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एक आम इंसान जब दुख-दर्द से टूट जाता है, उसको कोई राह नहीं सूझती तो वह एक ऐसे उजाले की तरफ देखता है, एक ऐसी राह तलाशता है जो उसके जीवन को व्यथाओं-वेदनाओं से उबार दे.
शैलेंद्र के गीत यही काम करते हैं. उनके गीत अंधेरों की सिर्फ़ बात नहीं करते, उजाले की ओर चलने की राह भी दिखाते हैं. उनके गीतों में सिर्फ़ दुख-दर्द का बखान भर नहीं है. उनसे पार पाने की शक्ति है, भरोसा है और राह भी.
उनका जीवन स्वयं व्यथा से भरा था. भूख, गरीबी, लाचारी, सामाजिक भेदभाव, क्या-क्या नहीं झेला था उन्होंने, लेकिन वे टूटे नहीं. जिस हौसले और उम्मीद के साथ वह इससे पार पाते हैं, वही चीज़ें तो उन्होंने अपने गीतों में लाखों करोड़ों लोगों को दिया.
उनके गीतों में विविधता है तो एक कंट्रास्ट भी है. कभी धूप- कभी छांव, कभी सुख- कभी दुख, कभी प्रेम- कभी वियोग, कभी जीवन तो कभी मरण.
शैलेंद्र के गीतों की सूची लंबी है. सैकड़ों गीत, हर गीत एक हीरा, हर गीत आपके जीवन में कहीं न कहीं जुड़ा हुआ.
ऐसे ही गीतों के सागर में से कुछ मोती चुनकर उस कंट्रास्ट को तलाशते हैं जो शैलेंद्र ने गीतों के माध्यम से इस दुनिया को दिया है.
आवारा और श्री 420
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आवारा शब्द सुनते ही हमारे मन में एक नकारात्मक छवि बनने लगती है.
आवारा यानी बेकार, बेघर, समाज की नज़रों में तिरस्कृत. लेकिन शैलेंद्र के शब्दों में वह खूबी है जो आवारा को भी सबका चहेता बना देते हैं.
आवारा फ़िल्म के शीर्षक गीत- आवारा हूं, आवारा हूं या गर्दिश में हूं आसमान का तारा हूं… के इस अंतरे को देखिए-
घर बार नहीं, संसार नहीं, मुझसे किसी को प्यार नहीं
उस पार किसी से मिलने का इक़रार नहीं, मुझसे किसी को प्यार नहीं
सुनसान नगर अनजान डगर का प्यारा हूं…
यह जो आवारा है, गर्दिश में है लेकिन वह अपने आप को आसमान का तारा समझता है. इसी लाइन से इस आवारा के प्रति सहानुभूति होने लगती है.
ये एक आवारा के शब्द नहीं हैं. इस देश-दुनिया में लाखों-करोड़ों आवारा हैं, जो बेघर है, बेसहारा हैं, जो गर्दिश में हैं, जिन्हें कोई नहीं चाहता लेकिन हैं तो वह तारे, भले ही गर्दिश में सही. एक अंतरे में जीवन और समाज के इतने सारे विरोधाभास!
श्री 420 का गीत
दिल का हाल सुने दिल वाला/ सीधी सी बात न मिर्च मसाला,
कह के रहेगा कहने वाला, दिल का हाल सुने दिल वाला…
अगला अंतरा देखें –
छोटे से घर में गरीब का बेटा/ मैं भी हूं मां के नसीब का बेटा,
रंज-ओ-गम बचपन के साथी/ आंधियों में जली जीवन बाती,
धूप ने है बड़े प्यार से पाला, दिल का हाल सुने दिल वाला.
सामाजिक चलन के मुताबिक नसीब वाला तो वह होता है जो अमीर के घर में पैदा हो. भला गरीब के घर में पैदा होने वाला कैसे नसीब का बेटा हो गया! दुख दर्द जिसके बचपन के साथी हों, धूप ने जिसे पाला हो. धूप और गरीबी में पला छोटे घर का बेटा भले किसी के लिए कुछ न हो लेकिन एक मां के लिए तो वह नसीब का बेटा ही है.
