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थाईलैंड और कंबोडिया के बीच लंबे समय से सीमा विवाद चल रहा है. लेकिन 2025 में कई महीनों से तनाव बढ़ता जा रहा था और जुलाई में दोनों देशों ने एक दूसरे पर हमला कर दिया.
दोनों देशों के बीच हुई गोलीबारी में कई आम नागरिक भी मारे गए. एक लाख से ज़्यादा लोगों को सुरक्षित जगहों पर ले जाना पड़ा.
दरअसल, मई में एक कंबोडियाई सैनिक की मौत हुई थी, जिसके दो हफ़्ते बाद थाईलैंड की प्रधानमंत्री पैतोंगटार्न शिनावात्रा का कंबोडिया को किया गया एक फ़ोन कॉल लीक हो गया, जिससे चौंकाने वाली जानकारी सामने आई.
इस फ़ोन कॉल का मक़सद दोनों देशों के बीच तनाव कम करना था, लेकिन लगभग 17 मिनट लंबे इस फ़ोन कॉल के सार्वजनिक होने से स्थिति और ख़राब हो गई.
थाईलैंड के लोगों में गुस्सा फूट पड़ा, जिससे प्रधानमंत्री की मुश्किलें भी बढ़ गईं. थाईलैंड और कंबोडिया के बीच विवाद की जड़ दरअसल दो देशों के बीच दोस्ती में आई दरार है.
तो इस सप्ताह दुनिया-जहान में हम यही जानने की कोशिश करेंगे कि कैसे एक लीक हुए टेलीफ़ोन कॉल ने थाईलैंड की राजनीति को झकझोर दिया.
क्या फ़ोन पर अंकल कहना पड़ा भारी?
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लंदन स्कूल ऑफ़ इकोनॉमिक्स एंड पॉलिटिक्स के सॉ स्वी हॉक साउथ एशिया सेंटर की मैनेजर डॉक्टर पेट्रा एल्डरमैन बताती हैं कि शिनावात्रा परिवार लंबे समय से थाईलैंड की राजनीति का हिस्सा रहा है.
वो कहती हैं कि थाकसिन शिनावात्रा को शिनावात्रा परिवार का प्रमुख माना जाता है.
वो पहली बार देश की राजनीति में 2000 के दशक में आए थे.
उन्होंने थायरेक थाई पार्टी की स्थापना की और 2001 के आम चुनावों में उसे बड़ी जीत दिलाई.
वो कहती हैं, “उनके राजनीति में लंबे समय तक बने हुए प्रभाव के कई कारण हैं. पहली बात यह है कि उन्होंने कई प्रगतिशील नीतियां अपनाई. उन्होंने थाईलैंड की राजनीति में नयी जान फूंकी. उनके आने से पहले देश में कोई कल्याणकारी नीतियां नहीं थीं. वो पहले नेता थे जिन्होंने देश के ग़रीबों की समस्याएं सुलझाने की कोशिश की.”
उनके विरोधियों का गठबंधन येलो शर्ट्स कहलाता है, जिसमें ज़्यादातर शहरी मध्यवर्ग के लोग और राजशाही समर्थक शामिल हैं.
2006 में थाकसिन शिनावात्रा की सरकार के ख़िलाफ़ भ्रष्टाचार और देश के नरेश के साथ वफ़ादार ना रहने के आरोप लगे और जनता ने उनके ख़िलाफ़ सड़कों पर भारी विरोध प्रदर्शन किए.
उसके बाद सेना ने उनका तख़्ता पलट दिया. 2008 में थाकसिन शिनावात्रा देश छोड़कर चले गए और 15 साल बाद 2023 में वापस थाईलैंड लौटे.
उनकी थायरेक थाई पार्टी पर प्रतिबंध लगा दिया गया और फिर प्रोथाई पार्टी के नाम से नई पार्टी बनी. देश के चार प्रधानमंत्री शिनावात्रा परिवार से आए हैं.
डॉक्टर पेट्रा एल्डरमैन का मानना है कि दरअसल पर्दे के पीछे से थाकसिन ही सरकार के महत्वपूर्ण फ़ैसले करते रहे हैं.
2023 के आम चुनावों में युवाओं के नेतृत्व वाली ‘मूव फॉरवर्ड पार्टी’ को अधिकांश सीटें मिली थीं, लेकिन उसे सरकार बनाने का मौका नहीं मिला.
दरअसल, थाईलैंड के संवैधानिक न्यायालय ने चुनाव के दौरान देश में राजशाही के अपमान को अपराध करार देने वाले क़ानून में संशोधन करने के वादे का हवाला देकर इस पार्टी को बर्ख़ास्त कर दिया.
इसके बाद प्रोथाई पार्टी ने प्रतिद्वंद्वी दलों के साथ गठबंधन बनाकर सरकार बना ली.
