1970 का दशक था. हिंदी सिनेमा में गीत-संगीत और रोमांटिक कहानियों वाले सुपर स्टार राजेश खन्ना के दौर को चुनौती देने एंग्री यंग मैन आ चुका था.
मगर उसका ग़ुस्सा भी यथार्थ से ज़रा दूर, फ़िल्मी ही था. ये बात आज विचित्र लग सकती है कि विज्ञापन की दुनिया से आए एक फ़िल्मकार ने सिनेमा को केवल विशुद्ध मनोरंजन का साधन मानने से साफ़ इनकार कर दिया.
ये फ़िल्मकार थे श्याम बेनेगल, जिन्होंने फ़िल्मों को समाज को आईना दिखाने और बदलाव लाने के एक माध्यम के रूप में देखा. यही नज़र थी, जिसके साथ श्याम बेनेगल ने 1974 में अपनी पहली फ़िल्म ‘अंकुर’ के साथ मुख्यधारा की मसाला फ़िल्मों के समानांतर एक गाढ़ी लक़ीर खींच दी.
‘अंकुर’ की पटकथा को वो 13 वर्षों से बनाने की कोशिश कर रहे थे लेकिन कोई उसमें दिलचस्पी नहीं दिखाता था. इसी अंकुर ने हिंदी फिल्मों में एक नई उम्मीद, एक क्रांतिकारी न्यू वेव का आगाज़ किया, जिसे भारतीय फ़िल्म इतिहास में इसे समानांतर सिनेमा कहा गया. इसके अग्रदूत श्याम बेनगल ही थे.
ग्रामीण पृष्ठभूमि पर आधारित ‘अंकुर’ के किरदार यूं तो आंध्र प्रदेश थे लेकिन ये ज़मींदारी प्रथा के ख़त्म होने के बावजूद पूरे समाज में व्याप्त सामंती सोच, जातिगत असमानता और दमन की बात करती थी.
ख़ास बात ये थी कि ‘अंकुर’ को न केवल समीक्षकों की सराहना मिली बल्कि यह व्यावसायिक रूप से भी सफल रही, जिसने साबित किया कि सरोकार वाले सिनेमा को लोग टिकट ख़रीद कर देखने जा सकते हैं बशर्ते वो कहानी उनके दिल को छूए.
श्याम बेनेगल का पूरा सिनेमाई दृष्टिकोण और सामाजिक सरोकार महान फिल्मकार सत्यजीत रे से प्रेरित था. अपने कई इंटरव्यूज़ में बेनेगल ने कबूल किया था कि स्वतंत्र भारत का महानतम फिल्मकार वह सत्यजीत रे को ही मानते थे क्योंकि रे ने देश में ऐसे सिनेमाई मानक स्थापित किए, जिनका यहाँ कोई अस्तित्व था ही नहीं.
समानांतर सिनेमा की अगुआई
अंकुर के बाद ‘निशांत’ और ‘मंथन’ को बेनेगल की ‘अपराइज़िंग ट्रिलजी’ के नाम से जाना जाता है. तीनों ही फ़िल्में ग्रामीण परिवेश और उनके अंदर पनपे नारीवाद के विद्रोह की कहानियां थीं.
निशांत (1975) स्वतंत्रता-पूर्व तेलंगाना की कहानी है, जिसके केंद्न में ग्रामीण अभिजात वर्ग का ज़ुल्म और महिलाओं का यौन शोषण था. एक स्कूल शिक्षक की पत्नी का गांव के चार ताक़तवर लोग बलात्कार करते हैं.
ग़रीबी, वासना, ईर्ष्या, और सामंती क्रूरता को यथार्थवादी दृष्टिकोण के साथ पर्दे पर उकेर कर, बेनेगल ने एक गहरे दृष्टांत के रूप में जीवंत कर दिया. वहीं तीसरी फ़िल्म ‘मंथन’ (1976) के केंद्र में थी, भारत की दूध क्रांति की कहानी.
‘मंथन’ ख़ास तौर से अनूठी थी क्योंकि इसे पाँच लाख किसानों के योगदान से बनाया गया था. किसानों ने दो-दो रुपये का योगदान देकर इस फ़िल्म को मुमकिन बनाया.
यह फ़िल्म न केवल सिनेमा की ताक़त का प्रतीक बनी बल्कि यह भी दिखाया कि कला समाज के साथ कैसे गहराई से जुड़ सकती है. ये तीनों ही फ़िल्में ग्रामीण परिवेश की ऐसी दास्तानें थीं जो आमतौर पर सिनेमा में अनदेखी रहती थीं.
