“अब मेरा सिर ऊंचा हो गया है. हम भी आप लोगों (भारतीयों) के बराबर हो गए. पहले बैंक का अकाउंट नहीं था. राशन कार्ड नहीं था. 40 साल तक डरे-डरे रहे. लेकिन, अब हमको भी भारतवासी जैसी सारी सुविधा मिलेगी.”
यह बात 61 साल की सुमित्रा रानी साहा ने मुझसे कही. हमारी तीन घंटे की मुलाक़ात में उन्होंने यह बात कई बार दोहराई. उनकी आंखें खुशी में बरसने को बेताब दिख रही थी.
ऐसा लग रहा था, जैसे होंठों पर मुस्कराहट ने अपना परमानेंट घर 3 जनवरी से बना लिया है.
3 जनवरी, 2025 यानी वो दिन जब सुमित्रा को 40 साल के लंबे इंतज़ार के बाद भारत की नागरिकता मिल गई.
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वो बिहार की पहली नागरिक बन गई हैं, जिन्हें नागरिकता संशोधन अधिनियम, 2019 के तहत नागरिकता मिली है.
बिहार के आरा शहर के टाउन थाना के पास स्थित उनकी इलेक्टॉनिक सामान की दुकान है. जब से सुमित्रा को भारतीय नागरिकता मिली है, तभी से वहां मीडिया वालों की भीड़ लगी है.
सुमित्रा की बेटी ऐश्वर्या प्रसाद कहती हैं, “सारे मीडिया वाले आ रहे हैं. इस ठंड में हम लोग परेशान हो गए हैं, सबको इंटरव्यू देते-देते.”
क्या है मामला?
सुमित्रा के पहले भारतीय, फिर बांग्लादेशी और अब दोबारा भारतीय बनने की कहानी कुछ इस तरह है.
सुमित्रा रानी साहा का जन्म कटिहार में हुआ था. उनके माता–पिता कटिहार में ही रहते थे.
पिता मदन गोपाल चौधरी के चार बच्चे थे. मदन गोपाल चौधरी की आर्थिक स्थिति ठीक नहीं थी और बांग्लादेश के राजशाही में रहने वाली उनकी बहन रुक्मिणी देवी की कोई औलाद नहीं थी.
राजशाही, भारत-बांग्लादेश की सीमा पर स्थित एक शहर है. बिहार के कटिहार से महज 206 किलोमीटर दूर राजशाही को बड़ा व्यावसायिक और शैक्षणिक केन्द्र माना जाता है.
सुमित्रा बताती हैं, “जब मैं पांच साल की थी, तो बुआ मुझे राजशाही ले गई. उस वक्त लगता था कि बुआ के साथ घूमने जा रही हूं. लेकिन, बुआ ने मुझे वहीं पढ़ाया-लिखाया.”
“जब मैं दसवीं में पढ़ रही थी, तो वहां पर हिंदू लड़कियों के साथ अत्याचार हो रहा था. बुआ ने पिताजी को फोन करके कहा कि अब मैं इसे नहीं पढ़ाऊंगी और शादी कर दूंगी.”
“लेकिन, मेरे पिता ने कहा कि मैं इसकी शादी भारत में ही करूंगा. तब तक मेरे सारे कागज़ बांग्लादेश के बन गए थे और मैं भारतीय से बांग्लादेशी नागरिक बन गई थी.”
पिता मदन गोपाल चौधरी की जिद पर बुआ रुक्मिणी ने सुमित्रा का पासपोर्ट बनवाया.
इस तरह सुमित्रा 27 जनवरी 1985 को अपने मूल घर कटिहार वापस आ गई. 10 मार्च 1985 को उनकी शादी बिहार के भोजपुर (आरा) ज़िले के व्यवसायी परमेश्वर प्रसाद से हो गई.
साल दर साल बनवाती रहीं वीज़ा
इस दंपति की तीन बेटियां हुईं, जिनमें से प्रियंका और प्रियदर्शिनी की शादी हो चुकी है. जबकि ऐश्वर्या अविवाहित है और फिलहाल अपनी मां सुमित्रा के साथ आरा शहर में रहती हैं.
सुमित्रा की बेटी ऐश्वर्या प्रसाद बताती है, “बचपन में जब मालूम चला कि मेरी मम्मी बांग्लादेश से आई है, तो स्कूल जाकर बताया. मेरी सारी दोस्तों को लगा कि मेरे पापा ने लव मैरिज की है.”
“स्कूल में जो मेरे दोस्त थे, वो मेरी मम्मी को देखने घर आते थे और उनसे बांग्ला की कहावतें सीखते थे. बहुत एक्साइटमेंट होता था.”
सुमित्रा शादी के बाद से ही साल दर साल एंट्री वीज़ा लेकर भारत में रहती रहीं. हालांकि, नियमानुसार वो शादी के सात साल बाद ही नागरिकता ले सकती थीं.
दरअसल, भारतीय नागरिकता अधिनियम 1955 की धारा 5 में रजिस्ट्रेशन द्वारा नागरिकता मिलने का प्रावधान है.
धारा 5 (1) (ग) में लिखा है, “कोई व्यक्ति जो भारत के किसी नागरिक से विवाहित हो और रजिस्ट्रीकरण के लिए आवेदन करने के सात वर्ष पूर्व से भारत में मामूली तौर पर निवासी हो.”
यानी सुमित्रा और इनका परिवार चाहता, तो इस धारा के तहत शादी के सात साल बाद ही आवेदन कर सकता था.
