र देश बन गया. दोनों देश शांतिपूर्ण तरीकों से आपसी बात-चीत के ज़रिये या अन्य शांतिपूर्ण तरीक़ों से अपने मतभेदों को आपसी सहमति से हल करने की प्रतिबद्धता पर सहमत हुए.
पाकिस्तान में राजनीतिक स्थिति यह थी कि पाकिस्तान में कोई संविधान नहीं था. 1970 के आम चुनाव में चुने गए नेशनल असेंबली के भविष्य के बारे में निश्चित तौर पर कुछ नहीं कहा जा सकता था. चुनाव हारने वाली पार्टियां चुनाव को रद्द करने की मांग कर रही थीं.
इस बीच, भारतीय प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी, एक विजयी देश की नेता के तौर पर, भारत के लोगों के बीच अधिक लोकप्रिय नेता बन गई थीं.
ऐसे में भारत के सामने ‘पाकिस्तान को और सबक़ सिखाने’ की योजना की बात हो रही थी और कई अख़बार कह रहे थे कि ‘पराजित पाकिस्तान’ को मजबूर किया जाये, कि वह कश्मीर समेत बाक़ी सभी विवादों को भारतीय शर्तों के अनुसार, स्थायी तौर पर हल करे.
पूर्वी पाकिस्तान में आत्मसमर्पण के बाद, पाकिस्तानी सेना में अशांति बढ़ गई थी और क़ैद हो चुके सैनिकों को रिहा कराने का कोई रास्ता नज़र नहीं आ रहा था, क्योंकि कोई संविधान नहीं था. इसलिए मार्शल लॉ नियम जारी किए गए और सत्ता एक सिविलियन को हस्तांतरित कर दी गई. इस तरह से एक सिविलियन चीफ़ मार्शल एडमिनिस्ट्रेटर नियुक्त किया गया था.
लेकिन इंदिरा गांधी पाकिस्तान से बातचीत करने को तैयार नहीं थीं. पाकिस्तान के सिविलियन चीफ़ मार्शल एडमिनिस्ट्रेटर, राष्ट्रपति ज़ुल्फ़िक़ार अली भुट्टो ने रूस का दौरा किया और कहा कि पाकिस्तान भारत पर अपने ‘पुराने’ मित्र रूस के ज़रिये वार्ता शुरू करने के लिए दबाव डलवाना चाहता था. काफी कूटनीतिक प्रयासों के बाद, इंदिरा गांधी पाकिस्तान के साथ बातचीत करने के लिए तैयार हुई थीं.
वार्ता की शुरुआत: ‘हम अपनी जीत पर शर्मिंदा नज़र आ रहे थे’
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संपर्क बहाल हुए और प्रतिनिधिमंडलों का आना जाना हुआ. पाकिस्तान के राष्ट्रपति का भारत आकर बातचीत करने का फ़ैसला हुआ, ताकि शुरुआती स्तर पर जो कुछ भी तय किया जा रहा था उसे औपचारिक समझौते की शक्ल दी जा सके. वार्ता की शुरुआत में, भारत स्पष्ट रूप से एक विजयी देश था, लेकिन एक भारतीय राजनयिक के अनुसार, बात-चीत के दौरान, वो मोड़ भी आया, जब विजयी देश ‘शर्मिंदा’ नज़र आ रहा था.
भारत की तरफ़ से वार्ता करने वाली टीम के एक अधिकारी, केएन बख़्शी ने 2007 के एक साक्षात्कार में कहा था, कि हालांकि पाकिस्तानी सेना ने आत्मसमर्पण कर दिया था, पूरी दुनिया की राय भारत के हक़ में थी. “फिर भी हम ज़्यादा हासिल नहीं कर सके. हम अपनी जीत पर शर्मिंदा दिख रहे थे. हम समझौता करने की इच्छा में पाकिस्तान के सामने झुके जा रहे थे.”