बीबीसी को दिए इंटरव्यू (2009) में बेनेगल ने कहा था, “जब मैंने पहली फीचर फ़िल्म बनाई तो मुझे फ़िल्म निर्माण के तमाम पहलुओं की जानकारी थी. यही वजह थी कि अंकुर बनाने के बाद जब वी शांताराम ने मुझे फोन किया तो पूछा कि ऐसी फ़िल्म कैसे बनाई, अब तक क्या कर रहे थे? फिर मैं राज कपूर से मिला तो उन्होंने मुझसे कहा कि तुमने पहले कभी फ़िल्म नहीं बनाई फिर भी इतनी अच्छी फ़िल्म बना दी. ये कैसे किया?”
मशहूर निर्देशक सुधीर मिश्रा उनका स्मरण करते हुए एक्स पर लिखते हैं, “अगर कोई एक बात है, जिसे श्याम बेनेगल ने सबसे अच्छी तरह से व्यक्त किया है तो वह थी साधारण चेहरे और साधारण जीवन की कविता.”
‘मंथन’ रिलीज़ के 48 साल बाद इसी साल (2024) प्रतिष्ठित कान फ़िल्म फ़ेस्टिवल में दिखाई गई. इसे स्टैंडिंग ओवेशन मिला. ये था उनका जादू. फिल्म में उस दौर के ग्रामीण कम दाम पर दूध बेचने को मजबूर हैं, जिस तरह आज भी किसान अपने हक़ के लिए लड़ रहा है. यही ख़ूबी है कि श्याम बेनेगल की फिल्मों की प्रासंगिकता पांच दशक बाद भी बरक़रार है.
श्याम बेनेगल को श्रद्धांजलि देते हुए फ़िल्मकार शेखर कपूर ने एक्स पर लिखा, “उन्होंने सिनेमा की ‘नई लहर’ की बुनियाद रखी. श्याम बेनेगल को हमेशा उस व्यक्ति के रूप में याद किया जाएगा, जिसने अंकुर, मंथन और अनगिनत अन्य फ़िल्मों के साथ भारतीय सिनेमा की दिशा बदल दी. उन्होंने शबाना आज़मी और स्मिता पाटिल जैसी महान अभिनेत्रियों को स्टार बनाया. अलविदा मेरे मित्र और मार्गदर्शक.”
14 दिसंबर 1934 को हैदराबाद, निज़ाम के राज्य में जन्मे श्याम बेनेगल का बचपन एक साहित्यिक और सांस्कृतिक माहौल में बीता. वह मशहूर फ़िल्मकार गुरुदत्त के कज़िन थे.
2009 में बीबीसी को दिए एक इंटरव्यू में श्याम बेनेगल ने बताया था,”जब मैं बच्चा था तो तब ये निजाम का हैदराबाद था. जब कुछ बड़ा हुआ तो ये भारत का हिस्सा बना. मैंने कई ऐतिहासिक बदलाव देखे हैं. एक बात और कि हैदराबाद शहर में सामंतवादी राज था लेकिन जहाँ हम रहते थे वो छावनी क्षेत्र था. छावनी की सोच एकदम अलग थी. मैं हैदराबाद के पहले अंग्रेजी स्कूल महबूब कॉलेज हाई स्कूल में पढ़ा. मेरे पिता फोटोग्राफर थे. वैसे तो वो कलाकार थे लेकिन जीविकोपार्जन के लिए उनका स्टूडियो था.”
रचनात्मकता उन्हें अपने पिता से मिली. बतौर कॉपी राइटर करियर की शुरुआत करने वाले बेनेगल ने पहले एक दशक तक सैकड़ों विज्ञापनों का निर्देशन किया. लेकिन वो यथार्थवादी फिल्में बनाना चाहते थे, जो सोचने पर मजबूर करें.
समाज के निचले तबके के दर्द और संघर्ष को आवाज़ देना और साथ ही उनके स्वाभिमान और मानवीय गरिमा को बरकरार रखना. समानांतर सिनेमा के अन्य स्तंभों के साथ मिलकर एक ऐसा आंदोलन खड़ा किया और सत्यजीत रे, मृणाल सेन, ऋत्विक घटक और गोविंद निहलानी जैसे निर्देशकों के साथ भारतीय सिनेमा को अंतरराष्ट्रीय पहचान पहचान दिलाई.
श्याम बाबू के नाम से विख्यात बेनेगल का अंदाज़ जुदा था. व्यावसायिक सिनेमा के अपने बड़े स्टार्स थे, श्याम बेनेगल ने यहाँ भी समानांतर टीम खड़ी कर दी. ‘अंकुर’ के साथ हिंदी सिनेमा की एक बेमिसाल नायिका शबाना आज़मी ने बिल्कुल बिना मेकअप के फिल्मों में आग़ाज़ किया.
