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सड़क पर दौड़ती मौत! बे’बस होती यात्रियों की सुरक्षा; देश में क्यों बढ़ने लगीं आग की घटनाएं?

Byadmin

Dec 24, 2025


गुरप्रीत चीमा, नई दिल्ली। स्लीपर बसें… छह और आठ लेन के भव्य एक्सप्रेसवे पर दौड़ती ये बसें, आरामदायक नींद भरे सफर का वादा करके टिकट बेचती हैं। लेकिन कई बार यही यात्रा मौत की एक दर्दनाक नींद में बदल जाती है।

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ज़रा सोचिए… वह पीड़ा कितनी असहनीय होती होगी जब—
परदेस में कमाने गया घर का इकलौता बेटा, दिल्ली-एनसीआर में अपने जीवन के सपने संजोए हुए…
किसी कॉलेज में पढ़ने वाली छोटे शहर या कस्बे की बेटी, रिश्तेदार के घर शादी में समय पर पहुंचने की जल्दबाज़ी में…
बस में सफर करता एक पूरा परिवार…
या फिर बैठकर नहीं, लेटकर यात्रा करने के उद्देश्य से स्लीपर बस चुनने वाला कोई बुज़ुर्ग…
अपनी मंज़िल तक पहुंच ही नहीं पाए।
वहीं थम जाता है उनकी ज़िंदगी का सफर, और उनकी राह देखते रह जाते हैं परिवारजन, दोस्त और परिचित।

वजह- लग्ज़री और स्लीपर बसों के नाम पर लालच भरा सफर कराने वाले कुछ चंद लोग।
देश में हुए अनेक हादसे इस कड़वी सच्चाई की गवाही देते हैं।

22 दिसंबर को ही आगरा एक्सप्रेसवे पर नेपाल जा रही बस आग का गोला बन गई, गनीमत रही कि किसी की जान नहीं गई, लेकिन हर बार किस्मत साथ नहीं देती। जैसे 16 दिसंबर को आगरा एक्सप्रेसवे पर ही मथुरा के पास कोहरे के कारण टकराए कई वाहनों में शामिल स्लीपर बसें आग में खाक हो गईं और इसी के साथ हमेशा के लिए 18 जिंदगियों का दीपक भी बुझ गया।

इसके थोड़े ही पहले जैसलमेर से जोधपुर जा रही स्लीपर बस भी आग में घिर गई, जिसमें 26 की जान चली गई। 24 अक्टूबर को आंध्र प्रदेश के कुरनूल में इस तरह की घटना हुई थी जिसमें स्लीपर बस के 20 यात्री फिर कभी नींद से जाग ही नहीं सके।

Fire in sleeper bus

15 मई को उत्तरप्रदेश के लखनऊ में शॉर्ट सर्किट की वजह से बस में लगी आग (फोटो- PTI)

आखिर क्यों यमराज बनकर दौड़ रही हैं ये स्लीपर बसें? कौन है इन घटनाओं का जिम्मेदार? कहां से आया स्लीपर बस का चलन और क्यों फल फूल रहा है मौत का यह धंधा? सवाल जाग रहे हैं… जवाब नींद में हैं…

भारत की सड़कों पर करीब ढाई दशक पहले तक इस तरह की बसें नहीं होती थी। वही सीटों वाली बसें होती थीं जिसमें लोग प्रायः दिन में ही यात्रा करते थे। समय बदला, विकास ने कुलांचें भरीं और गड्ढों भरे व रात में असुरक्षित हो जाने वाले नेशनल व स्टेट हाईवे के स्थान पर दिखने लगे एक्सप्रेसवे…चार, छह, आठ लेन के एक्सप्रेसवे…

रफ्तार ने तेजी पकड़ ली और इसी के साथ तेज हो उठी जल्द एक स्थान से दूसरे स्थान पहुंचने की लालसा… आवश्यकता आविष्कार की जननी है… ये बात स्लीपर बसों के चलन के साथ भी जुड़ी है। जनसंख्या बढ़ी, ट्रेनों में आरक्षित सीट मिलने में कुछ कठिनाई सामने आई तो लोगों की लेटकर, नींद लेते हुए सफर करने की इच्छा को भांपकर कुछ बस ऑपरेटर्स ने स्लीपर बसों का फंडा पेश किया।

एक्सप्रेसवे, हाईवे नए रूप-रंग में आ ही चुके थे तो बस ऑपरेटर के इस फंडे का सुपरहिट होना लाजिमी था ही। दक्षिण भारत से स्लीपर बसों की शुरुआत मानी जाती है जब मैसूर स्टेट रोड ट्रांसपोर्ट कॉरपोरेशन ने करीब छह दशक पहले स्लीपर बस पेश की।

तब से इनकी यात्रा धीमी ही रही, लेकिन नई सदी की शुरुआत के सथ जब एक्सप्रेसवे बने तो स्लीपर बसों की मांग भी बढ़ी और सप्लाई भी। नोएडा, गुरुग्राम, दिल्ली जैसे शहरों में बसे युवाओं को यह खासा भाने लगी। वीकडेज में काम करो और फ्राइडे रात कश्मीरी गेट, अक्षरधाम या फिर परीचौक से स्लीपर बस में सवार हो जाओ। सुबह घर पहुंचने का सपना देखते हुए।

यह तो दिल्ली-एनसीआर भर का उदाहरण है, देश के कई शहरों में इसी तरह का दृश्य आम हो चला है और इसी के साथ बढ़ गया है खतरा इन कथित कस्टमाइज्ड स्लीपर बसों का।

स्लीपर बसों में कस्टमाइजेशन क्यों खतरनाक?