भारत के राजनीति विज्ञान के प्रोफ़सर उदय बालाकृष्णन ने इंदिरा गांधी के जन्मदिन के अवसर पर 20 नवंबर, 2019 को दैनिक हिंदू में एक लेख लिखा था. इस लेख में उन्होंने इंदिरा गांधी की प्रशंसा के बाद, साल 1972 के शिमला समझौते को उनकी एक ‘राजनीतिक ग़लती’ कहा है.
“हम कभी भी यह नहीं जान पाएंगे कि ऐसी कौन सी परिस्थितियां थीं, जिन्होंने 1971 के युद्ध के बाद इंदिरा गांधी को पाकिस्तान के साथ एक नुक़सानदायक सौदा करने पर मजबूर किया. शिमला समझौते और उसके बाद के दिल्ली समझौते ने पाकिस्तान को वह सब कुछ दिया जो वह चाहता था : पाकिस्तान के वो सभी इलाक़े जिन पर भारतीय सेना ने क़ब्ज़ा कर लिया था. और पाकिस्तानी सेना के किसी भी अधिकारी को वर्तमान बांग्लादेश में नरसंहार के आरोप में मुक़दमा चलाये बिना उन सबकी सुरक्षित पाकिस्तान वापसी.”
डॉक्टर बालाकृष्णन लिखते हैं कि “अगर कभी भी भारत के पाकिस्तान के साथ संबंधों में कोई बरतरी और प्रभावशाली होने का पॉइंट दिखा, तो यही वह क्षण था जब भारत ने अपनी ताक़त के बल पर पाकिस्तान के 5 हज़ार वर्ग मील क्षेत्र पर क़ब्ज़ा किया हुआ था. और उसकी सेना के लगभग एक चौथाई हिस्से को युद्ध बंदी बना लिया गया था.”
बालाकृष्णन लिखते हैं कि “यह आश्चर्यजनक बात है कि भारत ने दोनों को ही आसानी से क्यों लौटा दिया.”
इस बारे में भारत के एक पूर्व राजनयिक शशांक बनर्जी कहते हैं, कि पाकिस्तान के युद्ध बंदियों को वापस भेजने का फ़ैसला, शेख़ मुजीबुर रहमान को ज़िंदा और सही सलामत उनके देश भेजे जाने के लिए किया गया था.
शशांक बनर्जी के इस तर्क का जवाब देते हुए बालाकृष्णन लिखते हैं कि ”उनकी (शशांक की) यह बात ठीक नहीं है. युद्ध बंदियों की वतन वापसी साल 1973 के दिल्ली समझौते के बाद हुई, जबकि इस समझौते से काफ़ी पहले जनवरी 1972 में शेख़ मुजीबुर रहमान बांग्लादेश पहुँच चुके थे.”
शिमला समझौते के समय भारत में क्या सोच थी?
हालांकि, इंदिरा गांधी के फ़ैसले के बारे में कहा जाता है, कि पाकिस्तान की हार के बाद, वह ऐसे समझौते पर हस्ताक्षर नहीं करना चाहती थीं, जो प्रथम विश्व युद्ध के ‘वसाये समझौते’ जैसा हो. जिसकी अपमानजनक शर्तों ने जर्मनी में बदला लेने की कट्टर भावना को जन्म दिया और परिणामस्वरूप, जर्मनी में नाज़ी नेतृत्व का उदय हुआ था.
2007 के अपने एक इंटरव्यू में केएन बख़्शी ने इस समझौते के बारे में शिमला में होने वाले अंतिम चरणों की कहानी बताई है. जिससे पता चलता है कि भारत की सैन्य जीत के बाद शिमला समझौते में राजनयिक स्तर पर ‘हारने’ की वजह, ‘वासाय सिंड्रोम’ के साथ-साथ पाकिस्तान के राष्ट्रपति ज़ुल्फ़िक़ार अली भुट्टो की वार्ता की ‘उच्च रणनीति’ भी थी.