आगे भी मुख्य रूप से एफटीआईआई और एनएसडी से कई नए अभिनेताओं को सशक्त पहचान दी. इनमें नसीरुद्दीन शाह, ओम पुरी,स्मिता पाटिल, कुलभूषण खरबंदा और अमरीश पुरी जैसे शानदार कलाकार प्रमुख थे.
बाद की फ़िल्मों में उन्होंने व्यावसायिक फिल्मों के कलाकारों को भी यादगार रोल दिए. चाहे वो शशि कपूर (जुनून) हों, रेखा (कलयुग) या फिर करिश्मा कपूर (ज़ुबैदा).
यथास्थिति को चुनौती देने वाली फ़िल्में
ग्रामीण उत्पीड़न की उनकी शुरुआती तीनों ही क्रांतिकारी फ़िल्मों ने कई राष्ट्रीय पुरस्कार जीते और अंतरराष्ट्रीय मंचों पर भी ज़बरदस्त धमक दी. इसके बाद बेनेगल ने अपनी इंडस्ट्री यानी फिल्म इंडस्ट्री पर नज़र जमाई.
अगली फ़िल्म ‘भूमिका’ (1977), 1940 के दशक की मशहूर मराठी अभिनेत्री हंसा वाडकर के जीवन से प्रेरित थी. लेकिन एक फ़िल्म अभिनेत्री की कहानी में भी बेनेगल का फोकस साफ़ था.
ये एक महिला की आत्मखोज की यात्रा की कहानी थी, जिसका किरदार अंत तक आते-आते नारीवाद और आत्मसम्मान के लिए लड़ाई का प्रतीक बनता है. पर्दे पर नज़र आने वाले सिनेमाई भ्रम की परतें बेनेगल और स्मिता पाटिल ने उधेड़ कर रख दीं.
1980 तक आते-आते बॉलीवुड के मशहूर अभिनेता शशि कपूर का मसाला फ़िल्मों से मोहभंग हो चुका था. वो सार्थक फिल्में बनाना चाहते थे. बेनेगल की शुरुआती चार फ़िल्मों से प्रभावित होकर शशि कपूर बेनेगल के साथ हो लिए.
उनकी उम्मीद ज़ाया नहीं गई. श्याम बेनेगल निर्देशित जुनून (1978) और कलयुग (1981) शशि कपूर निर्मित-अभिनीत यादगार फिल्में बनीं. जुनून 1857 के विद्रोह के बीच एक अंतरजातीय प्रेम कहानी थी, वहीं कलयुग (1981) महाभारत पर आधारित एक आधुनिक कहानी.
दोनों ही फ़िल्मों को फ़िल्मफेयर सर्वश्रेष्ठ फ़िल्म पुरस्कार के साथ-साथ राष्ट्रीय पुरस्कार भी मिले. अफसोस कि शशि कपूर के साहस को व्यावसायिक सफलता नहीं मिली. फ़िल्मों से भारी आर्थिक नुक़सान होने के बाद श्याम बेनेगल के साथ उनकी जोड़ी टूट गई.
ये वो समय था जब बॉलीवुड बेतरतीब हिंसात्मक फ़िल्मों की तरफ़ मुड़ने लगा था. मगर श्याम बाबू ने चुभने वाली सामाजिक कहानियों का साथ नहीं छोड़ा. मंडी (1983) के साथ वेश्यावृत्ति और सियासत पर गहरा कटाक्ष किया. वहीं त्रिकाल (1985) में 60 के दशक के गोवा में पुर्तगालियों के आख़िरी दिनों की दास्तान सुनाई.
जब फिल्मों के लिए पैसे कमाना थोड़ा मुश्किल हुआ तो वो टेलीविजन की तरफ़ मुड़े और बना दी ‘भारत एक खोज’ जैसी उत्कृष्ट सिरीज़ जो भारतीय इतिहास और संस्कृति का सबसे विस्तृत सिनेमैटिक रचना मानी जाती है. अपने गुरु महान फ़िल्मकार सत्यजीत रे के जीवन पर आधारित एक वृत्तचित्र का निर्माण भी किया.
90 के दशक में वो साहित्य की तरफ़ मुड़े और धर्मवीर भारती के उपन्यास पर आधारित ‘सूरज का सातवां घोड़ा’ बनाई. इसके बाद महात्मा गांधी और सुभाष चंद्र बोस पर यादगार फ़िल्मों का निर्देशन किया.
