इमेज स्रोत, Getty Images
पिछले कुछ सालों के दौरान कई देशों को अपनी अर्थव्यवस्था संभालने में काफी दिक्कतें हो रही हैं.
कोविड महामारी और यूक्रेन युद्ध की वजह से महंगाई आसमान छू रही है. कपड़े, खाद्य सामग्री, गैस और बिजली से लेकर कई चीजों की कीमतें बढ़ गई हैं. इसे नीचे लाना मुश्किल हो रहा है.
बढ़ती कीमतों के कारण घरेलू बजट ही नहीं गड़बड़ाया है बल्कि उद्योगों के लिए निवेश मिलना भी मुश्किल हो गया है. पिछले साल यह आशा थी कि महंगाई पर लगाम लग जाएगी लेकिन नए डेटा ने इस उम्मीद पर पानी फेर दिया है.
जनवरी में अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष की प्रबंध निदेशक क्रिस्टलीना जॉर्जीवा ने स्वीकार किया है कि हम महंगाई पर काबू पाने में कामयाब नहीं हुए. इसलिए इस सप्ताह हम दुनिया जहान में यही जानने की कोशिश करेंगे कि हम बढ़ती महंगाई को रोकने में कितना सफल हो रहे हैं?
मंहगाई क्या है?
एचएसबीसी बैंक के वरिष्ठ आर्थिक सलाहकार और ‘लेट्स टाक अबाउट इन्फ़्लेशन’ किताब के लेखक स्टीफ़न किंग ने लिखा है कि कोविड महामारी के बाद से लगभग सभी चीज़ों की कीमतें बढ़ गई हैं. महंगाई नीचे आने का नाम नहीं ले रही है.
हमने उनसे पूछा कि वो महंगाई को कैसे परिभाषित करेंगे?
उन्होंने कहा, “मिसाल के तौर पर सामान्यत: चीजों की कीमत और वेतन में बढ़ोतरी पांच फीसदी बढ़ती है तो पिछले साल के मुकाबले इस साल के अंत तक आपके पैसे की कीमत कम हो जाती है. यानी घर चलाने के लिए आप जो सामान ख़रीदते हैं उसकी कीमत अब बढ़ गई है और आपके पैसे की सामान ख़रीदने की क्षमता घट गई है.”
महंगाई को आंकने के हमारे तरीके कितने कारगर हैं और क्या इसमें ख़ामियां भी हो सकती हैं?
इस पर स्टीफ़न किंग कहते हैं कि इसे ऐसे समझा जा सकता है कि रोज़मर्रा की ज़रूरतों का कुछ सामान ख़रीदने के लिए हमें हर महीने कितने डॉलर या यूरो खर्च करने पड़ते हैं. इन वस्तुओं की कीमत पर लगातार नज़र रखी जाती है. इसके ज़रिए हम देख सकते हैं की कीमतें कितनी ऊपर जा रही हैं और पैसे की कीमत कितना घट रही है.
“इसमें समस्या यह है कि जिन चीज़ों की कीमतों और सेवाओं को मापदंड माना जाता है वो व्यक्तिगत भी हो सकता है. हर आदमी की ज़रूरतें अलग होती हैं और हर आदमी उन पर अलग तरह से पैसे खर्च करता है. ऐसे में सबके लिए एक मापदंड अपनाना ग़लत भी हो सकता है.”
महंगाई की ऊंची दर का समाज पर क्या असर पड़ता है?
इसे लेकर स्टीफ़न किंग ने कहा कि इससे कई प्रकार की सामाजिक समस्याएं खड़ी होती हैं. “महंगाई दरअसल संपत्ति का मनमाना बंटवारा है.”
वह बताते हैं कि मिसाल के तौर पर अगर आपने कर्ज ले रखा है और आपकी तनख्वाह साल दर साल बढ़ रही है तो आपका कर्ज कम होता जाता है. यानी जिन्होंने कर्ज लिया है उनके लिए महंगाई अच्छी है.
जिन्होंने कैश की बचत कर रखी है उनके लिए हो सकता है कि उनके पैसे की कीमत घट जाए. ऐसे में महंगाई, कर्ज लेने वालों की दोस्त और कर्जदाताओं की दुश्मन है.
वस्तुओं की बढ़ती कीमत से काफ़ी नुकसान हो सकता है. हमने वेनेज़ुएला और अर्जेंटीना में देखा है की महंगाई ने किस तरह से लोगों की ज़िदगी को दूभर बना दिया.
ऐसे में सवाल यह है कि पिछले कुछ सालों में मंहगाई का दुनिया पर क्या असर पड़ रहा है?