शिमला की कहानी भारतीय वार्ता टीम के अधिकारी केएन बख़्शी की ज़बानी
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(शिमला समझौते की) पूरी तैयारियों के दौरान हमने कुछ प्रमुख बिंदुओं को उजागर करने की कोशिश की. पहला यह था कि भुट्टो विश्वसनीय नहीं थे. हम उन पर भरोसा नहीं कर सकते. ज़ुबानी तौर पर हम यहां तक कह देते थे, कि उनकी मां भी उन पर पूरा भरोसा नहीं कर सकती.
एक हज़ार साल के युद्ध की बात करने वाले ज़ेडएबी (ज़ुल्फिक़ार अली भुट्टो) अब बहुत मीठा बन चुके थे, दूध और शहद की नहरों, शांति और समृद्धि की बात कर रहे थे. यह सब हमारे कानों के लिए संगीत था (और हम इस पर विश्वास कर रहे थे).
हमारे सामने बहुत मीठी बातें की जा रही थीं, जैसे कि “हमारे दोनों देशों की जनता शांति से ही तरक़्क़ी कर सकती है. हमें अपने दोनों देशों के बीच संघर्ष और युद्ध के इतिहास को समाप्त करना होगा. मेरा विश्वास करो, जब मैं ऐसा कहता हूं, तो मुझे एहसास होता है कि यही एकमात्र तरीक़ा है जिससे हम आगे बढ़ सकते हैं.”
उन्होंने (भुट्टो ने) अपनी सारी बातें सार्वजनिक और निजी तौर पर ऐसे ही कीं. उन्होंने भारतीय पत्रकारों से कहा कि नई युद्धविराम रेखा, ‘लाइन ऑफ़ पीस’ होनी चाहिए. वो अपनी लोकतांत्रिक हैसियत पर ज़ोर देते रहे, लंबे समय तक चले सैन्य शासन के बाद, पहली बार वो पाकिस्तान के पहले निर्वाचित नेता थे.
(वे ऐसा ज़ाहिर कर रहे थे जैसे कि) उन्हें लोकतंत्र की रक्षा के लिए मदद चाहिए, क्योंकि शांति जैसे बुनियादी मुद्दों पर केवल एक लोकतांत्रिक सरकार ही फ़ैसला ले सकती है. इसलिए उन्हें एक समझौते की जरूरत थी, जिसे वे अपने लोगों को बेच सकते थे. यह उनके किरदार अदा करने का एक पहलू था.
(इस कूटनीतिक नाटक की) दूसरी भूमिका अज़ीज़ अहमद ने निभाई थी और जो पूरी तरह से नकारात्मक (किरदार) था. जटिल, अहंकारी और इस तरह का था, जैसे कि पाकिस्तानियों ने भारत के साथ हमेशा बुरा व्यवहार किया है. यह लगभग एक हॉलीवुड फ़िल्म के सीन की तरह था, जिसमें एक अच्छा पुलिस वाला होता है और दूसरा बुरा.
और दोनों पुलिसकर्मी मिलकर एक ही लक्ष्य को हासिल करने की कोशिश कर रहे हैं. अज़ीज अहमद ने एक बुरे पुलिसकर्मी की भूमिका निभाई. वह कम बोलते थे लेकिन जब वह बोलते थे तो अलग-अलग तरीकों से एक ही बात कहते थे और यह जम्मू-कश्मीर सहित हमारे संबंधों के सभी पहलुओं पर ज्यादातर पारंपरिक पाकिस्तानी पक्ष था.
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(इस्लामाबाद में दैनिक मसावत के तत्कालीन संवाददाता अहमद हसन अल्वी, जो शिमला प्रतिनिधिमंडल का हिस्सा थे, उन्होंने कई साल बाद अपने पत्रकार मित्रों को, ज़ुल्फ़िक़ार अली भुट्टो के ‘इस राजनयिक नाटक के निर्देशन’ के बारे में बताया था. ज़ुल्फ़िक़ार अली भुट्टो ने बेनज़ीर भुट्टो को मुस्कुराने से लेकर कपड़ो के चुनाव तक पर भी निर्देश दिए हुए थे. केएन बख़्शी की बातों की अहमद हसन अल्वी की बातों से पुष्टि होती है, कि भुट्टो एक माहौल बनाना चाहते थे, जिसके लिए सभी को कुछ ख़ास संवाद बोलने थे और इस ड्रामे का स्टेज कोई थिएटर नहीं था, बल्कि शिमला का वह बंगला था जहां वार्ता हो रही थी.)
