- Author, विष्णुकांत तिवारी
- पदनाम, बीबीसी संवाददाता
-
झारखंड की राजधानी रांची से 415 किलोमीटर दूर साहिबगंज ज़िले के बोरियो विधानसभा का जेटकेकुमारजोरी गांव…
जहां एक बीमार महिला को कुछ लोग खाट पर लिटाकर अस्पताल ले जा रहे हैं. आदिवासी बहुल झारखंड राज्य की ये तस्वीरें विचलित कर देने वाली हैं.
पहाड़िया समुदाय बहुल इस गांव में केंद्र और राज्य सरकार के तमाम दावे, ये अकेली तस्वीर झुठला रही है. इस महिला को डायरिया की शिकायत हुई थी और कुछ ही दिनों में उनकी हालत बिगड़ने लगी.
अस्पताल ले जाने के लिए एंबुलेंस को बुलाया गया, लेकिन ड्राइवर ने सड़क न होने के कारण गांव तक आने से इनकार कर दिया. जैसे-तैसे ग्रामीणों ने गांव से ही खाट पर लिटाकर महिला को अस्पताल तक पहुंचाया.
बड़ी मुश्किल से उस महिला की जान बचाई जा सकी.
पहाड़िया समुदाय (जो कि सरकार द्वारा घोषित विशेष रूप से कमज़ोर आदिवासी समूहों में आता है) और इस समुदाय की महिलाएं अपनी मूलभूत ज़रूरतों को लेकर बात करती हुई बेहद ग़ुस्से में आ जाती हैं.
गांव की इकलौती कॉलेज में पढ़ने वाली स्नेहलता मालतो ग़ुस्से में कहती हैं, “चुनावों के दौरान हमसे लाख वादे किए जाते हैं और हमारे वोट करने के बाद कोई झांकने तक नहीं आता.”
“हमने अपने इलाके के विधायक और सांसद को आज तक नहीं देखा.”
लगभग 70 पहाड़िया परिवार वाले गांव की स्नेहलता कहती हैं कि, “चुनावी मुद्दों की क्या बात करें? इतने सालों बाद भी हमारे गांव में पीने का साफ़ पानी नहीं, सड़क की सुविधा नहीं है.”
“और तो और हम महिलाओं को आज भी खुले में शौच करना और नहाना पड़ता है. मैं तो पढ़ी-लिखी हूं, खुले में नहाना पड़ता है, ये सोचकर रोज़ बुरा लगता है.”
स्नेहलता की पड़ोसी, 36 साल की मंजू मालतो जो अब तक पेड़ के सहारे खड़े होकर हमारी चर्चा को बस सुन रही थीं, अचानक से बोल पड़ती हैं…
“सबसे पहले तो हमारे यहां सड़क की बहुत बड़ी समस्या है…सड़क रहेगी तो हर कठिनाई का सामना कर सकते हैं, तुरंत अस्पताल पहुंचा जा सकता है.”
वो कहती हैं, “चाहे किसी को दिल का दौरा पड़ जाये या फिर डायरिया हो जाए, यहां सब बीमारी बराबर हैं क्योंकि अस्पताल पहुंचना ही इतना मुश्किल है कि छोटी बीमारी भी जानलेवा बन जाती है.”
गांव के लोग इस बात से नाराज़ हैं कि आज़ादी के इतने सालों बाद भी उनके लिए सड़क नहीं बन पाई है.
कौन हैं पहाड़िया समुदाय के लोग?
पहाड़िया समुदाय के लोग मुख्य तौर पर झारखंड और ओडिशा में रहते हैं. झारखंड के संथाल परगना में ये लोग ज़्यादा संख्या में रहते हैं. ये लोग मुख्य तौर पर मक्का की खेती करते हैं.
साल 2016 में तत्कालीन जनजातीय मामलों के मंत्री ने लोकसभा में एक सवाल का जवाब देते हुए बताया था कि झारखंड में पूरे पहाड़िया समुदाय की कुल आबादी दो लाख से कुछ अधिक है.
स्थानीय पत्रकार संतोष कुमार कहते हैं, “इन दो लाख से कुछ अधिक लोगों के लिए, इनमें खासतौर पर महिलाओं के लिए जीवन बहुत कठिन है.”
“समूची सरकारी सेवाएं पहाड़ों पर चढ़ने से कतराती हैं, जहां मुख्य तौर पर पहाड़िया लोग रहते हैं. यही वजह है कि इस समुदाय के लोग आज भी विकास के मामलों में बहुत पीछे हैं.”
