हिंदी सिनेमा की हस्तियों के आलीशान बंगलों की कहानियों में आज जो कहानी है, वो इस ख़ास सिरीज़ की पिछली कहानियों से अलग है.
यहां आलीशान बंगला खुद किरदार है, जिसके बनने के बाद उस अभिनेता की ज़िंदगी में बहुत कुछ बदल गया था. ये बंगला था बेमिसाल एक्टर बलराज साहनी का.
बलराज साहनी…वो एक्टर जिनका नाम ज़ेहन में आते ही एक खूबसूरत, सौम्य, नफ़ासत से भरा चेहरा उभरता है.
देश नया-नया आज़ाद हुआ था और बलराज साहनी उन एक्टर्स में से एक थे, जो उस दौर में आम आदमी के दर्द, उसकी परेशानियों को ना सिर्फ स्क्रीन पर निभाए अपने किरदारों से ज़ुबान देते थे बल्कि फ़िल्मों से बाहर भी उनकी नैतिकता और सामाजिक सरोकार उनके सार्वजनिक जीवन का अहम हिस्सा थे.
भेरा (पाकिस्तान) में हुआ था जन्म
वो 1913 में भेरा में पैदा हुए, जो अब पाकिस्तान में है. उनका वहां के एक समृद्ध व्यवसायी परिवार से ताल्लुक था.
साहित्य में डबल एमए पूरा करने के बाद उनमें रचनात्मक कला और देश के लिए कुछ करने का जज़्बा था.
अपने पिता के व्यवसाय से मुंह मोड़कर उन्होंने पहले गुरुदेव रवीन्द्रनाथ टैगोर के शांतिनिकेतन में पढ़ाया, फिर वर्धा में महात्मा गांधी के सेवाग्राम आश्रम में अपनी युवा पत्नी दमयंती के साथ रहे और काम किया.
फिर विश्व युद्ध के दौरान लंदन चले गए, जहां उन्होंने बीबीसी की ईस्टर्न सर्विस के भारतीय अनुभाग के लिए बतौर हिंदी ब्रॉडकास्टर काम किया.
लंदन में ही उनका रुझान रूसी सिनेमा और मार्क्सवाद की तरफ़ हुआ.
भारत वापस लौटकर वो इंडियन पीपल्स थिएटर एसोसिएशन यानी इप्टा के अहम सदस्य बने और साथ ही देश के बेहतरीन अभिनेताओं में से एक बन गए.
वो एक तरफ तो ‘धरती के लाल’, ‘दो बीघा ज़मीन’, ‘काबुलीवाला’ और ‘गर्म हवा’ जैसी यादगार सामाजिक सरोकार वाली फिल्मों का हिस्सा थे.
वहीं दूसरी तरफ ‘वक़्त’, ‘संघर्ष’, ‘अनुराधा’ और ‘एक फूल दो माली’ जैसी विशुद्ध कमर्शियल फिल्मों में भी उनके स्वभाविक अभिनय और उनके किरदारों की गर्माहट बिल्कुल अलग छाप छोड़ती रही.
‘स्टेला विला’ में रहते थे साहनी
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वो दिल से एक प्रतिबद्ध कॉमरेड थे. अपने कम्युनिस्ट विचारों की वजह से उन्हें जेल भी जाना पड़ा.
उन दिनों वो निर्माता के. आसिफ़ की फिल्म ‘हलचल’ की शूटिंग कर रहे थे और के. आसिफ़ ने फिल्म में उनकी शूटिंग के लिए खास परमिशन ली थी.
शूटिंग ख़त्म करके वो वापस आर्थर रोड जेल चले जाते थे. बलराज साहनी मेथड एक्टिंग में गहरा विश्वास रखते थे.
भारतीय फिल्म इतिहास की सबसे यादगार फिल्मों में से एक ‘दो बीघा ज़मीन’ के रोल के लिए उन्होंने अपना आधा से अधिक वज़न कम किया और हाथरिक्शा चलाना सीखा.