इस (राजनयिक नाटक की) प्रोडक्शन में अभिनेताओं का एक तीसरा ग्रुप भी था. ज़ुल्फ़िकार अली भुट्टो शिमला पूरी तैयारी के साथ आये थे. वह 84 सदस्यीय प्रतिनिधिमंडल लेकर आए थे, जिनमें राजनेता, सरकारी कर्मचारी, ख़ुफ़िया अधिकारी, पत्रकार, बुद्धिजीवी, सैन्य अधिकारी शामिल थे. यहां तक कि पाकिस्तान के वो नेता भी शामिल थे जिनका भारत में प्रभाव था.
वह नेशनल अवामी पार्टी के वली ख़ान को भी भारत ले आये थे, जिन्हें भारत में एक फ्रेंडली पॉलिटिशियन माना जाता था और भारत में उनके कई दोस्त और प्रशंसक भी थे. भुट्टो अपने साथ पंजाब के तत्कालीन मुख्य सचिव को भी लाए थे, जो कश्मीरी थे और कई भारतीय अधिकारी उनको व्यक्तिगत रूप से जानते थे.
हम मेज़बान देश थे. हमारे आस-पास भी बहुत सारे लोग थे, लेकिन ज़ुल्फ़िक़ार अली भुट्टो जो कुछ कर रहे थे, उसकी योजना संगठित और समन्वित थी. भुट्टो जिन लोगों को अपने साथ लाए थे, वे अपने सभी दोस्तों और किसी भी ऐसे व्यक्ति के साथ बात कर रहे थे जो भी उनसे बात करने को तैयार दिखे.
(इस सवाल पर कि क्या समझौते में द्विपक्षीय शर्तों पर सहमति हुई थी) वो आम शर्तों में प्रस्तावित लगभग हर चीज़ पर सहमत हुए थे. लेकिन अगर हम शिमला समझौते को देखें, तो मुझे लगता है कि समझौते को दो हिस्सों में बांटा गया है: एक ठोस समझौता और दूसरा इसका प्रत्यक्ष रूप.
हमारे मुताबिक़ वो (भुट्टो) धोखा नहीं दे रहे थे, हमारा मतलब ये था जब हम ये कहते थे, कि हम स्थायी शांति चाहते हैं या हम एक-दूसरे के ख़िलाफ़ शत्रुतापूर्ण प्रोपेगेंडा नहीं करेंगे या हम सभी समस्याओं को शांति से हल करेंगे. संबंधों को सामान्य बनाएंगे, व्यापार, आर्थिक सहयोग, विज्ञान और संस्कृति के क्षेत्र में आदान-प्रदान और सहयोग करेंगे, तो सब मान लेते थे.
दो तरफ़ा दृष्टिकोण ही इन फ़ैसलों की आधारशिला था, ऐसे प्रावधानों पर,अमल करना पूरी तरह से दोनों पक्षों की राजनीतिक प्रतिबद्धता पर निर्भर करता है. लेकिन इस समझौते में भी, इन मामलों में दो चालाकी जोड़ी गई थी.
पाकिस्तान की तरफ़ से (शिमला समझौते में) शामिल किये गए पहले पैराग्राफ़ नंबर 1.1 में कहा गया, कि संयुक्त राष्ट्र के चार्टर के नियम और उद्देश्य दोनों देशों के बीच संबंधों की प्रकृति और वार्ता की दिशा निर्धारित करेंगे. फिर पैराग्राफ़ 1.5 (6) में कहा जाता है कि संयुक्त राष्ट्र के चार्टर के अनुसार, वे ताक़त के इस्तेमाल के जोख़िम से बचेंगे.