पानी के लिए कई किलोमीटर पैदल चलना पड़ता है
झारखंड में पहले चरण का चुनाव 13 नवंबर को हो चुका है. अब 20 नवंबर को दूसरे चरण का चुनाव है. 23 नवंबर को नतीजों का एलान होगा.
विधानसभा चुनावों के दौरान बीबीसी की टीम राज्य के संथाल परगना के इलाकों में ये जानने के लिए पहुंची कि आखिर पहाड़िया आदिवासी महिलाओं की समस्याएं चुनावों का हिस्सा हैं भी या नहीं.
साहिबगंज से सटे पाकुड़ ज़िले के पुसुरभीटा गांव में पीने का पानी लाने के लिए लोगों, ख़ासतौर पर महिलाओं को कई किलोमीटर पैदल जाना पड़ता है.
इसी गांव की 24 साल की दुक्की पहाड़िया उस वक्त इतवार की मसीही प्रार्थना सभा से लौट रही थीं. वह कहती हैं, “हम लोग बचपन से गांव के पास ही एक नाले से पानी पी रहे हैं. हमसे पहले भी लोग वहीं से पानी पीते रहे हैं. कुछ समय पहले गांव में एक पानी की टंकी बनवाई गई थी लेकिन उसमें कभी पानी आया नहीं.”
जटके कुमारजोरी या पुसुरभीटा की कहानी इस इलाक़े के अन्य पहाड़िया आदिवासियों के गांव से अलग नहीं है. हम जटके कुमारजोरी से निकले तो बीरबल कान्दर पंचायत के टंडोला पहाड़ गांव पहुंचे.
ये भी विशेष रूप से कमज़ोर पहाड़िया जनजाति का गांव हैं और यहां इस समुदाय के लगभग 30 घर हैं.
महिलाओं से बात करने पर समस्याएँ लगभग एक जैसी ही सुनने को मिलती हैं.
26 साल की शांति पहाड़िया कहती हैं, “सभी पहाड़िया घरों के लिए जीवन जीने में बहुत दिक्कत है… आप लोग भी तो अभी नदी पार करके और पैदल चलकर आए हैं?”
“वैसे ही हम लोगों को रोज़ चलना पड़ता है. अगर कोई महिला बीमार हो जाए तो उसे खटिया पर ले जाना पड़ता है. शौच के लिए भी हमें जंगल जाना पड़ता है, जहां सांप-बिच्छू का भी खतरा बना रहता है.”
लड़कियों को शिक्षा मुहैया नहीं
इसी गांव की आशा वर्कर, मानती पहाड़िया ने हमें बताया कि “हमारे गांव में न तो पीएम आवास योजना के तहत घर बने हैं, न ही कोई पानी की व्यवस्था है.”
“पूरे गांव के लिए एक हैंडपंप लगा है, वो भी आए दिन सूख जाता है. गर्मियों में बहुत दूर से पानी लाना पड़ता है. आप लोग कह रहे हैं कि सरकार बहुत खर्च करने का दावा कर रही है तो वो पैसे कहां जा रहे हैं?”
मानती आगे कहती हैं, “पहाड़िया लोग पहाड़ में ही हैं, नीचे नहीं है. न कोई विधायक, न कोई सरकारी अफ़सर, इन पहाड़ों पर चढ़ना चाहता है. कोई यहां नहीं आता.”
“पहाड़ी गांव जाकर हम पहाड़िया लोगों की समस्याओं को सुनने वाला कोई नहीं है.”
टंडोला पहाड़ गांव में भी शिक्षा का खासा अभाव देखने को मिला. गांव में कुछ लड़कों ने ही बस कॉलेज में दाखिला लिया है और लड़कियों में से अधिकतर ने कक्षा पांच के आगे कभी स्कूल नहीं देखा.
बच्चे अन्य पहाड़िया गांव के जैसे ही यहां भी कमज़ोर और स्कूलों से बाहर दिखाई पड़े. ग्रामीणों से पूछने पर उन्होंने बताया कि उनके यहां स्कूल दूर है और रोड नहीं है इस कारण भी बच्चे स्कूल नहीं जाते हैं.
पुसुरभीटा गांव में जब हमने महिलाओं से पूछा कि क्या गांव में कोई ऐसी लड़की है जिसने दसवीं तक पढ़ाई की हो, तो एक स्वर में जवाब मिलता है, नहीं.