अगस्त 2024 में संसद ने प्रोथाई पार्टी के एक प्रधानमंत्री को हटा कर उनकी जगह थाकसिन शिनावात्रा की बेटी पैतोंगटार्न शिनावात्रा को प्रधानमंत्री चुन लिया.
डॉक्टर पेट्रा एल्डरमैन कहती हैं कि पैतोंगटार्न को एक कमज़ोर प्रधानमंत्री के रूप में देखा गया.
वो कहती हैं, “उनके प्रधानमंत्री बनने के बाद थाकसिन खुल कर मंच पर सरकारी नीतियों पर वक्तव्य देते नज़र आने लगे. उनके इस क़दम से प्रधानमंत्री के तौर पर उनकी बेटी की साख़ गिर गई.”
“उसके बाद थाईलैंड की तत्कालीन प्रधानमंत्री और कंबोडिया की संसद के अध्यक्ष और पूर्व प्रधानमंत्री हुन सेन के बीच हुई टेलीफ़ोन वार्ता लीक हो गई. थाईलैंड की तत्कालीन प्रधानमंत्री सीमा पर संघर्ष रोक कर शांति बहाली करना चाहती थीं.”
डॉक्टर पेट्रा एल्डरमैन ने कहा कि हुन सेन ने इस कॉल को अपने फ़ेसबुक पोस्ट पर पोस्ट कर दिया. इस बातचीत के दौरान पैतोंगटार्न शिनावात्रा हुन सेन को अंकल कह कर संबोधित करती सुनाई देती हैं और काफ़ी झुक कर बात करती प्रतीत होती हैं.
हुन सेन और पैतोंगटार्न के पिता घनिष्ठ मित्र रहे हैं और ये संभव है कि इसी वजह से पैतोंगटार्न ने हुन सेन से अतिविनम्रता से बात की हो और शांति कायम करने के लिए उनकी मांग पूरी करने का आश्वासन दिया.
इसके बाद गठबंधन की एक बड़ी रूढ़िवादी पार्टी सरकार से बाहर हो गई और देश में व्यापक स्तर पर पैतोंगटार्न के ख़िलाफ़ विरोध प्रदर्शन होने लगे. उनके इस्तीफ़े की मांग की जाने लगी.
संवैधानिक न्यायालय में उन्होंने दलील दी कि उन्होंने शांति समझौते की रणनीति के तहत ही कंबोडियाई नेताओं से उस तरह बात की. मगर संवैधानिक न्यायालय ने उनके ख़िलाफ़ जांच शुरू कर उन्हें निलंबित कर दिया.
‘थाईलैंड में 20 बार संविधान बदला गया’
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बैंकॉक की चुलालोंगकॉर्न यूनिवर्सिटी के इंस्टीट्यूट ऑफ़ सिक्योरिटी एंड इंटरनेशनल स्टडीज़ में प्रोफ़ेसर डॉक्टर थितिनान पोंगसुधीरक कहते हैं कि थाईलैंड की लोकतांत्रिक व्यवस्था लंबे समय से कमज़ोर रही है.
वो कहते हैं, “थाईलैंड में चुनाव तो होते हैं और संसद भी है, लेकिन यहां 20 बार संविधान बदला गया है और 13 बार सरकारों का तख़्ता पलट दिया गया है.”
“1932 से कई बार प्रशासन में न्यायपालिका का हस्तक्षेप होता रहा है. इस मामले में थाईलैंड अन्य देशों जैसा लगे मगर यहां स्थितियां अलग भी हैं. अन्य देशों में कार्यपालिका सरकारी प्रशासन चलाती है, लेकिन यहां सेना भी है और राजशाही भी.”
1992 से थाईलैंड में संवैधानिक राजशाही रही है यानी नरेश देश के प्रमुख होते हैं मगर संविधान पर आधारित नियमों के अनुसार सत्ता सरकार के हाथ में होती है.
अगर सेना तख़्तापलट भी करना चाहे तो थाईलैंड नरेश की सहमति के बिना नहीं होता. आख़िरी बार सेना ने 2014 में सरकार का तख़्ता पलटा था.
डॉक्टर थितिनान पोंगसुधीरक ने कहा, “पूर्व में सैनिक तख़्तापलट का फॉर्मूला थाईलैंड की राजनीति का हिस्सा रहा है. यह शुरू होता था संविधान को बदलने से, उसके बाद चुनाव कराए जाते और सरकार पर भ्रष्टाचार के आरोप लगते, वह शासन करने का नैतिक अधिकार खो बैठती थी जिसके बाद सेना द्वारा तख़्तापलट दिया जाता था. इसके बाद सत्ता हथियाने वाले सैनिक जनरल नया संविधान तैयार करते थे.”