सबसे ज़्यादा चालाकी पैरा नंबर 4.1 में है, जिसमें कहा गया है कि एलओसी (लाइन ऑफ़ कंट्रोल) का 17 दिसंबर 1971 के युद्धविराम के नतीजे में दोनों पक्षों की तरफ़ से किसी भी पक्ष की स्वीकार्य पोज़िशन का पूर्वाग्रह के बिना सम्मान किया जाएगा.
ये अनुच्छेद निश्चित रूप से, प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी और ज़ुल्फ़िक़ार अली भुट्टो के बीच सीधे तौर पर होने वाली बात-चीत के दौरान अंतिम समय में जोड़े गए थे. (इस सवाल का जवाब देते हुए बख़्शी ने कहा था कि यह बिल्कुल ऐसा ही था कि लाइन में तो बदलाव किया जाएगा, लेकिन भुट्टो कश्मीर के बारे में अपने दावों को नहीं छोड़ेंगे.) पाकिस्तान का पक्ष यह है कि पूरा क्षेत्र विवादित है और संयुक्त राष्ट्र के प्रस्तावों के मुद्दे को जनमत संग्रह के माध्यम से हल किया जाना चाहिए.
उन्होंने इस पोज़िशन को बरक़रार रखा. एक और दिलचस्प बात यह है कि व्यापार, यात्रा, संचार और यहां तक कि राजनयिक मिशनों को फिर से खोलने के लिए किसी अन्य प्रावधान के लिए कोई समय निर्धारित नहीं है. लेकिन पाकिस्तानी क्षेत्र से भारतीय सैनिकों की वापसी के लिए समझौते को लागू करने के लिए तीस दिन का समय रखा गया था.
और फिर पैराग्राफ़ नंबर 6 का अंतिम वाक्य बहुत महत्वपूर्ण था, जिसमें स्पष्ट रूप से जम्मू-कश्मीर के अंतिम समझौते के शब्द को जोड़ा गया था.
समझौते से दोनों पक्षों को क्या मिला?
प्रिंसटन यूनिवर्सिटी के वुडरो विल्सन स्कूल में अंतरराष्ट्रीय मामलों के प्रोफ़ेसर गैरी जे बॉस ने ‘इंटरनेशनल सिक्योरिटी’ नाम के जर्नल में लिखा है कि “भारत के लिए कथित रूप से युद्ध अपराधों में शामिल पाकिस्तानी सैनिकों पर मुक़दमा चलाने से ज्यादा महत्वपूर्ण कश्मीर के मुद्दे को स्थाई तौर पर सुलझाना था. फिर भी इंदिरा गांधी ने बड़ी चतुराई से भुट्टो की पाकिस्तानी सेना के बारे में चिंताओं का इस्तेमाल करके बांग्लादेश को मान्यता दिलाने की कोशिश की थी.”
उनके मुताबिक़, इंदिरा गांधी ने अपनी 12 जुलाई की प्रेस कॉन्फ्रेंस में मीडिया से कहा था कि उन्होंने भुट्टो से कहा था कि ”जहां तक युद्धबंदियों का सवाल है, इस मामले में एक तीसरा देश भी है, जिसका इससे बहुत गहरा संबंध है यानी, बांग्लादेश. और उस मुद्दे को तब तक हल नहीं किया जा सकता जब तक कि वह भी वार्ता में शामिल न हो (यानी, जब तक कि पाकिस्तान इसे मान्यता नहीं देता).”
जब उनसे भुट्टो के इस बयान के बारे में पूछा गया कि अगर भारत ने पाकिस्तानी सैनिकों को मुक़दमा चलाने के लिए बांग्लादेश को सौंप दिया, तो शायद भारत और पाकिस्तान के बीच भविष्य में बातचीत होना असंभव हो सकता है. इंदिरा गांधी ने बांग्लादेश के बारे में कहा था, कि “हम इसके बारे में ज्यादा कुछ नहीं कर सकते हैं, क्योंकि पाकिस्तानी सेना ने बांग्लादेश में संयुक्त कमान के सामने आत्मसमर्पण किया था… इसलिए, बांग्लादेश सरकार को तय करना है कि क्या होना चाहिए और इसके अलावा, युद्ध अपराध के मुक़दमे चलाना जिनेवा कन्वेंशन के ख़िलाफ़ नहीं है.”