शैलेंद्र यहां कुछ कह रहे हैं. धूप, गरीबी, छोटा घर, आंधियों में पलने वाले के हौसले कितने बुलंद हैं! यह दुनिया नहीं जानती. उसको कमतर न आंकें.
जीवन दर्शन के गीत

सीमा फिल्म के तो सभी गीतों में जीवन दर्शन समाया है. हर गीत में किरदारों के बहाने शैलेंद्र उस कंट्रास्ट को सामने लाते हैं जो सिर्फ़ महसूस किया जा सकता है.
घायल मन का पागल पंछी उड़ने को बेकरार,
पंख है कोमल आंख है धुंधली जाना है सागर पार,
अब तू ही इसे समझा राह भूले थे कहां से हम,
तू प्यार का सागर है तेरी इक बूंद के प्यासे हम…
धुंधली आंखों, कोमल पंख वाले घायल मन मगर उड़ने को बेकरार पागल पंछी को उस पार जाना है. अभी इस पंछी के पक्ष में कुछ भी तो नहीं है. बस एक हौसला है उड़ने का. शैलेंद्र जिस पार की बात कर रहे हैं वह आदमी के दुख, बेबसी, मजबूरी से पार पाने की ही तो बात कर रहे हैं! इस गीत के एक और अंतरे को देखें.
इधर झूम के गाए जिंदगी उधर है मौत खड़ी,
कोई क्या जाने कहां है सीमा उलझन आन पड़ी,
कानों में ज़रा कह दे कि आएं कौन दिशा से हम,
तू प्यार का सागर है तेरी एक बूंद के प्यासे हम,
लौटा जो दिया तूने चले जाएंगे जहां से हम
एक गीत में ही जीवन के विविध पक्षों को शैलेंद्र इस खूबी के साथ पिरोते हैं कि गीत पूरा सुनते-सुनते आदमी के हौसले फिर से बुलंद होने लगते हैं. वह फिर उठ खड़ा होता है उस पार जाने के लिए. इस पार तो सारे दुख दर्द ही हैं!
हर लड़की के सपनों और आज़ादी का प्रतीक गीत

गाइड फ़िल्म का तो कथानक ही ऐसा है जिसे भारतीय जनमानस को समझने और स्वीकार करने में समय लगा. हां, शैलेंद्र के गीत गाइड और उसकी नायिका के बीच उपस्थित विरोधाभास को इस खूबी के साथ व्यक्त करते हैं कि ये आज तक अनगिनत लोगों के मन की अभिव्यक्ति बने हुए हैं.
कांटों से खींच के यह आंचल तोड़ के बंधन बांधी पायल,
कोई न रोको दिल की उड़ान को दिल वह चला…,
आज फिर जीने की तमन्ना है आज फिर मरने का इरादा है,
अपने ही बस में नहीं मैं दिल है कहीं तो हूं कहीं मैं.
जाने क्या पाके मेरी जिंदगी ने हंसकर कहा,
मैं हूं गुबार या तूफान हूं कोई बताए मैं कहां हूं…
लोक-लाज और तमाम सामाजिक बंधनों को छोड़कर, कांटों भरी ज़िंदगी से अपनी आज़ादी का आंचल खींचकर नायिका इतनी खुश है कि वह जीने और मरने के बीच का भेद तक भूल गई है. एक पल को जीना चाहती है तो दूसरे पल मरने से अब उसे कोई फर्क नहीं पड़ने वाला.
ऐसा शैलेंद्र ही लिख सकते हैं. हर लड़की के सपनों और आज़ादी का प्रतीक बन गया है यह गीत. इसी फिल्म के इस गीत में वह जीवन के दूसरे फ़लसफे की बात करते हैं-
कोई भी तेरी राह न देखे नैन बिछाए न कोई,
दर्द से तेरे कोई न तड़पा आंख किसी की न रोई,
कहे किसी को तू मेरा मुसाफिर जाएगा कहां,
दम ले ले घड़ी भर यह ठियां पाएगा कहां.
बंदिनी फ़िल्म का यह गीत पूरी फ़िल्म के संदेश को चंद लाइनों में ही बयां कर देता है. यह गीत एक किरदार की अभिव्यक्ति से परे हम-सबको एक संदेश भी देता है.
