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आज़ादी की लड़ाई लड़ने वालों में सुखदेव की ख्याति एक रणनीतिकार के तौर पर थी.
लाला लाजपत राय की मौत के बाद स्वतंत्रता सेनानियों की बैठक हुई थी, जिसकी अध्यक्षता दुर्गा भाभी ने की थी.
वो सभी दुनिया को दिखाना चाहते थे कि भारत के लोग लाजपत राय की मौत को आसानी से स्वीकार नहीं करेंगे. इस बैठक में भगत सिंह, सुखदेव, राजगुरु और चंद्रशेखर आज़ाद शामिल थे.
दुर्गा भाभी ने घोषणा की कि लाला लाजपत राय की मौत का बदला उन पर लाठीचार्ज करवाने वाले जेम्स स्कॉट की हत्या कर के लिया जाएगा.
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कुलदीप नैयर अपनी किताब ‘विदाउट फ़ियर, द लाइफ़ एंड ट्रायल ऑफ़ भगत सिंह’ में लिखते हैं, “दुर्गा भाभी ने वहाँ मौजूद सभी लोगों से पूछा कि ये काम कौन करना चाहेगा? सभी लोगों ने अपने हाथ उठाए.”
“सुखदेव ये काम खुद करना चाहते थे, लेकिन उनको इसलिए नहीं चुना गया क्योंकि कि वो मुख्य रणनीतिकार थे. इसके बाद सुखदेव ने इस काम के लिए भगत सिंह, राजगुरु, चंद्रशेखर आज़ाद और जय गोपाल को चुना.”
नैयर लिखते हैं, “सुखदेव ने योजना बनाई कि भगत सिंह स्कॉट पर गोली चलाएंगे, जैसे ही भगत सिंह के नाम का ऐलान हुआ कमरे में फुसफुसाहट होने लगी कि भगत सिंह की बढ़ती लोकप्रियता को देखकर कहीं सुखदेव उनसे पिंड तो छुड़ाना नहीं चाहते हैं.”
“ये बात साफ़ थी कि स्कॉट पर गोली चलाना मुश्किल था, लेकिन उसके बाद पुलिस की गिरफ़्त से बच निकलना उससे भी ज़्यादा मुश्किल काम था.”
“सुखदेव ने इन फुसफुसाहटों पर ध्यान दिए बग़ैर पूरा प्लान तय किया. राजगुरु, भगत सिंह को कवर देंगे. आज़ाद उनको वहाँ से सुरक्षित निकालने के इंचार्ज होंगे और जय गोपाल जेम्स स्कॉट की पहचान करेंगे.”
पार्टी ने नाम दिया ‘देहाती’
जय गोपाल की ग़लती की वजह से गोली स्कॉट की बजाए सैन्डर्स को लगी. सुखदेव ने ही योजना बनाई कि भगत सिंह देहरादून एक्सप्रेस से कलकत्ता के लिए रवाना होंगे.
सुखदेव ने तय किया कि भगत सिंह दुर्गा देवी के पति के तौर पर ये यात्रा करेंगे.
दुर्गा देवी नाम बदलकर सुजाता के तौर पर ये सफ़र करेंगी, जबकि यात्रा के दौरान भगत सिंह का नाम रंजीत होगा.
दुर्गा भाभी का तीन साल का बेटा सचिन भी उनके साथ जाएगा. इस दौरान राजगुरु भी उनके साथ रहेंगे, लेकिन एक नौकर के तौर पर रेलगाड़ी के दूसरे डिब्बे में.
योजना इतनी सटीक थी कि कोई भी भगत सिंह को पहचान नहीं पाया और वो लाहौर से सुरक्षित बाहर निकल गए.
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19 फ़रवरी 1907 को लुधियाना में जन्मे सुखदेव को पार्टी में ‘देहाती’ के नाम से जाना जाता था.
उनके क़रीबी साथी रहे शिव वर्मा अपनी किताब ‘रेमिनिसेंसेज़ ऑफ़ फ़ेलो रेवोल्यूशनरीज़’ में लिखते हैं, “मैंने उनका नाम सुन रखा था, लेकिन एक दिन जब वो बिना पूर्व सूचना के भगत सिंह का एक पत्र लेकर कानपुर के डीएवी कॉलेज के मेरे कमरे में आए तो उनके बारे में मेरी सारी धारणाएं हवा हो गईं.”