दूसरी ओर, भारत की इच्छा के विपरीत, शिमला शिखर सम्मेलन और जो समझौता हुआ था, वह पाकिस्तान के लिए अपेक्षा से अधिक लाभकारी था. इस समझौते के तहत पाकिस्तान की 5 हज़ार वर्ग मील ज़मीन जो भारत के क़ब्ज़े में थी उस साल के अंत तक वापस कर दी गई.
मशहूर शोधकर्ता फ़रज़ाना शेख ने अपने एक शोधपत्र ‘ज़ुल्फ़िक़ार अली भुट्टो: इन परस्यूट ऑफ एशियन पाकिस्तान’ में लिखा है कि भुट्टो ने बांग्लादेश को मान्यता दिए बिना या पकिस्तान के सैनिकों पर युद्ध अपराधों के मुकदमें चलाने के लिए राज़ी हुए बग़ैर भारत से शांति का वादा हासिल किया था. इसी समझौते ने पाकिस्तानी क़ैदियों का भारत से रिहाई का मार्ग प्रशस्त किया था.
बेनज़ीर भुट्टो का अपने पिता से सवाल
‘डॉटर ऑफ़ द ईस्ट’ नामक किताब में, बेनज़ीर ने एक दृश्य का वर्णन किया है, जहां भुट्टो समझौते पर हस्ताक्षर करने के बाद अपने कमरे में दाख़िल होते हैं और वो उनसे पूछती हैं, कि उन्होंने युद्ध बंदियों के बजाय युद्ध में हारे हुए क्षेत्र की वापसी को क्यों प्राथमिकता दी? बेनजीर भुट्टो लिखती हैं कि वह हैरान थीं, क्योंकि युद्धबंदियों के परिवार उनकी वापसी का इंतजार कर रहे थे. ज़ुल्फिक़ार अली भुट्टो ने अपनी बेटी को जवाब दिया कि भारतीय प्रधानमंत्री ने युद्धबंदियों या क्षेत्र में से किसी एक को वापस करने की पेशकश की थी.
भुट्टो ने कहा कि उन्होंने क़ब्ज़े वाले क्षेत्र की मांग की, क्योंकि युद्धबंदी एक मानवीय मुद्दा है. उन्हें हमेशा के लिए नहीं रखा जा सकता था. अंतरराष्ट्रीय जनमत भारत को उन्हें पाकिस्तान वापस भेजने के लिए मजबूर करेगा. दूसरी ओर, क्षेत्र कोई मानवीय मुद्दा नहीं है. इसे एकीकृत किया जा सकता है.
भुट्टो ने फ़लस्तीन की ज़मीन का उदाहरण दिया जो इतने वर्षों के बाद भी वापस नहीं हुई थी. पाकिस्तान लौटने पर, उन्होंने अपने शुरुआती भाषणों में घोषणा की कि पांच साल से अरब अपनी ज़मीन वापस लेने की कोशिश कर रहे हैं. “मुझे मेरी ये ज़मीन पांच महीने से भी कम समय में मिल गई है.” (इस्राइल ने 1967 में पश्चिमी जॉर्डन पर क़ब्ज़ा किया था, यह क्षेत्र आज तक इसराइल के क़ब्ज़े में है).
कश्मीर का नया संवैधानिक दर्जा और शिमला समझौता
सवाल यह है कि इस समझौते के नतीजे में भुट्टो की कूटनीति से पाकिस्तान को क्या फ़ायदा हुआ और इस समझौते के कारण इंदिरा गांधी को आज भी आलोचना का सामना क्यों करना पड़ता है.
पाकिस्तान में विश्लेषकों के अनुसार, शिमला समझौता दोनों देशों को बाध्य करता है, कि वो संयुक्त राष्ट्र के सिद्धांतों और नियमों के अनुसार द्विपक्षीय रूप से अपने विवादों को शांतिपूर्ण तरीकों और बातचीत के माध्यम से हल करें. इस संदर्भ में, 5 अगस्त, 2019 को भारत द्वारा विवादित राज्य जम्मू-कश्मीर की संवैधानिक स्थिति में परिवर्तन एक तरफ़ा क़दम है, जो शिमला समझौते का खुले तौर पर उल्लंघन है.