‘काबुलीवाला’ के रोल के लिए वो पठानों के साथ रहने लगे. उनके करीबी दोस्तों में कई मछुआरे थे जिनके साथ वो कई दिन मछलियां पकड़ने निकल जाते थे और साथ में ही रहते थे.
‘दास कैपिटल’, ‘कम्युनिस्ट सिद्धांत और समाजवाद में यक़ीन रखने वाले बलराज साहनी समाज के वर्गों में बराबरी की बात करने वाले, अपनी जड़ों के साथ जुड़े रहने और समाजवाद के ‘सादा जीवन और उच्च विचार’ के मुताबिक़ जीने वाले शख़्स थे.
अमिताभ बच्चन ने उनके बेटे परीक्षित साहनी की किताब में बलराज साहनी को याद करते हुए लिखा कि जब उन्होंने फिल्म इंडस्ट्री में जाने का इरादा अपने पिता साहित्यकार हरिवंशराय बच्चन को बताया तो वो अमिताभ से बोले, “बलराज साहनी की तरह बनो. वो फिल्म इंडस्ट्री में हैं फिर भी इससे बाहर हैं.”
1960 के दशक के मध्य तक बलराज की गिनती बड़े स्टार्स में होने लगी थी.
‘वक्त’, ‘नौनिहाल’, ‘संघर्ष’ , ‘हमराज़’ जैसी बड़ी और कामयाब फिल्मों में उनके अहम रोल थे.
यहीं से उनके करीबी लोग, उनके दोस्त, यहां तक कि उनके सेक्रेटरी उन पर ज़ोर डालने लगे कि अब उन्हें अपना एक बड़ा बंगला बनवाना चाहिए, जो एक फिल्म स्टार और उसकी शख़्सियत और रुतबे के साथ इंसाफ़ कर सके.
उस समय तक बलराज अपने परिवार के साथ एक दो-तीन कमरों वाले घर ‘स्टेला विला’ में रहते थे.
मगर बार-बार दोस्तों के कहने पर या दिल में दबी एक आलीशान घर की हसरत की वजह से बलराज मान गए.
उन्होंने जुहू में उस दौर के मशहूर होटल ‘सन एंड सैंड’ के सामने 15-16 कमरों वाले एक आलीशान घर का निर्माण शुरू करा दिया.
बलराज ने बनवाया था आलीशान घर
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बलराज साहनी के बटे और मशहूर एक्टर परीक्षित साहनी ने अपने पिता पर किताब लिखी ‘द नॉन कन्फर्मिस्ट: मेमोरीज़ ऑफ माय फादर बलराज साहनी.’
इस किताब में वो लिखते हैं, “मेरे पिताजी को न जाने कितने ही लोगों ने कहा कि अब बड़ा घर ले लो. बड़े स्टार हो चुके हो.”
परीक्षित उस समय रूस में पढ़ाई कर रहे थे. परीक्षित कहते हैं कि वो छुट्टियों में घर आए तो उनके पिता ने बड़े प्यार से उन्हें वो नया आलीशान घर दिखाया.
तब तक घर का स्ट्रक्चर पूरा हो चुका था. बेहद खूबसूरत और बहुत बड़े उस घर को देखकर परीक्षित सोच में पड़ गए. उन्हें लगा कि ये महलनुमा घर उनके पिता की शख़्सियत से मेल नहीं खाता था.
परीक्षित लिखते हैं, “ये पिताजी के जीवन का सबसे बड़ा विरोधाभास था”.
वो पिता से बोले, “सामने स्लम्स है डैड, गरीब लोगों की झुग्गियां. हमारे जीवन के फ़लसफ़े के साथ ये महलनुमा घर मैच नहीं करता.”
ये जीवन भर सोशलिज़्म (समाजवाद) के सिद्धांत को मानने वाले बलराज के कैपिटलिस्ट (पूंजीवादी) अरमान का प्रतीक था.
