इस साल कान फ़िल्म फ़ेस्टिवल में जब श्याम बेनेगल की फ़िल्म ‘मंथन’ की स्क्रीनिंग हुई तो भारत में इस फ़िल्म पर चर्चा फिर से तेज़ हो गई.
ये फ़िल्म इस मामले में भी अलग थी कि इस फ़िल्म को पांच लाख किसानों ने मिलकर फ़ाइनेंस किया था.
‘मंथन’ समेत कई सामाजिक सरोकार वाली फ़िल्में बनाने के लिए मशहूर इस निर्देशक का निधन मुंबई के वॉकहार्ट अस्पताल में सोमवार शाम को हो गया.
‘अंकुर’, ‘निशांत’, ‘मंथन’, ‘भूमिका’ और ‘मंडी’ फ़िल्मों का निर्देशन करने वाले बेनेगल 70-80 के दशक में पैरेलल सिनेमा मूवमेंट के दिग्गज माने जाते हैं.
उन्हें पद्मश्री और पद्मभूषण सम्मानों से भी नवाज़ा गया था.
निर्देशक के निधन पर कई कलाकारों ने दी श्रद्धांजलि
निर्देशक शेखर कपूर ने एक्स पर लिखा कि वो ‘न्यू वेव’ के सूत्रधार रहे.
उन्होंने लिखा, ” श्याम बेनेगल को हमेशा ऐसे व्यक्ति के रूप में याद किया जाएगा जिसने ‘अंकुर, ‘मंथन’ और ऐसी अन्य फ़िल्मों के निर्देशन से भारतीय सिनेमा की दिशा बदल दी. उन्होंने शबाना आज़मी और स्मिता पाटिल जैसे कलाकारों को स्टार बनाया. अलविदा मेरे दोस्त और मेरे मार्गदर्शक”
निर्देशक सुधीर मिश्रा ने लिखा, “अगर श्याम बेनेगल ने किसी एक चीज़ को स्क्रीन पर जीवतंता प्रदान की तो वो है-आम लोगों की ज़िंदगी और आम लोगों के चेहरे को कविता की तरह व्यक्त करना.”
पश्चिम बंगाल की सीएम ममता बनर्जी ने भी उनके निधन पर दुख प्रकट किया है.
उन्होंने एक्स पर लिखा, “भारतीय समानांतर सिनेमा के एक स्तंभ, हमारे प्रतीक फिल्मकार श्याम बेनेगल के निधन से गहरा दुख हुआ. उन्हें सभी सिनेमाप्रेमियों ने प्यार और सम्मान दिया. मेरी संवेदनाएं उनके परिवार, दोस्तों और समर्थकों के साथ हैं.”
कांग्रेस अध्यक्ष मल्लिकार्जुन खड़गे ने भी फ़िल्म निर्देशक के निधन पर शोक जताया है.
बीबीसी के साथ एक मुलाक़ात में श्याम बेनेगल
बीबीसी के साथ साल 2009 में ‘एक मुलाक़ात’ कार्यक्रम में श्याम बेनेगल ने विस्तार से बात की थी.
उन्होंने बताया था कि उनका जन्म हैदराबाद में हुआ था.
“जब मैं बच्चा था तो तब ये निजाम का हैदराबाद था, जब कुछ बड़ा हुआ तो ये भारत का हिस्सा बना. तो मैंने कई ऐतिहासिक बदलाव देखे हैं. एक बात और कि हैदराबाद शहर में सामंतवादी राज या सोच थी, लेकिन जहाँ हम रहते थे वो छावनी क्षेत्र था, जहाँ की सोच एकदम अलग थी.”
“मैं मानता हूँ कि मेरा बचपन बहुत अच्छा बीता. मैं हैदराबाद के पहले अंग्रेजी स्कूल महबूब कॉलेज हाईस्कूल में पढ़ा. मेरे पिता फोटोग्राफर थे. वैसे तो वो कलाकार थे, लेकिन जीविकोपार्जन के लिए उनका स्टूडियो था.”
“ये बहुत पुरानी बात है. मैं तब छह-सात साल का था. हम सिकंदराबाद सैन्य छावनी में रहते थे. वहाँ एक गैरीसन सिनेमा था. मैंने जब पहली बार फ़िल्म देखी तो इस क़दर सम्मोहित हो गया कि लगा कि दूसरी दुनिया में ही आ गया हूँ. मेरे ख़्याल से वो कोई अंग्रेजी फ़िल्म ‘कैट पीपुल’ थी. वो हॉरर फ़िल्म थी. ऑडियो-वीडियो माध्यम से आप कुछ ऐसा कर सकते हैं जो असली दुनिया से हटकर हो. फ़िल्मों की इस ख़ासियत ने मुझे आकर्षित किया था.”
“सबसे पहले मैंने विज्ञापन एजेंसी में काम किया. बंबई आने के बाद मैंने कॉपी एडीटर के रूप में काम शुरू किया. पहले साल में ही मैंने हिंदुस्तान लीवर के लिए एक विज्ञापन लिखा था और इसे राष्ट्रपति पुरस्कार मिला. छह महीने बाद ही मैं विज्ञापन फ़िल्में भी बनाने लगा और 1000 से ज़्यादा विज्ञापन फ़िल्में भी बना दी. तो सीखने के लिहाज से ये मेरे लिए बहुत अच्छा रहा.”
“जब मैंने अपनी पहली फीचर फ़िल्म बनाई तो मुझे फ़िल्म निर्माण के तमाम पहलुओं की जानकारी थी. यही वजह थी कि अंकुर बनाने के बाद जब वी शांताराम ने मुझे फोन किया तो पूछा कि ऐसी फ़िल्म कैसे बनाई, अब तक क्या कर रहे थे. फिर मैं राजकपूर से मिला तो उन्होंने मुझसे कहा कि तुमने पहले कभी फ़िल्म नहीं बनाई फिर भी इतनी अच्छी फ़िल्म बना दी. ये कैसे किया.”
समानांतर सिनेमा का पिता कहे जाने पर दिया ये जवाब
इसी मुलाक़ात में उनसे समानांतर सिनेमा पर भी बात हुई थी. इस दौरान उनसे पूछा गया
“आपको समानांतर सिनेमा का पिता कहा जाता है, कैसा लगता है आपको?”
असल में किसी ने अपनी सहूलियत के लिए ‘समानांतर सिनेमा’ के शब्द की रचना की है. मतलब ये कि इसे इस रूप में दिखाया जाता है कि ये मुख्य सिनेमा से हटकर है. या फिर ये बताने की कोशिश होती है कि इस तरह की फ़िल्मों से मनोरंजन नहीं होता. तो मैं इस तरह के शब्दों से कभी सहमत नहीं रहा.
इतना है कि हर फ़िल्म निर्माता अपने तरीक़े से फ़िल्म बनाता है. मुझे लगता था कि आम तौर पर जो फ़िल्में बनती थी वो एक ही ढर्रे पर थी और कुछ इसमें अलग करने का स्कोप नहीं था.
बीबीसी के लिए कलेक्टिव न्यूज़रूम की ओर से प्रकाशित