शिमला समझौते में विवादों को द्विपक्षीय वार्ता के ज़रिये (बाइलिटरल मैकेनिज़्म) के माध्यम से हल करने पर ज़ोर दिया गया है. इस अनुच्छेद की व्याख्या करते हुए, भारत यह अर्थ निकालता है कि द्विपक्षीय वार्ता का मतलब है कि अब किसी भी अन्य पक्ष की, यहां तक कि संयुक्त राष्ट्र की भी, दोनों देशों के बीच विवादों को सुलझाने में कोई भूमिका नहीं है.
इसके विपरीत, शिमला समझौते के उसी अनुच्छेद की व्याख्या करते हुए, पाकिस्तान का कहना है, कि यह समझौता संयुक्त राष्ट्र के चार्टर और नियमों का पालन करने के लिए बाध्य है और उन्हीं के अनुसार इसे अपने विवादों का निपटारा करना होगा. इस संबंध में, इस्लामाबाद में शिमला समझौते को आज भी एक प्रामाणिक और प्रभावी समझौते के रूप में स्वीकार किया जाता है और यह जोर दिया जाता है कि शिमला समझौता द्विपक्षीय विवाद में संयुक्त राष्ट्र की भूमिका को समाप्त नहीं कर सकता है.
हालांकि, कुछ विश्लेषक अब शिमला समझौते को एक ‘बेकार दस्तावेज़’ कहते हैं.
शिमला समझौते पर भुट्टो और गांधी के विचार
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भुट्टो ने शिमला समझौते में अपनी सफलता के लिए जो भी क़दम उठाए, चाहे पर्यवेक्षकों और लेखकों ने इसे उनका ‘चालाक या कूटनीतिक हुनर’ कहा हो, उनके समर्थकों ने इसे उनके पाकिस्तानी राष्ट्रवाद का उदाहरण बताया है. वह पूर्वी पाकिस्तान में सैन्य हार को कूटनीतिक टेबल पर अपने देश के लिए जीत में बदलना चाहता थे. इसीलिए भुट्टो ने अमेरिका की एक पत्रिका ‘फॉरेन अफेयर्स’ के अप्रैल 1973 के अंक में अपने एक लेख में लिखा था:
“पाकिस्तान निस्संदेह एक आक्रमण का शिकार हुआ था. इसका पूर्वी भाग भारतीय सेना ने अपने क़ब्ज़े में ले लिया था. ये वो सच्चाई थी, जिसकी वजह से हमारे लोगों को क़िस्मत के लिखे के साथ समझौता करना मुश्किल था. वो समझते थे कि यह आक्रामकता की एक अलग घटना नहीं थी. इसके विपरीत, ये दोनों महज़ संप्रभुता और स्वतंत्र राज्यों की स्थापना के बाद से ही, भारत की तरफ़ से पाकिस्तान के ख़िलाफ़ दुश्मनी और आक्रामक कार्रवाइयों के एक लंबे सिलसिले का हिस्सा था.”
दूसरी ओर, जब भारत की लोकसभा में इंदिरा गांधी पर विपक्ष की तरफ से आलोचना करने वालों ने ये शिकायत की, कि वह पाकिस्तान के साथ इतनी नरमी से क्यों पेश आई, तो उन्होंने कहा, था कि “अगर यूरोपीय देश जर्मनी के साथ प्रथम विश्व युद्ध के बाद वैसा व्यवहार करते जैसा भारत ने पाकिस्तान के साथ (शिमला समझौते में) किया तो हिटलर न पैदा होता और न द्वितीय विश्वयुद्ध होता.”
(यह लेख 6 जुलाई 2021 को प्रकाशित हुआ था )
बीबीसी के लिए कलेक्टिव न्यूज़रूम की ओर से प्रकाशित