“मेरा विचार था कि ‘देहाती’ वाकई कोई गाँव में रहने वाला अशिक्षित या कम पढ़ा-लिखा शख़्स होगा, लेकिन मैंने उन्हें बलिष्ठ कद-काठी वाला व्यक्ति पाया. उनका रंग गोरा था और उनके बहुत सुंदर घुंघराले बाल थे.”
“उनकी आँखें बहुत कोमल थीं, वो मेरे कमरे में कुछ दिन रहे. इस बीच भगत सिंह भी वहाँ एक दिन के लिए आए. तब मुझे पता चला कि इस ‘देहाती’ का असली नाम सुखदेव था.”
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पीटे जाने के बावजूद चेहरे पर मुस्कुराहट
सुखदेव को बात-बात पर कहकहा लगाने की आदत थी.
अगर कोई उनके साथ न हँसे, तब भी वो अकेले हँसते रहते थे. फिर वो अचानक चुप भी हो जाते थे, जैसे किसी ने उनकी हँसी पर ब्रेक लगा दिया हो.
उनकी मुस्कान भी लोगों का ध्यान खींचती थी, जिसमें सामाजिक बुराइयों, परंपराओं और राजनीतिक मतभेद के प्रति तिरस्कार झलकता था.
शिव वर्मा लिखते हैं, “लाहौर जेल में भूख हड़ताल के दौरान हम सबकी पिटाई हो रही थी. डॉक्टर हम सबको ज़बरदस्ती दूध पिलाना चाह रहे थे.”
“जेल अधीक्षक ने सुखदेव की कोठरी खुलवाई. जैसे ही कोठरी खुली उन्होंने बाहर दौड़ लगा दी. दस दिन तक भूखे रहने के बावजूद वो इतना तेज़ दौड़े कि उनको पकड़ना मुश्किल हो गया.”
“बड़ी मुश्किल से जब उन्हें पकड़ा गया, तो उन्होंने कुछ सिपाहियों की पिटाई कर दी और कुछ को दाँतों से काटा. डॉक्टर के पास भेजने से पहले जेल के स्टाफ़ ने उनकी बहुत पिटाई की.”
“पीटे जाने के बावजूद वो मुस्कुराते रहे.”
वर्मा ने लिखा है, “जब पुलिसवालों ने उन्हें ज़बरदस्ती लिटाकर दूध पिलाने की कोशिश की, तो उन्होंने अपने पैर चलाने शुरू कर दिए.”
“जब इंस्पेक्टर उनके बिल्कुल नज़दीक आ गया, तो उन्होंने किसी तरह अपना पैर छुड़ाकर उसे उतनी ज़ोर से मारा कि वो दो गज पीछे जा कर गिरा. इस बीच सुखदेव लगातार मुस्कुराते रहे.”
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सुखदेव गंदे कपड़ों में दिखते थे
सुखदेव अक्सर गंदे कपड़ों में देखे जाते थे. उनकी पोशाक होती थी एक मैला-सा अलीगढ़ी पाजामा और उसके ऊपर उससे भी खद्दर का कुर्ता.
उनके कुर्ते के सभी बटन खुले होते थे और कुर्ता अक्सर सरक कर कंधे पर आ जाता था. उनके सिर पर व्यापारियों की तरह एक गोल टोपी होती थी, जिस पर तेल और धूल जमी होती थी.
लेकिन, जूते वो महंगे पहनते थे. उनको अपने रहन-सहन और कपड़ों पर किसी की टिप्पणी पसंद नहीं आती थी.
एमएम जुनेजा अपनी किताब ‘शहीद सुखदेव की प्रामाणिक जीवनी’ में लिखते हैं, “जब भी कोई उनके कपड़ों पर टिप्पणी करता था, वो चिढ़ जाते थे और कहते थे मैं यहाँ किसी लफंगे से शादी करने नहीं आया हूँ. अगर तुम्हें मेरे कपड़े नहीं पसंद हों, तो अपनी आँखें बंद कर लो.”
“लेकिन, कभी-कभी वो पार्टी के हित को देखते हुए सफ़ेद धोती और कुर्ता पहनते थे और टोपी नहीं लगाते थे.”
