अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप ने सोमवार को कहा है कि वह फिर से पहला विदेशी दौरा सऊदी अरब का कर सकते हैं, लेकिन इसकी क़ीमत देनी होगी.
दरअसल, 2017 में डोनाल्ड ट्रंप जब पहली बार अमेरिका के राष्ट्रपति बने थे तब ट्रंप ने परंपरा तोड़ते हुए अपना पहला विदेशी दौरा सऊदी अरब का किया था. दरअसल, ट्रंप के पहले लगभग सभी अमेरिकी राष्ट्रपति कनाडा या मेक्सिको को पहले विदेशी दौरे के लिए चुनते आए थे.
ट्रंप ने अपने ओवल ऑफिस में एक रिपोर्टर से कहा कि 2017 में पहले विदेशी दौरे के लिए सऊदी अरब को इसलिए चुना था क्योंकि वहाँ से सैकड़ों अरब डॉलर की बिज़नेस डील हुई थी.
ट्रंप ने कहा, ”सऊदी अरब 450 अरब डॉलर की क़ीमत के अमेरिकी उत्पाद ख़रीदने पर राज़ी हुआ था, इसलिए मैंने पहला दौरा सऊदी अरब का किया था. मैं फिर से सऊदी अरब का पहला दौरा कर सकता हूँ लेकिन उन्हें अमेरिकी उत्पाद ख़रीदने होंगे. अगर सऊदी अरब 450 या 500 अरब डॉलर की बिज़नेस डील के लिए तैयार होता है तो मैं फिर से वहाँ जा सकता हूँ.”
ट्रंप की इस टिप्पणी पर अरब के मीडिया में पूछा जा रहा है कि क्या अमेरिका इस बयान को लेकर गंभीर है? लेकिन एक बात तो स्पष्ट है कि ट्रंप की नीति में अमेरिकी कारोबार और अर्थव्यवस्था सारी चीज़ों से ऊपर है.
अमेरिका और सऊदी अरब के संबंध जो बाइडन के कार्यकाल में बहुत अच्छे नहीं थे. बाइडन ने वॉशिंगटन पोस्ट के स्तंभकार जमाल ख़ाशोज़्ज़ी की हत्या को लेकर सऊदी अरब के क्राउन प्रिंस की आलोचना की थी. दूसरी तरफ़ ट्रंप के कार्यकाल में सऊदी अरब और अमेरिका के संबंधों में गर्मजोशी देखने को मिली थी. ट्रंप के दामाद जैरेड कशनर और सऊदी अरब के क्राउन प्रिंस मोहम्मद बिन सलमान की दोस्ती भी सुर्खियों में रहती थी.
खाड़ी के देशों की नीति अब पहले वाली नहीं रही
जब जमाल ख़ाशोज़्ज़ी की हत्या के बाद सऊदी अरब और अमेरिका के संबंधों में तनाव आया तो जैरेड कशनर के बारे में कहा जाता है कि उन्होंने इसे संभालने में मदद की थी.
सऊदी अरब के विदेश मंत्री प्रिंस फ़ैसल बिन फ़रहान अल-साऊद ने मंगलवार को कहा, ”उन्हें नहीं लगता है कि ट्रंप के कारण इसराइल और ईरान के बीच टकराव बढ़ेगा.”
ग़ज़ा में इसराइल के हमले के बाद से पूरे इलाक़े में युद्ध की आशंका पहले से ही गहराई हुई है.
मंगलवार को दावोस में सऊदी के विदेश मंत्री ने कहा, ”इसराइल और ईरान के बीच युद्ध किसी भी सूरत में रोका जाना चाहिए. मुझे नहीं लगता है कि ट्रंप के कारण ईरान और इसराइल के बीच जंग को हवा मिलेगी. मुझे लगता है कि ट्रंप इस मामले में स्पष्ट हैं कि कोई नई जंग नहीं होगी.”
ट्रंप चाहते हैं कि सऊदी अरब इसराइल से संबंध सामान्य करे यानी दोनों देश एक-दूसरे के यहाँ राजनयिक मिशन खोलें. वहीं सऊदी अरब कहता रहा है कि पहले फ़लस्तीन एक संप्रभु राष्ट्र के रूप में अस्तित्व में आए, जिसकी राजधानी पूर्वी यरूशलम हो और सीमा 1967 से पहले की हो.
ट्रंप ने अपने पहले कार्यकाल में इसराइल से कई इस्लामिक देशों के संबध सामान्य कराए थे. यूएई, बहरीन, सूडान और मोरक्को ने इसराइल से संबंध सामान्य कर लिए थे और इसराइल को एक राष्ट्र के रूप में मान्यता दे दी थी.
दूसरी बार राष्ट्रपति बनने के बाद भी ट्रंप ने कहा है कि सऊदी अरब अब्राहम एकॉर्ड को स्वीकार करेगा.
कहा जा रहा है कि 2021 में ट्रंप के सत्ता से बाहर होने के बाद मध्य-पूर्व बहुत बदल गया है. यानी ट्रंप अरब के देशों को साधने के लिए पुराना तरीक़ा नहीं आज़मा सकते हैं.
सऊदी के तेल की अब ज़रूरत नहीं
इस बार जब ट्रंप को जीत मिली तो इसराइली प्रधानमंत्री बिन्यामिन नेतन्याहू ने उनके स्वागत में कोई कसर नहीं छोड़ी थी. नेतन्याहू ने इस जीत को इसराइल और अमेरिका की दोस्ती की जीत करार दिया था.
खाड़ी के देशों ने भी ट्रंप की जीत का स्वागत किया था. वहीं ईरान ने कहा था कि उसे कोई फ़र्क़ नहीं पड़ता है कि अमेरिका में कौन राष्ट्रपति बन रहा है क्योंकि ईरान और अमेरिका के संबंधों में कोई बदलाव नहीं आएगा.