कई बार हो चुका है तख़्तापलट
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देश में कई बार सेना ने तख़्तापलट किया है, अब ऐसे में सवाल उठते हैं कि क्या अब भी ऐसा हो सकता है?
थितिनान पोंगसुधीरक इस पर कहते हैं कि थाईलैंड की कमज़ोर लोकतांत्रिक व्यवस्था के चलते सेना द्वारा सत्ता हथियाने की संभावना हमेशा बनी रहती है. मौजूदा संविधान देश का बीसवाँ संविधान है, जिसे 2017 में सैन्य शासन के दौरान अपनाया गया था.
डॉक्टर थितिनान पोंगसुधीरक ने कहा, “इस संविधान को एक सेना समर्थक समिति ने सेना की निगरानी में तैयार किया था. इसमें कई ऐसे क़ानून हैं जिनके तहत राजनीतिक दलों और राजनेताओं को कमज़ोर रखा जा सकता है. इसके तहत राजनीतिक दलों और राजनेताओं पर प्रतिबंध लगाया जा सकता है. न्यायपालिका के साथ मिल कर इस संविधान के तहत सरकारों को अस्थिर और कमज़ोर रखा जा सकता है.”
डॉक्टर थितिनान पोंगसुधीरक कहते हैं कि संवैधानिक न्यायालय ने पिछले 20 वर्षों में छह प्रधानमंत्रियों को निलंबित किया है. वह कहते हैं कि यह कोई संयोग नहीं है बल्कि राजनीति को एक ख़ास दिशा में ले जाने की सोची समझी नीति है. देश की कमज़ोर लोकतांत्रिक व्यवस्था के कारण यह संभव हो पाया है.
डॉक्टर वू लाम निती विश्लेषक हैं और ऑस्ट्रेलिया की न्यू साउथ वेल्स यूनिवर्सिटी में लेक्चरर हैं. उनका कहना है कि कंबोडिया और थाईलैंड के बीच संबंध हमेशा ही तनावपूर्ण रहे हैं.
वह कहते हैं, “दोनों देशों के बीच लंबे समय से भूमि को लेकर विवाद चलता रहा है. इस मुद्दे पर दोनों तरफ़ राष्ट्रवादी भावनाएं हावी हैं और वो एक दूसरे को संदेह की नज़र से देखते हैं. वहीं दोनों देशों के राजनीतिक परिवारों यानी शिनावात्रा और हुन परिवार के बीच निजी कूटनीतिक संबंधों के चलते स्थिति कभी भी विस्फोटक हो सकती है.”
डॉक्टर वू लाम कहते हैं जब भी ऐसा होता है तो दोनों देशों के बीच सीमाएं बंद कर दी जाती हैं.
इस बार भी थाईलैंड ने कुछ तेल पाइप लाइनों को बंद कर दिया.
कंबोडिया ने जवाब में थाईलैंड से फल और खाद्य सामग्री के आयात पर रोक लगा दी. जब भी स्थिति तनावपूर्ण होती है तो दोनों देश अपने सैनिकों को सीमा पर तैनात कर देते हैं.
यह अक्सर होता है, लेकिन दो देशों के नेताओं के बीच हुई टेलीफ़ोन वार्ता के लीक होने से स्थिति बुरी तरह बिगड़ गई. दोनो देशों के प्रमुख राजनीतिक परिवारों के बीच कई दशकों से नज़दीकी संबंध रहे हैं.
डॉक्टर वू लाम ने कहा कि जब थाकसिन को थाईलैंड के प्रधानमंत्री पद से हटा दिया गया था तब हुन सेन कंबोडिया के प्रधानमंत्री थे. उन्होंने थाकसिन को वरिष्ठ सलाहकार के तौर पर कंबोडिया आमंत्रित किया था. हुन सेन 30-35 सालों से कंबोडिया की राजनीति में रहे हैं और तत्कालीन पीएम हुन मनेत के पिता हैं.
हुन सेन का एक बेटा उप प्रधानमंत्री भी है. इन सब तथ्यों को देखते हुए थाईलैंड के प्रधानमंत्री का उन्हें फ़ोन करना स्वाभाविक बात जान पड़ती है.
डॉक्टर वू लाम कहते हैं कि दक्षिण पूर्वी देशों में किसी राजनेता का दूसरे देश के वरिष्ठ राजनेता को अंकल, भाई या बहन कह कर संबोधित करना सामान्य बात है.
कंबोडिया के पूर्व प्रधानमंत्री हुन सेन ने फ़ोन कॉल लीक को सही ठहराते हुए कहा कि उन्होंने ऐसा पारदर्शिता बरतने के लिए किया ताकि इस बातचीत को तोड़-मरोड़कर न पेश किया जा सके.