परीक्षित बोले, ”घर को छोटा बनाइए. तीन-चार कमरों से ज़्यादा बड़े घर की ज़रूरत नहीं है.”
बात सही थी और बलराज साहनी अपने बेटे की बात सुनकर सोच में पड़ गए.
फिर बोले, ”बेटा अब तो घर बन ही गया.”
बेटे परीक्षित के लिए उस घर में तीन कमरों का एक पूरा विंग था, जिसमें एक कमरा पेंटिग करने के लिए, एक फ़ोटोग्राफ़ी के लिए और एक बड़ा बेडरूम था. साथ ही जिम बनाने के लिए विशाल टैरेस भी.
ये आलीशान घर पूरी तरह बलराज के सोशलिज़्म और सादा जीवन उच्च विचार के फ़लसफ़े से परे था.
परीक्षित साहनी कहते हैं कि रूस में उन्हें इस घर से जुड़ा एक बुरा सपना आया और उनके ज़ेहन में ये बात रह गयी कि इस घर में कुछ अपशकुन होने वाला है.
ये बात उन्होंने अपनी डायरी में दर्ज भी की. आख़िरकार ऐसा ही हुआ.
‘इस नए घर में कई त्रासदियां हुईं’
इस सफेद बंगले को बलराज साहनी ने नाम दिया ‘इकराम’ यानी इज़्ज़त या प्रतिष्ठा. शुरुआत में इस घर में यादगार महफिलें भी जमीं.
शायर कैफ़ी आज़मी, कवि हरिन्द्रनाथ चट्टोपाध्याय, पीसी जोशी जैसे बुद्धिजीवी, वकील रजनी पटेल और फिल्म इंडस्ट्री के बड़े-बड़े लोग इन महफिलों का हिस्सा होते थे.
लेकिन, जल्द ही ऐसी घटनाएं हुईं जिससे सब बिखरने लगा. कहते हैं कि उनका बुरा वक़्त भी इसी घर में आने के साथ ही शुरू हो गया.
पहली पत्नी के गुज़रने के बाद घर के एक युवा नौकर की भी यहां अचानक मृत्यु हो गई. जीवन में कई ऐसी घटनाएं हुईं जिन्होंने बलराज को तोड़ कर रख दिया.
परीक्षित कहते हैं, “इस नए घर में एक के बाद एक कई त्रासदियां हुईं.”
उन्होंने कहा, “आखिर में उनके पिता ने माना कि उनका बेटा सही था. वो बोले कि बेटा तूने सही कहा था इससे अच्छे तो हम अपने पहले छोटे घर में थे. एक दूसरे के करीब. आते-जाते एक दूसरे से बात करते थे. इस बड़े घर में सब अपने अपने कमरों में रहते हैं. एक दूसरे से दूर, कटे हुए.”
परीक्षित कहते हैं, ”मेरे पिता वहां खुश नहीं थे.”
सबसे बड़ा झटका बलराज साहनी को तब लगा जब उनकी जवान बेटी शबनम ने अचानक आत्महत्या कर ली.’
इस सदमे से वो कभी उबर नहीं पाए. वो आलीशान सफेद बंगला बलराज और उनके परिवार को रास नहीं आया.
परीक्षित कहते हैं, “आख़िरकार उस घर ने ही हमारे पूरे परिवार को बर्बाद कर दिया.”
ज़रूरत से अधिक बड़ी चीज़ की लालसा, दशकों के आत्म-त्याग के बाद “शानदार” जीवन जीने की चाह – ये विचारधारा और अनुभव के बीच के अंतर की मिसाल थी.
अपने पिता के भव्य भ्रम को समझने की कोशिश करते हुए परीक्षित विंस्टन चर्चिल के कथन का सहारा लेते हैं- “हम अपने घरों को आकार देते हैं, और उसके बाद हमारे घर हमें आकार देते हैं.”
वो कहते हैं कि इसके बाद जीवन में अपने मूल आयामों पर पूरी तरह से वापस लौटना शायद संभव नहीं होता.