पाकुड़ ज़िले में राष्ट्रीय स्वास्थ्य सर्वेक्षण 2019-21 की रिपोर्ट के मुताबिक, पूरे ज़िले की 15-49 साल की महिलाओं में सिर्फ 13.6 प्रतिशत महिलाओं ने 10 साल या उससे अधिक स्कूल में पढ़ाई की है.
मानती से जब हमने उनके पेशे और उससे होने वाली आय की बात की तो वो कहती हैं कि गांव की आशा होने के नाते उन्हें कुछ गांव में महिलाओं की डिलीवरी, जच्चा-बच्चा की सेहत का ख़्याल रखने के बदले में मानदेय मिलता है, लेकिन कोई पुख़्ता तनख़्वाह नहीं मिलती.
इसके अलावा मानती कहती हैं कि सरकारी उदासीनता के कारण गांव में शिक्षा, रोज़गार जैसी समस्याओं पर भी ध्यान नहीं दिया जाता है.
सरकारी दावे
स्नेहलता कहती हैं कि इतने वर्षों से उनके समुदाय ने वोट तो दिया लेकिन बदले में कुछ मिला नहीं.
खुले में नहाने को मजबूर स्नेहलता उस जगह को दिखाते हुए कहती हैं कि “कम से कम मेरे गांव में तो विकास नहीं पहुँचा”.
पहाड़िया समुदाय की सड़क, स्वास्थ्य, पानी आदि की समस्याओं के सवाल पर साहिबगंज के ज़िला अधिकारी हेमंत सती कहते हैं, “पहाड़िया समुदाय पीवीटीजी के अंतर्गत आता है और उनके विकास के लिए पीएम जनमन के नाम से एक समायोजित योजना चालू है और इस योजना के तहत पहाड़िया समुदाय के गाँवों तक रोड, बिजली, पानी, आवास, शौचालय जैसी सुविधाओं को पहुँचाने का प्रयास किया जा रहा है.”
उन्होंने यह भी दावा किया कि सभी पहाड़िया गाँवों में रोड और पानी पहुँचाने का रोडमैप तैयार कर लिया गया है.
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने नवंबर 2023 में पीवीटीजी समूहों (पिछड़े आदिवासी समूहों) पर 24,000 करोड़ रुपए खर्च करने की घोषणा की थी ताकि उनका जीवनस्तर बेहतर किया जा सके.
उन्होंने इसी झारखंड से पीएम जनमन योजना की शुरुआत की थी जिसके तहत तीन सालों में देश भर के पीवीटीजी समूहों की ज़िंदगी आसान करने और उन्हें ज़रूरी सुविधाएं मुहैया कराने की बात कही गई थी.
इनमें झारखंड के इन दुर्गम इलाकों में सड़कें बनाने का भी प्रावधान है.
अक्टूबर 2024 में उन्होंने हज़ारीबाग में एक जनसभा को संबोधित करते हुए दावा किया कि, “सिर्फ एक साल में ही पीएम-जनमन योजना ने झारखंड में अनेक उपलब्धियां हासिल की हैं.”
“सबसे पिछड़े 950 से अधिक गांवों में हर घर जल पहुंचाने का काम पूरा हो चुका है.”
हालांकि, इन बड़े-बड़े दावों से मिलती-जुलती कोई भी तस्वीर आपको पहाड़िया इलाकों में देखने को नहीं मिलेगी.
राज्य के वर्तमान मुख्यमंत्री हेमंत सोरेन जब विपक्ष में थे, तब उन्होंने तत्कालीन प्रदेश भाजपा सरकार पर पहाड़िया समुदाय की उपेक्षा करने का आरोप लगाया था.
लेकिन, सोरेन की झारखंड मुक्ति मोर्चा पिछले पांच सालों से सत्ता में है और इस दौरान भी पहाड़िया समुदाय के हालात नहीं बदले हैं.
विकास के तमाम वादों और हज़ारों करोड़ रुपए खर्च होने के बाद भी विकास की कमी का ख़ामियाज़ा यहां महिलाओं को सबसे ज़्यादा भुगतना पड़ता है.
इतने सालों की उपेक्षा के बावजूद पहाड़िया समुदाय के कुछ लोग, कई महिलाएँ एक बार फिर इस उम्मीद में है कि शायद इस बार झारखंड विधानसभा चुनाव के बाद उन्हें उनका हक़ मिले.
बीबीसी के लिए कलेक्टिव न्यूज़रूम की ओर से प्रकाशित