डॉक्टर वू लाम ने कहा, “यह पारदर्शिता का मामला नहीं है. यह एक अनौपचारिक कूटनीतिक प्रयास था. हुन सेन अब कंबोडिया के प्रधानमंत्री नहीं हैं. मगर वो थाईलैंड की वर्तमान प्रधानमंत्री से बात कर रहे थे और उनका इस कॉल को रिकार्ड कर लीक करना सही क़दम नहीं माना जा सकता. लेकिन इससे पता चलता है कि इस प्रकार की कूटनीति के नुक़सान भी हैं.”
उन्होंने कहा, “हो सकता है कि ऐसा कर के हुन सेन दिखाना चाहते हों कि कंबोडिया की विदेश नीति पर उनकी पकड़ है. और यह भी हो सकता है कि वो इसके ज़रिए देश की आर्थिक समस्याओं से लोगों का ध्यान हटाना चाहते हों.
अमेरिका और थाईलैंड के बीच संबंध
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बैंकॉक की थमासेट यूनिवर्सिटी में अंतरराष्ट्रीय व्यापार और रणनीति की प्रोफ़ेसर डॉक्टर पाविडा पैनानोंड का मानना है कि अगर थाईलैंड में स्थिर राजनीतिक नेतृत्व ना रहे तो अमेरिका द्वारा लगाए जा रहे टैरिफ़ या व्यापार शुल्क के लागू होने से उत्पन्न स्थिति से निपटना मुश्किल हो सकता है.
“पहली बात तो यह है कि इससे थाईलैंड में राजनीतिक अस्थिरता बढ़ेगी. उद्योगपति और निवेशक भी थाईलैंड में निवेश को लेकर संकोच कर सकते हैं. हो सकता है कि थाईलैंड की अस्थिरता के कारण वो दूसरी जगह निवेश करने के बारे में भी सोचें.”
इस साल जुलाई में विश्व बैंक ने थाईलैंड की सकल घरेलू उत्पाद दर का अनुमान 2.8 प्रतिशत से घटाकर 1.9 प्रतिशत कर दिया.
उसने इसकी वजह देश में पर्यटन और निर्यात में आई गिरावट बताई है. थाईलैंड वाहन, रबर और इलेक्ट्रॉनिक वस्तुओं का निर्यात करता रहा है.
डॉक्टर पाविडा पैनानोंड ने कहा कि थाईलैंड दक्षिणपूर्व एशिया में एक बड़ा निर्यातक रहा है और विदेशी पूंजी निवेश को आकर्षित करता रहा है, लेकिन पिछले बीस सालों में राजनीतिक अस्थिरता की वजह से वह इस मामले में अपने पड़ोसी देशों से पिछड़ता जा रहा है.
जिन देशों के ख़िलाफ़ अमेरिका ने व्यापार शुल्क में बड़ी वृद्धि की है उनमें थाईलैंड भी शामिल है.
डॉक्टर पाविडा पैनानोंड का कहना है कि इस मामले में भी थाईलैंड के पड़ोसी देश वियतनाम और मलेशिया ने बढ़त हासिल कर ली है, क्योंकि थाईलैंड ने अमेरिका के साथ कुछ सप्ताह पहले ही व्यापार समझौते पर बातचीत शुरू की है. जबकि वियतनाम ने अमेरिका के साथ व्यापार समझौता कर भी लिया है. मौजूदा अस्थिरता के चलते थाईलैंड के लिए फ़ायदेमंद समझौता कर पाना आसान नहीं होगा. अमेरिका थाईलैंड का सबसे बड़ा व्यापारिक भागीदार है.
डॉक्टर पाविडा पैनानोंड कहती हैं, “कई मुद्दों पर अमेरिका और थाईलैंड के बीच संबंधों में उतार-चढ़ाव आते रहे हैं, लेकिन फिर भी अमेरिका और थाईलैंड बड़ा सहयोगी रहा है. हम अमेरिका पर काफ़ी निर्भर करते हैं लेकिन चीन भी इस क्षेत्र की बड़ी ताकत है. इसलिए हमें उसे भी ध्यान में रखते हुए क़दम उठाने पड़ते हैं.”
डॉक्टर पाविडा पैनानोंड का मानना है कि देश में अस्थिर गठबंधन सरकार के लिए विश्व के साथ अपने व्यापार नीतियों पर ध्यान केंद्रित करना मुश्किल हो रहा है.
थाईलैंड में अगले चुनाव जून 2027 से पहले होने हैं. मगर आशंका है कि अगर मध्यावधी चुनाव हुए तब भी अब जैसी स्थिति ही पैदा हो सकती है.
बीबीसी के लिए कलेक्टिव न्यूज़रूम की ओर से प्रकाशित