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शिव वर्मा को कपड़ों की सौगात
सन 1928 में शिव वर्मा को अमृतसर में सुखदेव के साथ रहने का मौक़ा मिला था.
शिव वर्मा लिखते हैं, “उन दिनों उन्होंने अपने कीमती जूतों की जगह मोची के बनाए साधारण जूते पहनने शुरू कर दिए थे, जिन्हें वो चप्पल की तरह इस्तेमाल करते थे.”
“वो अपने पहनावे के बारे में भले ही ध्यान न देते हों, लेकिन उन्हें अपने साथियों को अच्छे कपड़े पहनते देख खुशी होती थी. एक बार उन्होंने मेरे लिए एक पंजाबी पायजामा, कुर्ता, कोट, पगड़ी और जूते ख़रीदे.”
“सुखदेव के ज़ोर देने पर मैंने उनके लाए हुए कपड़े पहने. उन्होंने अपने हाथों से मेरी पगड़ी ठीक की. फिर उन्होंने दूर से मुझे देखकर कहा, अब तुम बिल्कुल पंजाबी लग रहे हो.”
“जब मैंने उनसे कहा कि आप भी कपड़े बदल लीजिए तो उन्होंने इनकार कर दिया. उन्होंने कहा, उन लोगों को मुझे तुम्हारा नौकर समझने दो.”
नाइट्रिक एसिड से गोदना मिटाया
सुखदेव को चमेली के फूल के गजरे बहुत पसंद थे. वो अक्सर चमेली के फूल के गजरे को अपनी गर्दन में पहन लेते थे. उनको भुने हुए भुट्टे खाने का भी बहुत शौक था.
वो एक बार में कई भुट्टे खरीदते थे और उन्हें खाते हुए सड़क पर चलते थे.
सुखदेव ज़िद्दी होने के साथ-साथ थोड़े सनकी भी थे. एक बार उन्होंने अपनी सहनशीलता की परीक्षा लेनी चाही.
एमएम जुनेजा लिखते हैं, “अपने छात्र जीवन के दौरान जब उनका क्रांतिकारियों से कोई संबंध नहीं था, उन्होंने अपने बाएँ हाथ पर ‘ओम’ और अपना नाम गुदवा लिया था.”
“उनके भूमिगत होने के दौरान उनकी इस निशानी से उन्हें आसानी से पकड़ा जा सकता था. उन दिनों आगरा में बम बनाने के लिए नाइट्रिक एसिड रख गया था.”
“उन्होंने बिना किसी को बताए अच्छी मात्रा में नाइट्रिक एसिड अपने गोदने पर डाल दिया.”
“शाम तक उस जगह पर छाले पड़ गए और उनके हाथ में सूजन आ गई. उनको बुख़ार भी आ गया. लेकिन, उन्होंने इस बारे में किसी को नहीं बताया.”
जुनेजा लिखते हैं, “उनके साथियों को इस बारे में तब पता चला जब अगले दिन नहाने के लिए उन्होंने अपनी कमीज़ उतारी.”
“जब चंद्रशेखर आज़ाद और भगत सिंह उन पर नाराज़ हुए, तो उन्होंने हँसते हुए जवाब दिया, मैं अपना परिचय चिन्ह मिटाना चाह रहा था और ये भी देखना चाह रहा था कि तेज़ाब से कितनी जलन होती है.”
“उस दौरान उनके साथियों ने उन्हें लाख समझाया कि वो इस चोट पर कुछ मरहम लगा लें, लेकिन उन्होंने किसी की एक न सुनी.”
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हाथ पर मोमबत्ती की लौ
तेज़ाब डालने के बावजूद उनके नाम का एक हिस्सा मिटने से रह गया. एक दिन वो दुर्गा भाभी के घर गए.
उनके पति भगवती चरण वोहरा कहीं गए हुए थे. दुर्गा भाभी रसोई में खाना बना रही थीं. सुखदेव, भगवती के कमरे में चुपचाप बैठे हुए थे.
मलविंदरजीत सिंह बड़ाइच दुर्गा भाभी की जीवनी में लिखते हैं, “जब बहुत देर तक कमरे से कोई आवाज़ नहीं आई, तो दुर्गा भाभी अपने पति के कमरे मे आईं, वहाँ वो ये देखकर दंग रह गईं कि सुखदेव मेज़ पर जल रही मोमबत्ती की लौ के सामने अपना हाथ रखे बैठे थे.”