बसों में लगातार आग लगने की घटनाओं में इजाफे के बाद देश में यात्रियों को हर सुविधा मुहैया कराने का दावा करने वाली स्लीपर बसों की कस्टमाइजेशन पर सवाल उठने लगे हैं। दैनिक जागरण ने अपने पाठकों के लिए इस मुद्दे को गहराई से समझने की कोशिश की है। इंडियन इंडस्ट्रीज़ एसोसिएशन के टेक्नोलॉजी चेयरमैन जेड रहमान से बातचीत में कुछ महत्वपूर्ण जानकारियां सामने आईं।

  • उन्होंने बताया कि बसों के कस्टमाइजेशन के दौरान जो वायरिंग की जाती है, वह अक्सर सस्ते और अव्यावसायिक तकनीशियनों से कराई जाती है। इसके कारण सुरक्षा मानकों का उल्लंघन होता है। एक और महत्वपूर्ण बात यह सामने आई कि जब एक बस OEM (Original Equipment Manufacturer) से निकलती है, तो RTO अधिकारी उसकी जांच करते हैं, लेकिन कस्टमाइजेशन के बाद इसकी कोई जांच नहीं होती।
  • इसलिए सरकार को यह सुनिश्चित करने के लिए एक नया नियम लाना चाहिए कि कस्टमाइजेशन के बाद भी बस सभी सुरक्षा मानकों का पालन कर रही है। ऐसा कदम जन सुरक्षा को ध्यान में रखते हुए उठाया जाना चाहिए।
  • क्योंकि बसों में फैंसी लाइटिंग, अवैध चार्जिंग प्वाइंट्स, और इमरजेंसी गेट पर सीट लगाना जैसी कस्टमाइजेशन से बसें असुरक्षित हो जाती हैं।

बसों में आग लगने के क्या कारण हैं?

देश में ऑटोमोबाइल इंडस्ट्री के लिए कई महत्वपूर्ण मानक तय किए गए हैं, जैसे AIS-052 (बस बॉडी कोड), AIS-119 (स्लीपर बस कोड) और AIS-134 (फायर डिटेक्शन एवं सेफ्टी सिस्टम)। इन मानकों का उद्देश्य बसों के निर्माण में गुणवत्ता सुनिश्चित करना और आग जैसी दुर्घटनाओं से यात्रियों की सुरक्षा करना है।

हालांकि, कई प्राइवेट बस ऑपरेटर ‘खासकर स्लीपर बसें’ इन नियमों की अनदेखी कर अपने व्यवसायिक हितों और सुविधानुसार बसों को कस्टमाइज करवा रहे हैं। इसका सीधा और गंभीर परिणाम यह हो रहा है कि बसों में आग लगने की घटनाओं में लगातार इज़ाफा देखा जा रहा है।

इस मुद्दे पर AIM रोड सेफ्टी ट्रेनिंग अकादमी के ट्रेनिंग हेड सुरिंदर शर्मा ने दैनिक जागरण डिजिटल से बातचीत में बताया कि किस तरह निर्धारित मानकों की अनदेखी यात्रियों की सुरक्षा के साथ खुला खिलवाड़ है। उन्होंने इसके पीछे के कुछ प्रमुख कारणों पर भी प्रकाश डाला।

1. अवैध इलेक्ट्रिकल और वायरिंग बदलाव

  • AC, लाइट या पंखे लगाने के लिए नकली या कम क्षमता वाले वायरिंग का इस्तेमाल।
  • इससे शॉर्ट सर्किट का खतरा बढ़ जाता है।
  • मानक (AIS-119, AIS-134) के अनुसार वायरिंग सुरक्षित और टेस्टेड होनी चाहिए।

2. फायर सुरक्षा में खामियां

  • आग बुझाने वाले उपकरणों की कमी: फायर एक्सटिंग्विशर अक्सर कम भरे होते हैं या कुछ तो एक्सपायर हो चुके होते हैं।
  • आसानी से जलने वाली सामग्री का प्रयोग: पर्दे, कंबल, फोम, सीट कवर जैसी फ्लेमेबल सामग्री का अत्यधिक इस्तेमाल।
  • फायर डिटेक्शन सिस्टम की अनदेखी: फायर डिटेक्शन और सप्लेशन सिस्टम (AIS-134) का पूरी तरह से पालन नहीं किया जाता।

3. गेट और इमरजेंसी निकासी में बदलाव

  • कई बसों में इमरजेंसी गेट नहीं होते, या मैन्युअली नहीं खोले जा सकते।
  • शीशों के पास इमरजेंसी में तोड़ने के लिए हथौड़ा नहीं रखा जाता।

4. सीट और लेआउट में अवैध बदलाव

  • यात्रियों की संख्या बढ़ाने के लिए सीटें अतिरिक्त लगाई जाती हैं।
  • एग्जिट एक्सेस रोड ब्लॉक हो जाते हैं।
  • इंजन या मोटर में गैर-मानक पार्ट्स का इस्तेमाल।
  • ड्राइवर सीट या कंट्रोल में बदलाव, जिससे आपातकाल में बस पर नियंत्रण मुश्किल हो जाता है।

5. दस्तावेज़ीकरण और निरीक्षण की कमी

  • 2022–2024 के बीच नियम बदले, जिससे RTO द्वारा भौतिक जांच कम हो गई और केवल सर्टिफिकेट पर भरोसा किया जाने लगा।
  • नियम वापस लेने के बावजूद कई खामियां अब भी नजरअंदाज रहती हैं।

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