भारत में जन्मे ब्रिटिश उपन्यासकार सलमान रुश्दी का उपन्यास ‘सैटेनिक वर्सेज़’ एक बार फिर चर्चा में है. दरअसल, ये किताब भारत के बुकस्टोर्स में वापसी कर चुकी है.
किताब पर चर्चा 23 दिसंबर को दिल्ली के ‘बाहरीसंस बुकसेलर्स’ के एक पोस्ट के बाद तेज़ हो गई. बुकस्टोर ने अपने एक्स हैंडल पर लिखा, “सलमान रुश्दी का चर्चित उपन्यास ‘द सैटेनिक वर्सेज’ अब बहरीसन्स बुकसेलर्स पर उपलब्ध है!”
सलमान रुश्दी का ये चौथा उपन्यास, साल 1988 में प्रकाशित हुआ था. हालांकि, ये शुरुआत से ही विवादों में घिरा रहा है. किताब छपने के सिर्फ़ एक महीने के भीतर, तत्कालीन राजीव गांधी सरकार ने भारत में इस पर प्रतिबंध लगा दिया था.
हालांकि, उपन्यास के आयात पर प्रतिबंध था, लेकिन इसे अपने पास रखना गैरकानूनी नहीं था. न्यूज़ एजेंसी पीटीआई के मुताबिक, दिल्ली हाईकोर्ट ने इस साल नवंबर में इस प्रतिबंध को चुनौती देने वाली याचिका पर सुनवाई बंद कर दी.
बीबीसी हिंदी के व्हॉट्सऐप चैनल से जुड़ने के लिए यहाँ क्लिक करें
पीटीआई की रिपोर्ट कहती है कि दिल्ली उच्च न्यायालय ने कहा कि अधिकारियों की ओर से पाँच अक्तूबर, 1988 को प्रासंगिक रही अधिसूचना कोर्ट में पेश नहीं हो सकी. इसलिए ये माना जाएगा कि किताब के आयात पर पाबंदी लगाने वाली अधिसूचना अस्तित्व में ही नहीं थी.
जानते हैं इस पूरे मामले से जुड़े सवालों के जवाब.
बुकस्टोर ने उपन्यास की उपलब्धता पर क्या कहा?
दिल्ली के ख़ान मार्केट में मौजूद बुकस्टोर ‘बाहरीसंस बुकसेलर्स’ ने उपन्यास की उपलब्धता के बारे में जानकारी देते हुए एक्स पर लिखा, ” ये उपन्यास अपनी अलग तरह की कहानी और बेबाक विषयों की वजह से सालों से चर्चा में रहा है. इसकी रिलीज़ के बाद से ही इसे दुनियाभर में बड़े विवादों का सामना करना पड़ा, जिसने अभिव्यक्ति की आज़ादी, धर्म और कला पर बहस छेड़ दी.”
बुकस्टोर ने आगे लिखा, ”अगर आप इसे पहली बार पढ़ रहे हैं या फिर दोबारा इसके पन्ने पलटने का मन बना रहे हैं, तो ये उपन्यास आपको सोचने पर मजबूर करेगा.”
पेंगुइन रैंडम हाउस इंडिया की प्रधान संपादक मानसी सुब्रमण्यम ने भी उपन्यास की उपलब्धता के बारे में जानकारी देते हुए एक्स पर पोस्ट किया.
उन्होंने सलमान रुश्दी को टैग करते हुए लिखा, ”भाषा है हिम्मत: एक विचार को सोचने, उसे कहने, और कहकर उसे सच बनाने की ताकत.”
उन्होंने आगे लिखा, ”आख़िरकार, सलमान रुश्दी की द सैटैनिक वर्सेज़ पर 36 साल पुराने प्रतिबंध के बाद इसे भारत में बेचने की इजाज़त मिल गई है. ये उपन्यास अब नई दिल्ली के बहरीसन्स बुकस्टोर पर उपलब्ध है.”
भारत में किन हालात में लगा था प्रतिबंध?
सितंबर 1988 में द सैटेनिक वर्सेज़ प्रकाशित हुई. इस उपन्यास ने सलमान रुश्दी की ज़िंदगी को ख़तरे में डाल दिया. दुनियाभर में मुसलमानों के एक समूह ने इस उपन्यास को ईशनिंदा माना और इसके ख़िलाफ़ व्यापक प्रदर्शन किए.
मुसलमान इस उपन्यास को इस्लाम का अपमान मान रहे थे. मुसलमानों का विरोध कई चीज़ों को लेकर था, लेकिन दो महिला किरदारों के नाम पर ख़ासा विरोध हुआ.
जनवरी 1989 में ब्रैडफर्ड के मुसलमानों ने उपन्यास की कॉपियां जला दीं. उपन्यास बेचने वाले न्यूज़एजेंट डब्ल्यूएच स्मिथ ने प्रकाशन बंद कर दिया. इसी दौरान रुश्दी ने ईशनिंदा के सभी आरोपों को ख़ारिज किया.
भारत में उस वक्त की राजीव गांधी सरकार ने उपन्यास के आयात पर प्रतिबंध लगा दिया. इसके बाद पाकिस्तान और कई अन्य इस्लामी देशों ने इसे प्रतिबंधित कर दिया. दक्षिण अफ़्रीका में भी इस पर प्रतिबंध लगा.