ट्रंप के पहले कार्यकाल में सऊदी अरब और यूएई यमन में युद्ध में उलझे हुए थे. ऐसे में दोनों देशों के संबंध ईरान से बिगड़े हुए थे. लेकिन अब खाड़ी के देशों ने अपनी विदेश नीति बदल ली है.
अब सैन्य हस्तक्षेप के बदले खाड़ी के ये देश ईरान से वार्ता को प्राथमिकता दे रहे हैं. खाड़ी के ये देश अपने संबंधों को अमेरिका तक ही केंद्रित नहीं रखना चाह रहे हैं बल्कि बहुध्रुवीय दुनिया की वकालत कर रहे हैं. मध्य-पूर्व में अमेरिका की भूमिका को ये देश अब संदेह की नज़रों से देख रहे हैं.
2021 में ट्रंप के सत्ता से बाहर होने के बाद सऊदी और यूएई के संबंध चीन से भी गहरे हुए हैं. ऐसे में ट्रंप के आने के बाद दोनों देशों को चीन और अमेरिका के बीच संतुलन बनाना आसान नहीं होगा.
पिछले कुछ सालों में खाड़ी के तेल उत्पादक देशों ने चीन से कारोबारी और तकनीकी संबंध मज़बूत किए हैं. यूएई तो चीन के दबदबे वाले गुट ब्रिक्स का सदस्य भी बन गया है. सऊदी अरब को भी ब्रिक्स में शामिल होने के लिए आमंत्रित किया गया था लेकिन अभी तक वह सदस्य नहीं बना है. हालांकि सऊदी अरब शंघाई कोऑपरेशन ऑर्गेनाइज़ेशन यानी एससीओ का डायलॉग पार्टनर बन गया है. एससीओ भी चीन के दबदबे वाला गुट है.
ट्रंप के दूसरे कार्यकाल में अमेरिका से संबंध गहरा करने में इसराइल और फ़लस्तीन का सवाल आड़े आएगा. ट्रंप ने माइक हकबी को इसराइल में अमेरिका का नया राजदूत बनाया है. हकबी इसराइल के घोर समर्थक रहे हैं. यहाँ तक कि हकबी फ़लस्तीन के अस्तित्व को भी स्वीकार नहीं करते हैं. लेकिन अब इस सोच के साथ ट्रंप शायद ही इस बार सऊदी अरब का भरोसा हासिल कर पाएंगे.
पिछले दो दशकों में सऊदी अरब और अमेरिका के संबंधों में तेज़ी से बदलाव आए हैं. अब अमेरिका को सऊदी अरब के तेल की ज़रूरत नहीं है. पिछले 40 सालों में सऊदी अरब से कच्चे तेल का आयात 2024 में सबसे कम हो गया. ब्लूमबर्ग के मुताबिक़ अमेरिका ने पिछले साल सऊदी अरब से हर दिन लगभग 277,000 बैरल कच्चा तेल ख़रीदा था जबकि 2003 में अमेरिका सऊदी से 13 लाख बैरल तेल हर दिन ख़रीद रहा था. 2003 की तुलना में सऊदी अरब से अमेरिका के तेल आयात में 85 फ़ीसदी की गिरावट आई है. सऊदी अरब के कच्चे तेल की जगह अब कनाडा के तेल और अमेरिकी शेल ने ले ली है.
2006 में अमेरिका के तत्कालीन राष्ट्रपति जॉर्ज डब्ल्यू बुश ने कहा था कि अमेरिका को सऊदी अरब के तेल की जगह देश में तेल का उत्पादन बढ़ाना चाहिए और बाक़ी के मध्य-पूर्व के देशों से भी तेल आयात करना चाहिए. बुश ने इसके लिए 2025 का लक्ष्य रखा था. बुश की यह बात अब सही साबित होती दिख रही है. ट्रंप भी यह चाहते हैं कि देश में तेल का उत्पादन बढ़े.
अमेरिका और सऊदी के रिश्तों की बुनियाद 1945 में वेलेंटाइन्स डे को रखी गई. इसी दिन अमेरिकी राष्ट्रपति फ़्रैंकलीन डी रूज़वेल्ट और सऊदी अरब के संस्थापक किंग अब्दुल अज़ीज़ इब्न साऊद की मुलाक़ात स्वेज़ नहर में अमेरिकी नेवी के जहाज में हुई थी.
इसी मुलाक़ात में किंग अब्दुल अज़ीज़ अमेरिका को सऊदी का तेल सस्ते में देने पर सहमत हुए थे. इसके बदले में रूज़वेल्ट ने किंग को सऊदी को बाहरी दुश्मनों से बचाने का संकल्प लिया था.
वेलेंटाइन्स डे को दोनों देशों के बीच पनपा यह इश्क सात इसराइली-अरब युद्ध झेल चुका है जबकि दोनों अलग-अलग खेमे में खड़े थे. 1973 के अरब तेल संकट में भी दोनों देशों के इश्क पर आंच नहीं आई.
तेल के बदले सुरक्षा का समीकरण दोनों के बीच इस क़दर मज़बूत रहा है कि उस पर 9/11 के हमलों का भी असर नहीं पड़ा जबकि विमान हाइजैक करने वाले ज़्यादातर लोग सऊदी अरब के नागरिक थे. लेकिन अब ये संबंध बदल रहे हैं. अमेरिका तेल के मामले में आत्मनिर्भर हो रहा है और सऊदी अरब के पास तेल के अलावा देने के लिए कुछ और है नहीं.
बीबीसी के लिए कलेक्टिव न्यूज़रूम की ओर से प्रकाशित.