महंगाई की तस्वीर
इमेज स्रोत, Getty Images
सेंटर फ़ॉर इकोनॉमिक्स एंड बिज़नेस रीसर्च की प्रमुख आर्थिक सलाहकार विकी प्राइस बताती हैं कि लगभग पंद्रह सोलह साल पहले कई नीतिकारों की चिंता महंगाई नहीं बल्कि वित्तीय संकट के बाद अर्थव्यवस्था को पटरी पर लाने और बैंकों को डूबने से बचाने की थी.
“विश्व आर्थिक संकट के बाद उद्योगों को भारी नुकसान हुआ और अर्थव्यवस्था को बचाने के लिए बड़े पैमाने पर आर्थिक सहायता दी गई. धीरे-धीरे स्थिति सामान्य होने लगी तो कोविड महामारी फैल गई.”
कोविड महामारी एक ऐसा दौर था जिसे कई लोगों ने अपने जीवन में पहली बार देखा था. लोग सामान ख़रीदने के लिए घर से बाहर नहीं निकल पा रहे थे और कंपनियां उत्पादन नहीं कर पा रहीं थी.
इससे अचानक मांग और आपूर्ति कम हो गई. कंपनियों का काम बंद हो गया और विमान यात्राएं ठहर गईं. इससे तेल की ज़रूरत कम हो गई.
विकी प्राइस कहती हैं कि, ” तेल की कीमत बिल्कुल गिर गई थी. मुझे याद है कि एक समय तेल की कीमत माइनस 37 डॉलर प्रति बैरल हो गई यानी तेल निर्माता तेल टैंकरों को केवल तेल संभालकर रखने के पैसे दे रहे थे और हालात बदलने का इंतज़ार कर रहे थे क्योंकि हवाईयात्रा कम हो गई थी और लोग कहीं आ जा नहीं रहे थे.”
कई देशों ने महामारी के दौरान जीविका के लिए जनता को आर्थिक सहायता भी दी. मगर सवाल था कि वो पैसे कहां खर्च करें क्योंकि कंपनियों में वस्तुओं का उत्पादन ठप पड़ा था.
विकी प्राइस के अनुसार, हुआ यह कि मांग बढ़ गई लेकिन सप्लाई की समस्या सामने आ खड़ी हुई और स्थित जल्द सामान्य नहीं हो पा रही थी जिसकी वजह से कीमतें बढ़ने लगी.
महंगाई उस स्तर पर पहुंच गई जहां दशकों तक नहीं पहुंची थी यानी मांग बढ़ जाए और आपूर्ति घट जाए तो चीज़ों की कीमत बढ़ जाती है.
अब आप सोचेंगे कि स्थिति के सामान्य होते ही फ़ैक्ट्रियां उत्पादन तेज़ कर देंगी तो यह समस्या समाप्त हो जाएगी. जब स्थिति सुधरने लगी थी तभी फ़रवरी 2020 में यानी कोविड महामारी की शुरुआत होने के लगभग दो साल बाद, रूस ने यूक्रेन पर हमला कर दिया.
इसकी वजह से तेल और गैस की किल्लत पैदा हो गई. इससे भी उनकी कीमत बढ़ गई. इसके कारण कई अन्य वस्तुओं की कीमत भी बढ़ने लगी.
विकी प्राइस ने कहा कि, “पश्चिमी देशों और विश्व के दूसरे हिस्सों में महंगाई बढ़ने का प्रमुख कारण तेल, गैस और बिजली की कीमत में आया उछाल था. दूसरा था खाद्य सामग्री की कीमतों में हुई वृद्धि.”
दस साल में पहली बार दुनिया में नीतिकारों को बड़े कदम उठाने पड़े. हालांकि उनकी इस बात को लेकर आलोचना भी हुई कि वो स्थिति का अनुमान लगाकर जल्द कदम उठाने में नाकामयाब रहे.
अब हो यह रहा था कि लोग काम पर लौट आए लेकिन महंगाई के कारण अधिक वेतन की मांग कर रहे थे जिससे हालात और पेचीदा हो गए.
विकी प्राइस कहती हैं कि पिछले दो तीन सालों में पश्चिमी देशों में महंगाई की दर कम तो हुई है लेकिन अभी भी सरकारें लक्ष्य से दूर हैं.
उनके अनुसार अगर ब्याज दर सही समय पर कम नहीं हुई तो लोग निवेश से कतराने लगेंगे क्योंकि उन्हें अपने निवेश का सही लाभ ना हो तो निवेश करने का कोई मकसद नहीं होगा. इससे दिक्कतें आ सकती हैं.
महंगाई से लड़ने के प्रयास
इमेज स्रोत, Getty Images
जब ब्याज दर बढ़ाने से मंदी का ख़तरा है तो वैश्विक नीतिकार महंगाई पर नियंत्रण पाने के लिए ब्याज दर बढ़ाने का रास्ता क्यों अपनाते हैं?