हालांकि कई वर्गों में इस उपन्यास की तारीफ़ भी हुई और इसे व्हाइटब्रेड पुरस्कार भी दिया गया. लेकिन उपन्यास के प्रति विरोध बढ़ता गया और इसके ख़िलाफ़ सड़कों पर प्रदर्शन शुरू हो गए.
फ़रवरी 1989 में रुश्दी के ख़िलाफ़ मुंबई में मुसलमानों ने बड़ा विरोध प्रदर्शन किया. इस प्रदर्शन पर पुलिस की गोलीबारी में 12 लोग मारे गए और 40 से अधिक घायल हो गए थे.
फ़रवरी 1989 में ही तत्कालीन भारत प्रशासित कश्मीर में द सैटेनिक वर्सेज़ के ख़िलाफ़ प्रदर्शन कर रहे लोगों और पुलिस के बीच झड़प में भी तीन लोग मारे गए थे. पुलिस के साथ इस हिंसक झड़प में सौ से अधिक लोग घायल भी हुए थे.
1989 में जब ईरान के सर्वोच्च नेता अयातुल्लाह ख़मेनई ने रुश्दी की हत्या का आह्वान किया था तब दिल्ली की जामा मस्जिद के शाही इमाम अब्दुल्लाह बुख़ारी ने भी उनका समर्थन किया था और रुश्दी की हत्या का आह्वान कर दिया था.
छिप-छिपकर रहने को हुए मजबूर
दुनियाभर में प्रदर्शन और फ़तवा जारी करने के बाद रुश्दी अपनी पत्नी के साथ छिप गए थे. क़रीब एक दशक तक उन्हें ऐसे ही छिप-छिपकर रहना पड़ा.
इस बीच ब्रितानी सरकार ने सलमान रुश्दी को पुलिस सुरक्षा भी मुहैया कराई थी. हालात ऐसे हो गए थे उस वक्त कि ईरान और ब्रिटेन ने राजनयिक संबंध तक तोड़ लिए थे.
रुश्दी के उपन्यास को प्रकाशक पेंगुइन वाइकिंग ने प्रकाशित किया था. प्रकाशक के लंदन दफ़्तर के बाहर पुलिस तैनात कर दी गई थी जबकि न्यूयॉर्क दफ़्तर को भी धमकियां मिली थीं.
हालांकि, अटलांटिक महासागर के दोनों तरफ़ यानी अमेरिका और यूरोप में उपन्यास बेहद चर्चित हुआ. मुसलमानों की चरम प्रतिक्रिया के ख़िलाफ़ हुए प्रदर्शनों का यूरोपीय देशों ने समर्थन किया था और लगभग सभी यूरोपीय देशों ने ईरान से अपने राजदूतों को वापस बुला लिया था.
बाद में इस पर सलमान रुश्दी ने कहा था, “वो बहुत डरावना समय था और मुझे अपने साथ साथ अपने परिवार के लिए डर लग रहा था. मेरा ध्यान बंटा हुआ था और कुछ समझ नहीं आ रहा था कि क्या करूं.”
हालांकि इस उपन्यास की सामग्री की वजह से सिर्फ़ लेखक सलमान रुश्दी को ही धमकियों का सामना नहीं करना पड़ा था.
इस उपन्यास का जापानी में अनुवाद करने वाले अनुवादक का शव जुलाई 1991 में टोक्यो के उत्तर-पूर्व में स्थित एक यूनिवर्सिटी में मिला था.
पुलिस के मुताबिक अनुवादक हितोशी इगाराशी को सूकूबा यूनिवर्सिटी में उनके दफ़्तर के बाहर कई बार चाकू से गोदा गया था और मरने के लिए छोड़ दिया गया था. वो यहां असिस्टेंट प्रोफ़ेसर भी थे.
जुलाई 1991 में ही उपन्यास के इतालवी अनुवादक इत्तोरो कैपरियोलो पर मिलान में उनके अपार्टमेंट में हमला हुआ था, हालांकि वो इस हमले में ज़िंदा बच गए थे. साल 1998 में ईरान ने रुश्दी की हत्या का आह्वान करने वाले फ़तवे को वापस ले लिया था.
साल 2022 में जानलेवा हमला
इस उपन्यास के प्रकाशन के दशकों बाद सलमान रुश्दी पर 12 अगस्त, 2022 को जानलेवा हमला हुआ था, जिसके बाद उनकी एक आंख की रोशनी चली गई थी. ये हमला अमेरिका के न्यूयॉर्क में आयोजित एक कार्यक्रम के मंच पर चाकू से किया गया था.
वह कहते हैं, ”एक आंख खोना मुझे हर दिन परेशान करता है.”
उन्होंने कहा कि सीढ़ियों से नीचे उतरते समय या सड़क पार करते समय, या यहां तक कि गिलास में पानी डालते समय भी उन्हें अधिक सावधानी बरतनी पड़ती है.”
लेकिन वो खुद को सौभाग्यशाली मानते हैं कि उनके मस्तिष्क को नुकसान नहीं पहुंचा. वो कहते हैं, ”इसका मतलब ये है कि मैं अभी भी अपने जैसा बनने में सक्षम हूं.”
बीबीसी के लिए कलेक्टिव न्यूज़रूम की ओर से प्रकाशित.