सुप्रीम कोर्ट ने की साक्ष्यों की जमकर तारीफ
जस्टिस सुधांशु धूलिया और प्रसन्ना बी वराले की पीठ ने फैसला सुनाते हुए कहा- हम साक्ष्यों की सराहना करते हैं। हम आपराधिक अपील में केरल हाईकोर्ट के 12 अप्रैल, 2011 के फैसले में कोई गलती नहीं ढूंढ़ पाए। ऐसे में हम इस नतीजे पर पहुंचे हैं कि मौजूदा अपील खारिज किए जाने योग्य है। अप्रैल, 2002 में हुई इन हत्याओं में माकपा के 5 लोग दोषी करार दिए गए थे। इन दोषियों में से एक की बाद में मौत हो गई थी।
केरल पुलिस को जमकर लिया आड़े हाथ
सुप्रीम कोर्ट में एडवोकेट अनिल कुमार सिंह श्रीनेत के अनुसार, सुप्रीम कोर्ट ने इस मामले की ठीक से जांच न करने के लिए केरल पुलिस की भी खिंचाई की। हालांकि, यह भी कहा कि आरोपी इसका फायदा नहीं उठा सकता, खासकर तब जब आरोपी के अपराध को साबित करने के लिए पर्याप्त सबूत हों। अक्सर पुलिस जल्दबाजी में मीडिया और प्रशासन के दबाव में आकर जांच करती है। आरोपपत्र में सटीकता नहीं होती है और जांच की प्रक्रियाओं में भी खामी होती है, जिससे कई बार आरोप तय करने के दौरान ही केस धड़ाम से गिर जाता है।
गलत जांच का फायदा आरोपी को नहीं
सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि रिकॉर्ड पर मौजूद पूरे सबूतों को पढ़ने से पता चलता है कि जांच उचित और अनुशासित तरीके से नहीं हुई है। ऐसे कई क्षेत्र हैं जहां उचित जांच से इसका मामला मजबूत हो सकता था। कानून का सिद्धांत बिल्कुल स्पष्ट है कि दोषपूर्ण जांच के कारण आरोपी व्यक्तियों को केवल उसी आधार पर लाभ नहीं मिलेगा।
चश्मदीदों के बयान और मेडिकल रिपोर्ट की अहमियत
पीठ ने कहा कि यह अदालत के अधिकार क्षेत्र में है कि वह अभियोजन पक्ष के जुटाए गए बाकी सबूतों जैसे कि चश्मदीदों के बयान, मेडिकल रिपोर्ट वगैरह पर विचार करे। इस अदालत का यह लगातार रुख रहा है कि आरोपी बरी होने का दावा नहीं कर सकता है।
अदालत ने की गवाह की गवाही की तारीफ
हालांकि अभियुक्तों के वकील ने अभियोजन पक्ष के गवाहों, विशेष रूप से चश्मदीदों की गवाही में भौतिक विरोधाभास का आरोप लगाया। तब अदालत ने कहा, हालांकि गवाहों के बयान में फर्क है, मगर यह मामूली है और ऐसी प्रकृति का नहीं है कि इसे आगे बढ़ाया जाए। अभियोजन पक्ष के गवाह 1, 2 और 4 का बयान ईमानदार, सच्चा और भरोसेमंद था।
अदालत में सबूत का मानक क्या होता है
सु्प्रीम कोर्ट में एडवोकेट अनिल कुमार सिंह श्रीनेत कहते हैं कि किसी अदालत में सबूत का मानक उचित संदेह से परे होता है। इसका मतलब है कि अभियुक्त को कथित अपराध के हर एक तत्व को उचित संदेह से परे साबित करना होता है। अगर अभियुक्त ऐसा नहीं कर पाता, तो कोर्ट को दोषी दिए जाने के फैसले के पीछे जिम्मेदार नहीं ठहरा सकता है।
आपराधिक मामलों में किस तरह के सबूत मान्य होते हैं
अनिल सिंह बताते हैं कि अदालत में सबूत कई तरह के हो सकते हैं। दस्तावेज, ध्वनि और वीडियो रिकॉर्डिंग और गवाहों के बयान अहम माने जाते हैं। गवाह वह व्यक्ति होता है जिसने अपराध देखा हो या अपराध का शिकार हुआ हो। इसके अलावा, हत्या या रेप के मामलों में डीएनए जांच और फिंगरप्रिंट जैसी फोरेंसिक तकनीकों को सबसे सटीक माना जाता है।
और किस तरह के सबूत कोर्ट में माने जाते हैं अहम
मजिस्ट्रेट के सामने गवाहों के बयान दर्ज किए जाते हैं और उन पर गवाह के हस्ताक्षर होते हैं। इसके अलावा, पुलिस रिपोर्ट और लैब रिपोर्ट का इस्तेमाल अभियोक्ता या प्रतिवादी मुकदमे के दौरान कर सकते हैं। साथ ही पूर्व-सज रिपोर्ट भी मान्य होती है। इस रिपोर्ट में प्रतिवादी की पृष्ठभूमि, उसका आपराधिक इतिहास और मामले से जुड़े तथ्य शामिल होते हैं।
अवैध तरीके से हासिल साक्ष्य को नहीं मानता कोर्ट
अदालत में गवाह की ओर से दी गई जानकारी को गवाही कहा जाता है। गवाह को किसी मामले के बारे में सवालों के जवाब देने के लिए अदालत में बुलाया जाता है। अगर कोई गवाह ऐसी भाषा में गवाही देता है जो अभियुक्त की भाषा नहीं है, तो अभियुक्त या उसका वकील दुभाषिया की मांग कर सकता है।
अवैध रूप से प्राप्त किए गए साक्ष्य को अदालत में स्वीकार नहीं किया जाता।
अभियोजन पक्ष पर होता है सबूत जुटाने का बोझ
आपराधिक मामले में अभियोजन पक्ष पर कानूनी रूप से सबूत पेश करने का भार होता है। इसका मतलब यह है कि अभियुक्त (प्रतिवादी) के अपराध को उचित संदेह से परे साबित करने की जिम्मेदारी अभियोजन पक्ष पर होती है। यह भार आपराधिक न्याय प्रणाली का एक मूलभूत सिद्धांत है और अभियुक्त के अधिकारों की रक्षा करने का काम करता है।