डच बैंक आईएनजी की प्रमुख अर्थशास्त्री मैरिके ब्लोम कहती हैं, “केंद्रीय बैंक ब्याज दर नीति को नियंत्रित करती है. जब केंद्रीय बैंक ब्याज दर बढ़ाता है तो इसका असर आम लोगों के परिवार पर ही नहीं बल्कि कंपनियों और सरकार पर भी पड़ता है. वहीं इसका असर मुद्रा विनिमय दर पर भी पड़ता है. इसका अप्रत्यक्ष परिणाम यह होता है कि मांग कम हो जाती है.”
ब्याज दर केंद्रीय बैंक तय करती है. अगर ब्याज दर कम हो जाए तो आम लोग और कंपनियां अधिक कर्ज लेने के लिए प्रोत्साहित होती हैं क्योंकि कर्ज़ सस्ता हो जाता है.
वैश्विक वित्तीय संकट के बाद केंद्रीय बैंकों ने यही किया था ताकि लोग अधिक खर्च करें और अर्थव्यवस्था बढ़ने लगे. वहीं अगर ब्याज दर बढ़ जाए तो और उसका प्रभाव बिल्कुल उल्टा पड़ता है जैसा कि 2023 में हुआ था.
मैरिके ब्लोम कहती हैं कि इससे लोगों के मकान के कर्ज़ की किस्तें बढ़ जाती हैं. नतीजतन लोगों के पास दूसरी वस्तुएं ख़रीदने के लिए कम पैसे बचते हैं और इससे उन वस्तुओं की मांग घट जाती है.
यही बात कंपनियों पर भी लागू होती है. मिसाल के तौर पर अगर किसी कंपनी को कर्ज लेकर नई फ़ैक्ट्री लगानी हो तो उसके लिए बढ़ी हुई ब्याज दर की वजह से फ़ैक्ट्री लगाने का खर्च बढ़ जाता है और इसके लिए वो निवेश कम कर देती हैं.
दूसरी तरफ़ अगर सरकारों को अपने कर्ज पर अधिक ब्याज देना पड़ता है जिससे उसके पास दूसरे कामों के लिए कम पैसे बचते हैं. कुल मिलाकर अर्थव्यवस्था में पैसे का लेनदेन घट जाता है और यह धीमी पड़ जाती है.
इसका असर निर्यात पर भी पड़ता है. जब ब्याज दर बढ़ती है तो उस देश की मुद्रा की कीमत बढ़ जाती है. नतीजा यह होता है कि जो उत्पादक अपना माल निर्यात करते हैं उनका माल ग्राहकों के लिए महंगा हो जाता है और उसकी मांग घट जाती है. हालांकि यह अचानक नहीं होता.
मैरिके ब्लोम कहती हैं कि केंद्रीय बैंकों द्वारा ब्याज दर बढ़ाने के लगभग एक या डेढ़ साल में इसका प्रभाव दिखाई देने लगता है. केंद्रीय बैंकों के लिए भी ब्याज दर में बदलाव से होने वाले परणाम का सही अनुमान लगाना मुश्किल होता है.
इसकी एक पेचीदगी यह भी है कि मांग घटाने के लिए केंद्रीय बैंक ब्याज दर बढ़ा देती है लेकिन अगर सरकार खर्च बढ़ा दे तो दरअसल मांग कम होने के बजाय बढ़ जाती है.
मैरिके ब्लोम का कहना है कि ऐसा कई देशों में देखा गया है. ब्लोम ने कहा कि लंबे अरसे तक महंगाई दर कम रही है इसलिए नीतिकारों को लगा कि महंगाई का यह दौर लंबा नहीं खिंचेगा और उन्होंने इससे निपटने के लिए तुरंत कदम नहीं उठाए.
वहीं एक वजह यह भी है कि कोविड महामारी के दौरान कई लोग कम पैसे खर्च पाए थे. इसलिए उनके पास बचत अधिक थी और वो महंगी कीमत पर भी सामान ख़रीद कर गुजारा कर रहे थे. यानी अचानक मांग बढ़ गई थी, मगर आपूर्ति उस रफ़्तार से नहीं हो पा रही थी.
2021 में अमेरिका और यूरोप में महंगाई तेज़ी से बढ़ने लगी थी. मगर केंद्रीय बैंकों ने ब्याज दर बढ़ाना 2023 में शुरू किया. साल 2025 के शुरू होते होते महंगाई दर और ब्याज दर घटने लगी थी. इसके बावजूद महंगाई दर अभी तक कोविड महामारी से पहले के स्तर तक नीचे नहीं आई है.
जोखिम क्या हैं?
इमेज स्रोत, Getty Images
बढ़ती महंगाई की वजह से केंद्रीय बैंकों से भी अधिक चिंता निवेशकों को है. एक बात यह भी है कि रोज़गार के अवसरों में वृद्धि हुई है मगर श्रमिकों की कमी है जिसकी वजह से श्रमिक अधिक वेतन की मांग कर रहे हैं.