ओ रे माझी! ओ रे माझी! ओ ओ मेरे माझी!
मेरे साजन हैं उस पार, मैं मन मार, हूं इस पार,
ओ मेरे माझी, अबकी बार, ले चल पार, ले चल पार
मेरे साजन हैं उस पार…
मत खेल जल जाएगी कहती है आग मेरे मन की,
मैं बंदिनी पिया की मैं संगिनी हूं साजन की,
मेरा खींचती है आंचल मनमीत तेरी हर पुकार.
एक दर्शन छुपा होता है गीतों में
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जीवन एक उलटबांसी है. खाली शब्दों के अर्थ समझने से समझ में नहीं आएगी. किसी की समझ में थोड़ी आएगी तो किसी की समझ में बिल्कुल भी नहीं आएगी. ऐसी ही है दुनिया किसी के लिए अच्छी किसी के लिए बुरी. जीवन की तरह किसी के लिए वरदान तो किसी के लिए अभिशाप.
सूरज ज़रा आ पास आ, आज सपनों की रोटी पकाएंगे हम,
ए आसमां तू बड़ा मेहरबान आज तुझको भी दावत खिलाएंगे हम,
चूल्हा है ठंडा पड़ा और पेट में आग है, गरमा गरम रोटियां कितना हंसी ख्वाब है,
आलू टमाटर का साग, इमली की चटनी बने, रोटी करारी सिके उस पर घी असली लगे.
ऊपर के इस एक अंतरे में ही इतने कंट्रास्ट हैं कि चकरा जाते हैं कि कौन सा पहले समझें! आसमान को दावत खिलाने की हिम्मत या ठंडे चूल्हे और पेट की आग को? गरमा गरम रोटियों के ख्वाब को या आलू-टमाटर के साग और करारी रोटियों पर लगे घी की कामना को. चटनी-साग और रोटी से दूर रहने वाला आसमान और सूरज को निमंत्रण दिलाना. ऐसा विरोधाभास शैलेंद्र ही पैदा कर सकते हैं.
उनके गीतों में फ़िल्म के किरदार तो बोलते ही हैं ,एक दर्शन भी छुपा होता है . ऐसा दर्शन जिसे समझने के लिए किसी विद्वान की ज़रूरत नहीं. साधारण शब्दों में असाधारण बात कह देना उनके लिए बड़ा सहज है. तीसरी कसम का यह गीत तो कालजयी बन चुका है. इतने सरल शब्दों में जीवन-सार समझा देना कबीर की याद दिला देता है.
सजन रे झूठ मत बोलो खुदा के पास जाना है
ना हाथी है ना घोड़ा है वहां पैदल ही जाना है
तुम्हारे महल चौबारे यही रह जाएंगे सारे
अकड़ किस बात की प्यारी ये सर फिर भी झुकाना है
भला कीजे भला होगा बड़ा कीजे बुरा होगा बही लिख लिख के क्या होगा
यही सब कुछ चुकाना है, सजन रे झूठ मत बोलो खुदा के पास जाना है.
जीवन एक सफर है और ये दुनिया एक सराय. सभी को जाना ख़ुदा के पास ही है. वह भी खाली हाथ. न हाथी होगा न घोड़े होंगे. बस पैदल ही जाना है.
शैलेंद्र भी अपने जीवन के सबसे बड़े सपने यानी तीसरी कसम की नाकामी से ऐसे टूटे कि सबको चौंकाते हुए 14 दिसंबर 1966 को इस दुनिया से असमय ही चले गए और हमारे लिए अपने गीतों का ऐसा ख़जाना छोड़ गए जो जीवन के दो एक्स्ट्रीम छोरों की बानग़ी से हमें रूबरू कराते रहते हैं.
(जयसिंह फिल्म-समीक्षक और स्तंभकार हैं. शैलेंद्र पर उनकी एक किताब सजनवा बैरी हो गये हमार प्रकाशित हो चुकी है.)
बीबीसी के लिए कलेक्टिव न्यूज़रूम की ओर से प्रकाशित.