बलराज के छोटे भाई और जाने-माने साहित्यकार भीष्म साहनी ने भी अपनी जीवनी में लिखा, “जब बलराज मार्क्सवादी बने, तो उनके मन में पीड़ित मानवता के प्रति प्रतिबद्धता की भावना जाग उठी.”
“ऐसा व्यक्ति आसानी से खुद को उस क्षेत्र की घिनौनी वास्तविकता से नहीं जोड़ सकता जहां कला को छूट मिलती है और पैसे का मूल्य प्रबल होता है.”
“इस मशीनी सिस्टम के एक हिस्से के रूप में, अमीर और प्रसिद्ध होने से, बहुत कम व्यक्तिगत संतुष्टि या संतुष्टि की कोई भावना मिलती है.”
अपनी आख़िरी फिल्म ‘गर्म हवा’ के लिए बलराज को एक ऐस दृश्य के लिए शूट करना पड़ा, जिसमें फिल्म में भी निभाए गए उनके किरदार की बेटी भी आत्महत्या कर लेती है.
उन्होंने इस दृश्य को शूट कर लिया, मगर शायद इस दृश्य ने ज़ख़्म को वापस हरा कर दिया था. वो इस आलीशान घर को छोड़कर पंजाब में जाकर रहना चाहते थे.
उनके भाई भीष्म साहनी ने लिखा, “बलराज जी ने फिल्म-कार्य में काफी कटौती कर दी ताकि वो लेखन में अधिक समय दे सकें.”
“उन्होंने पंजाब में एक छोटी सी झोपड़ी भी खरीदी, उसकी मरम्मत कराई और उसे ठीक से सजाया ताकि वह पंजाब में लंबे समय तक जा सकें और रह सकें.”
लेकिन, ऐसा नहीं हो सका. उन्होंने अपनी यादगार आखिरी फिल्म ‘गर्म हवा’ की डबिंग पूरी की और अगले ही दिन दिल का दौरा पड़ने से उनका निधन हो गया.
ये 13 अप्रैल 1973 का दिन था, उनके 60वें जन्मदिन से एक महीने पहले, जिस दिन उन्हें वो मुंबई छोड़कर पंजाब में रहने के लिए जाने वाले थे.
दोस्तों, रिश्तेदारों और फिल्म इंडस्ट्री के जानी-मानी हस्तियों के साथ-साथ उन्हें अंतिम सलाम देने के लिए उनके मछुआरे दोस्तों के साथ साथ सामने झुग्गियों में रहने वाले लोग भी थे.
जुहू में ही रहने वाले अमिताभ बच्चन ने परीक्षित की लिखी किताब को लॉन्च करते हुए कहा था, “जब भी मैं जुहू में बलराज साहनी के घर के सामने से गुज़रता हूं, मैं निराशा से उसे देखने के अलावा कुछ नहीं कर सकता.”
“वक्त और वीराने ने इसे तहस-नहस कर अलग रूप दे दिया है, जो कतई इस घर के मालिक का नहीं था. मुश्किल परिस्थितियां जीवन में विपत्तियों की कहानी कहती हैं और ये घर इस वास्तविकता का प्रतीक है.”
खुद परीक्षित साहनी कहते हैं कि जब वो उस घर के आगे से गुज़रते हैं तो अपनी आंखें बंद कर लेते हैं.
बलराज साहनी का वो आलीशान घर ‘इकराम’ वक्त के थपेड़े सहता हुआ, बुरी हालत में अब भी अपनी जगह खड़ा है.
ये घर उनकी दूसरी पत्नी और बेटी सनोबर के हिस्से में आया. लेकिन, अपने दौर में बंबई के सबसे आलीशान बंगलों में रहा ‘इकराम’ अब जर्जर हालत में है, अपने अंदर साहनी परिवार की दास्तान समेटे हुए.
बीबीसी के लिए कलेक्टिव न्यूज़ रूम की ओर से प्रकाशित