एक मायने में वेतन वृद्धि अच्छी बात है मगर इससे महंगाई भी बढ़ती है, टॉकिंग हेड्स मैक्रोइकॉनॉमिक्स के प्रमुख अर्थशास्त्री मनोज प्रधान के अनुसार पिछले कुछ सालों में चंद देशों को छोड़ कर दुनिया के अधिकांश देशों में बेरोजगारी की दर में एक प्रतिशत से अधिक वृद्धि नहीं हुई है.
बड़ी संख्या में प्रवासन के बावजूद विकसित देशों में श्रमिकों की किल्लत है. इस बात से पता चलता है कि बड़ी अर्थव्यवस्थाओं के विकास से वहां श्रमिकों की मांग बढ़ी है.
वहीं कोविड की महामारी के दौरान जिन लोगों ने काम छोड़ा था उनमें से कई काम पर नहीं लौटे हैं. मिसाल के तौर पर फ़रवरी 2020 के बाद से अमेरिका में श्रमिकों की संख्या में एक प्रतिशत गिरावट आई है यानि 30 लाख अमेरिकी लोगों ने काम करना बंद कर दिया है.
मनोज प्रधान के अनुसार डोनाल्ड ट्रंप के राष्ट्रपति बनने के बाद यह स्थिति और बिगड़ सकती है. “प्रवासन नीतियां बदलेंगी जो कि हम देख रहे हैं कि बदल रही हैं और विदेशी श्रमिकों को रोका जा रहा है, तो इससे श्रमिकों की किल्लत बढ़ेगी और नतीजतन अधिक वेतन बढ़ोतरी होगी. आने वाले दस सालों में लेबर मार्केट में जो होगा यह उसकी एक झलक मात्र है.”
दुनिया के कई देशों में बूढ़ी होती आबादी से भी महंगाई दर प्रभावित होगी क्यों कि उत्पादन करने वाले तो कम होंगे लेकिन माल सभी ख़रीदना चाहेंगे. मनोज प्रधान की राय है कि अगले दस से बीस सालों में जो आबादी काम कर रही है उसके लिए मांग और बढ़ती महंगाई पर लगाम लगाना मुश्किल हो जाएगा.
साल 2000 के बाद सामान की कीमतें कम रखने में सरकारों को कुछ कामयाबी हासिल हुई थी. इसकी एक वजह चीन से निर्यात होने वाला सस्ता माल था.
चीन 2001 में विश्व व्यापार संगठन या डब्लूटीओ में शामिल हो गया था. इससे केंद्रीय बैंकों का काम आसान हो गया था लेकिन वो दौर समाप्त होने जा रहा है.
अब नीतिकारों को दिखने लगा है कि ख़ास तौर पर पिछले दो तीन सालों में लेबर मार्केट जैसे दूसरे कारणों से भी ब्याज दर पर असर पड़ रहा है.
मनोज प्रधान कहते हैं कि महंगाई लगातार बनी हुई है इसलिए केंद्रीय बैंक तेज़ी से ब्याज दर घटा नहीं पाए हैं. ” हम एक पतली रस्सी पर चलने की कोशिश कर रहे हैं. ब्याज दर ऊंची रख कर हम महंगाई को नियंत्रित करने का प्रयास कर रहे हैं और चिंता भी है कि यह पासा उलटा भी पड़ सकता है. इसके विपरीत परिणाम भी हो सकते हैं. ऊंची ब्याज दर से अर्थव्यवस्था मंदी की ओर भी जा सकती है.”
तो अब लौटते हैं अपने प्रमुख प्रश्न की ओर- हम बढ़ती महंगाई को रोकने में कितना सफल हो रहे हैं? कोविड महामारी के बाद महंगाई बढ़ती गई और केंद्रीय बैंकों ने यह सोच कर ब्याज दर में सुधार करने के लिए जल्द कदम नहीं उठाया कि स्थिति जल्द ही सामान्य हो जाएगी.
दूसरी तरफ़ लोगों के वेतन और आय में वृद्धि के कारण मांग बढ़ गई. वहीं बूढ़ी होती आबादी के कारण श्रमिकों की संख्या घट रही है. जिस प्रकार की प्रवासन विरोधी नीतियां और निर्यात शुल्क वृद्धि की बात अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप कर रहे हैं उससे महंगाई और भी बढ़ सकती है.
फ़िलहाल तो लगता है कि महंगाई पर काफ़ी हद तक लगाम लगाई जा चुकी है लेकिन भविष्य बहुत ही अनिश्चित है. इसकी वजह से केंद्रीय बैंकों को पहले से अधिक सतर्क रहना पड़ेगा.
बीबीसी के लिए कलेक्टिव न्यूज़रूम की ओर से प्रकाशित