“उनके हाथ पर उनके नाम की खाल जल रही थी. इस बार वो उस गोदने को पूरी तरह से मिटा देना चाहते थे. दुर्गा भाभी ने दौड़ कर मोमबत्ती बुझा दी और उन्हें बुरी तरह से डाँटा. सुखदेव सिर्फ़ मुस्कुरा भर दिए और कुछ नहीं बोले.”
जेल में भूख हड़ताल के दौरान जब डॉक्टर उनके पेट में रबर की पाइप लगाकर उन्हें ज़बरदस्ती दूध पिलाने की कोशिश करते थे, तो उन्हें बेहद शर्मिंदगी महसूस होती थी.
वो अपने गले में उंगली डालकर उल्टी करने की कोशिश करते थे. दो बार तो उन्हें ऐसा करने में कामयाबी मिली, फिर उनका गला इसका आदी हो गया.
फिर उन्होंने सुना कि मक्खी निगल लेने से उल्टी आ जाती है. जैसे ही डॉक्टर उन्हें ज़बरदस्ती दूध पिला कर जाते, वो एक मक्खी पकड़ कर उसे निगल जाते, लेकिन इसका उन पर बिल्कुल असर नहीं हुआ.
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भगत सिंह और सुखदेव की तकरार
भगत सिंह के प्रति सुखदेव का अनुराग अन्य सेनानियों से थोड़ा अधिक था. जब भी दोनों मिलते एक दूसरे को ज़ोर से गले लगाते और घंटों बातें करते.
सेंट्रल कमेटी की उस बैठक में सुखदेव मौजूद नहीं थे, जिसमें तय किया गया था कि असेंबली में बम फेंका जाएगा.
भगत सिंह ने ज़ोर दिया कि वो खुद बम फेंकेंगे, लेकिन केंद्रीय समिति के अन्य सदस्य इसके लिए राज़ी नहीं हुए.
इसलिए तय किया गया कि ये काम दूसरे लोग करेंगे, दो या तीन दिन बाद जब सुखदेव को इसका पता चला तो उन्होंने इसका घोर विरोध किया.
शिव वर्मा लिखते हैं, “जब सुखदेव केंद्रीय समिति के दूसरे सदस्यों को इसके लिए राज़ी नहीं कर पाए तो उन्होंने भगत सिंह से सीधे बात की. उन्होंने भगत सिंह के लिए कड़वे शब्दों का प्रयोग किया.”
“उन्होंने कहा, तुम में दंभ आ गया है. तुम समझने लगे हो कि पार्टी सिर्फ़ तुम पर निर्भर हो गई है. तुम्हें मौत से डर लगने लगा है. तुम डरपोक हो गए हो.”
“जब तुम मानते हो कि पार्टी के आदर्शों को तुमसे बेहतर कोई नहीं पेश कर सकता, तो तुमने केंद्रीय समिति को ये फ़ैसला क्यों लेने दिया कि कोई दूसरा असेंबली में बम फेंकेगा.”
शिव वर्मा ने लिखा, सुखदेव ने क्रांतिकारी परमानंद के बारे में लाहौर हाई कोर्ट के एक फ़ैसले का हवाला दिया, जिसमें कहा गया था कि वे निजी तौर पर डरपोक थे, इसलिए अपना जीवन बचाने के लिए उन्होंने दूसरों को आगे कर दिया.
उन्होंने भगत सिंह से कहा, “एक दिन तुम्हारे बारे में भी यही सब लिखा जाएगा.”
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सुखदेव के कहने पर भगत सिंह को चुना गया
जैसे-जैसे भगत सिंह इसका विरोध करते रहे, सुखदेव के शब्द तीखे होते चले गए.
जब भगत सिंह ने कहा कि तुम मेरा अपमान कर रहे हो, सुखदेव ने जवाब दिया, “मैं अपने दोस्त के प्रति सिर्फ़ अपना कर्तव्य निभा रहा हूँ.”
भगत सिंह के अनुरोध पर केंद्रीय समिति की एक बार फिर बैठक बुलाई गई. इस बैठक में सुखदेव बिना एक शब्द बोले बैठे रहे.
भगत सिंह के ज़ोर देने पर केंद्रीय समिति ने अपना फ़ैसला बदल दिया और उन्हें असेंबली में बम फेंकने के लिए चुन लिया गया.