समर (1999) में भारतीय जाति व्यवस्था पर कटाक्ष किया. ये सारी फिल्में अवॉर्ड्स की झड़ी लगाती रहीं. बॉलीवुड आगे बढ़ चुका था लेकिन श्याम बाबू ज़िम्मेदारी से अपना काम करते रहे और अर्थपूर्ण काम करने की तमन्ना रखने वाले फ़िल्मकारों को प्रेरित करते रहे.
उन्हें याद करते हुए हंसल मेहता ने कहा, “अलविदा श्याम बाबू. मेरे जैसे कई लोगों को प्रेरित करने के लिए धन्यवाद. सिनेमा के लिए धन्यवाद. कठिन कहानियां और ग़लतियों से भरे किरदारों को इतनी अद्भुत गरिमा देने के लिए धन्यवाद. वाक़ई हमारे अंतिम महानतम लोगों में से एक.”
लेखक ख़ालिद मोहम्मद की कहानियों पर उनकी चर्चित तीन फ़िल्में- मम्मो, सरदारी बेगम और ज़ुबैदा पिछले फ़िल्मी सफर से अलग थीं.
देश के विभाजन या उससे पहले की ये तीनों कहानियां मध्य वर्गीय मुस्लिम परिवारों की महिलाओं के साहस पर थीं. ऐसी महिलाओं की जो अपनी महत्वाकांक्षाओं के लिए परिवार और समाज से टकराती हैं.
‘वेलकम टू सज्जनपुर’, ‘वेल डन अब्बा’ के बाद उनकी अंतिम फ़िल्म पिछले साल की 2023 की मुजीब: द मेकिंग ऑफ ए नेशन थी. सैकड़ों राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय पुरस्कारों से नवाज़े जाने वाले श्याम बाबू को पद्म श्री और पद्म भूषण के अलावा 2005 में भारतीय सिनेमा के सर्वोच्च सम्मान दादा साहब फाल्के पुरस्कार से भी सम्मानित किया गया.
मशहूर गीतकार और निर्देशक वरुण ग्रोवर ने उन्हें याद करते हुए एक्स पर लिखा, “दिल से नेहरू-गांधी के मूल्यों वाले लेकिन पूरे शरीर में आंबेडकर-भगत सिंह का रोष भी संभाले हुए. उस देश में जहाँ अच्छे अच्छे निर्देशक दस-पंद्रह साल में या तो अपना नज़रिया खो देते हैं या सफलता के नक़ली मापदंड उनकी जेब काट के उसमें संजो के रखी उनकी आवाज़ चुरा लेते हैं.”
”श्याम बाबू तीन दशक तक ना सिर्फ़ सजग रहे बल्कि हर रस, हर भाव की कहानियां निडर होकर कहते रहे. सौभाग्य हमारा जो उनका जीवन, उनकी अंतर-ज्योत उन्हें सिनेमा की तरफ़ लाई. नमन.”
मशहूर अभिनेत्री रेखा और गुरु दत्त पर पर अपनी किताब लिखने के दौरान श्याम बाबू के इंटरव्यू करने का अवसर मिला. उन्होंने रेखा के साथ फ़िल्म कलयुग बनाई थी. लेकिन उन्होंने मुझे बताया कि कलयुग के निर्माण से वर्षों पहले रेखा, जब 16 साल की उम्र में इंडस्ट्री में आई थीं तो श्याम बेनेगल ने उन्हे लेकर गोल्ड स्पॉट नामक सॉफ्टड्रिंक के विज्ञापन बनाए थे.”
”उन विज्ञापनों की एक कॉपी उन्होंने मेरे लिए सहेज कर रखी थी. उनकी सादगी कमाल की थी. मैंने पूछा कि अपनी फ़िल्मों में उनकी पसंदीदा कौन सी है? उनका जवाब था- अब पिछली सभी फिल्मों में कमियां नज़र आती हैं. अगली फ़िल्म में कोशिश करूंगा कि ग़लती कम से कम हो. ये था उनका बड़प्पन.”
उनके साथ शुरुआत करने वाले फ़िल्मकार जहाँ अपनी प्रासंगिकता खोते गए, श्याम बेनेगल तकरीबन 50 साल तक पर्दे पर वास्तविक सपने रचते रहे. रोमांस से लेकर एक्शन तक, बच्चन से लेकर ख़ानों तक पर्दे के हीरो बदलते रहे मगर श्याम बाबू की सामाजिक प्रतिबद्धता नहीं बदली. वह सिनेमा के आंदोलन थे, प्रेरणा थे, एक पूरा युग थे. उन्हें हमारा सलाम.
बीबीसी के लिए कलेक्टिव न्यूज़रूम की ओर से प्रकाशित.