सुखदेव बिना एक शब्द बोले उसी शाम लाहौर के लिए रवाना हो गए. बाद में दुर्गा भाभी ने अपने संस्मरणों में लिखा, “जब सुखदेव अगले दिन लाहौर पहुंचे तो उनकी आँखें सूजी हुई थी. शायद वो रोते रहे थे.”
“उन्होंने किसी से बात नहीं की, लेकिन वो अंदर से हिले हुए थे. उन्होंने अपने सबसे प्रिय मित्र से अपना लक्ष्य हासिल करने के लिए कहा था.”
“उनको पता था कि गिरफ़्तार होने के बाद भगत सिंह का जीवित जेल से बाहर आना लगभग असंभव था.”
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भगत सिंह और राजगुरु फांसी के फंदे की तरफ बढ़े
घटना के कुछ दिनों बाद सुखदेव को भी गिरफ़्तार कर लिया गया. लाहौर कॉन्सपिरेसी केस में उन पर मुक़दमा चलाया गया और उन्हें भगत सिंह और राजगुरु के साथ फाँसी की सज़ा सुनाई गई.
पहले तय हुआ कि इन तीनों को 24 मार्च को फाँसी दी जाएगी, लेकिन फिर सरकार ने 12 घंटे पहले ही 23 मार्च को उन्हें फाँसी पर लटकाने का फै़सला किया.
जब उनके वकील प्राण नाथ मेहता उनसे मिलने आए, तो उन्होंने उनसे कहा कि वो जेलर से कैरम बोर्ड वापस ले लें.
भगत सिंह, राजगुरु और सुखदेव ने सरकार से माँग की थी कि उन्हें राजनीतिक कैदी के तौर पर फ़ायरिंग स्क्वाड से मारा जाए और अपराधियों की तरह फाँसी की सज़ा न दी जाए. लेकिन सरकार ने उनकी बात नहीं मानी थी.
सतविंदर सिंह जस अपनी किताब ‘द एक्सेक्यूशन ऑफ़ भगत सिंह’ में लिखते हैं, “भगत सिंह, सुखदेव और राजगुरु हाथों में हाथ डाले फाँसी के तख़्ते की तरफ़ बढ़े.”
“भगत सिंह बीच में थे, सुखदेव उनके बाएँ और राजगुरु उनके दाहिने चल रहे थे. उनके आगे-आगे संतरी चल रहे थे.”
“अचानक उन्होंने अपना पसंदीदा आज़ादी का तराना गाना शुरू कर दिया. ‘दिल से निकलेगी ना मरकर भी वतन की उल्फ़त, मेरी मिट्टी से भी खुशबू-ए-वतन आएगी’.”
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सबसे पहले सुखदेव की हुई फाँसी
कुलदीप नैयर लिखते हैं, “तीनों लोगों का बारी-बारी से वज़न लिया गया और फिर उनसे आख़िरी स्नान करने के लिए कहा गया. उसके बाद उन सबको काले कपड़े पहनाए गए. उनके चेहरे को ढका नहीं गया.”
“उनके दोनों हाथ और पैर बँधे हुए थे. उन सबने अपने गले में पड़ी रस्सी को चूमा. जल्लाद मसीह ने उन सबसे पूछा, सबसे पहले फाँसी पर कौन चढ़ेगा? सुखदेव ने कहा, वो सबसे पहले फाँसी पर चढ़ेंगे.”
डॉक्टरों लेफ़्टिनेंट कर्नल जेजे नेल्सन और एनएस सोधी ने उनकी जाँच कर उन तीनों को मृत घोषित कर दिया.
एक जेल अधिकारी इन बहादुर लोगों के साहस से इतना प्रभावित हुआ कि उसने उनके शवों को पहचानने के आदेश को मानने से इनकार कर दिया. उसे उसी समय निलंबित कर दिया गया.
पहले सबका अंतिम संस्कार जेल के अंदर ही करने की योजना थी, लेकिन जेल के बाहर खड़ी हज़ारों लोगों की भीड़ को देखते हुए सरकार को ये फ़ैसला बदलना पड़ा.
रात होते-होते जेल की पिछली दीवार तोड़कर एक ट्रक अंदर लाया गया और उनके शवों को बाहर निकाला गया.
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