इस बारे में पूछने पर सुमित्रा बताती हैं, “मेरे पति को लगता था कि सब ऐसे ही हो जाएगा. उनकी मृत्यु से पहले कोई दिक्कत आई भी नहीं. इसलिए उन्होंने बहुत दिलचस्पी नहीं ली और सब कुछ ऐसे ही चलता रहा.”
लॉकडाउन में शुरू हुईं परेशानियां
सुमित्रा को बांग्लादेशी पहचान से जुड़ी दिक्कतें साल 2010 में आनी शुरू हुई, जब उनके पति परमेश्वर प्रसाद की कैंसर से मौत हो गई.
सुमित्रा को अब अक्सर अपने रिश्तेदारों के ताने झेलने पड़ते हैं. इन तानों में कहीं ना कहीं ये धमकी भी छुपी थी कि उनकी बांग्लादेशी पहचान को उजागर करके उन्हें वापस भेज दिया जाएगा.
जैसा कि सुमित्रा की बेटी ऐश्वर्या प्रसाद बताती हैं, “पापा जब तक ज़िंदा थे, तब तक कोई बोलता नहीं था. लेकिन, उनकी मृत्यु के बाद से ही मेरी मां को बांग्लादेशी कहा जाने लगा.”
“मां को धमकी मिलने लगी कि तुमको आतंकवादी घोषित कर देंगे और 15 दिन के अंदर जेल भिजवा दिया जाएगा.”
“ये सब कुछ इसलिए किया जा रहा था, क्योंकि मेरा कोई भाई नहीं है और हमारे पास अच्छी प्रॉपर्टी है.”
दरअसल, सुमित्रा रानी साहा की आरा शहर के मुख्य बाजार की चित्रा टोली रोड में इलेक्ट्रॉनिक्स की दुकान है. इसी मुख्य बाजार में उनका घर भी है, जिसकी अच्छी कीमत है.
साल 2019 तक सब कुछ ऐसे ही चलता रहा. लेकिन, असल परेशानी शुरू हुई कोविड लॉकडाउन के दौरान, जब सुमित्रा का वीज़ा रिन्यू नहीं हुआ.
सुमित्रा बताती हैं, “इस वक्त रिश्तेदार ज़्यादा परेशान करने लगे. पुलिस भी आकर लगातार पूछताछ करती थी और कागज मांगती रहती थी.”
“हमारे पास यहां रहने का कोई अधिकार था नहीं और मेरा वीज़ा रिन्यू भी नहीं हुआ, और पासपोर्ट तो 1986 में ही एक्पायर हो गया था. हम कहां जाएं, ये सोच-सोच कर रोते थे.”
“बांग्लादेश में बुआ तो बहुत पहले गुज़र गई थी. वहां कोई था ही नहीं. उस वक्त सोचते थे कि यहां मेरी शादी क्यों कर दी गई.”
पूरे लॉकडाउन के दौरान सुमित्रा और उनकी बेटी ऐश्वर्या ये परेशानियां झेलती रहीं.
लॉकडाउन के बाद इन लोगों ने तीन साल के वीज़ा के लिए आवेदन किया, जो इन्हें 24 जनवरी 2023 से 23 जनवरी 2025 तक मिल गया.
साल 2023 में सीएए के लिए आवदेन किया
पिता मदन गोपाल चौधरी और पति परमेश्वर प्रसाद की मौत के बाद सुमित्रा का सारा काम बेटी ऐश्वर्या ही संभालने लगीं थी.
ऐश्वर्या बताती हैं, “हमको मोबाइल से ख़बर मिली कि मोदी जी बाहर से आए हिंदुओं को नागरिकता दे रहे हैं. वीज़ा लेने के लिए 2023 में जब कोलकाता गए थे, तो वहां एक महिला अधिकारी ने भी हमको ताना दिया था और कहा था कि हम प्रॉपर्टी के चलते अपनी मां को बांग्लादेश वापस भेजना चाहते हैं.”
“ये बात मुझे बहुत बुरी लगी और मैंने यहां आकर सीएए के बारे में पूरी जानकारी इंटरनेट से ली.”
ऐश्वर्या ने साल 2023 में ही नागरिकता संशोधन अधिनियम, 2019 के तहत आवेदन किया, लेकिन कुछ तकनीकी दिक्कतों के चलते उनका आवेदन खारिज़ हो गया.
नवंबर 2024 में उन्होंने फिर से आवेदन किया और फिर 3 जनवरी 2025 को सुमित्रा रानी साहा को भारत की नागरिकता मिल गई.
नागरिकता मिलने से बेहद खुश सुमित्रा रानी साहा अब खुद को अपने पति के नाम से यानी सुमित्रा प्रसाद कहलाना पसंद करती हैं.
वो बताती हैं, “जब पटना से सरकारी फोन आया तो लगा कि क्या कर लें. खुशी के मारे क्या खाएं – क्या पिएं कुछ समझ नहीं आ रहा. अब हमको बस अपने कागज़ का इंतजार है.”
“अब मेरा भी परमानेंट घर हो गया. मुझे कोई प्रॉपर्टी से निकाल नहीं सकता और कोई भी बांग्लादेशी नहीं कहेगा.”
“मैं शादी के बाद 40 साल में एक बार भी बांग्लादेश नहीं गई, लेकिन ये सब मुझे बांग्लादेश ही भेजना चाहते थे.”
सुमित्रा ने भोजपुरी सीख ली है. वो हिंदी, बांग्ला के साथ साथ अब भोजपुरी बोल लेती हैं. क्या बांग्लादेश का कुछ याद आता है?
इस सवाल पर कहती हैं, “नहीं, कुछ भी नहीं. अब यहीं सब कुछ हो गया. बेटियां हो गई. इनसे बिछड़ना पड़ता, तो सोचिए क्या हालत होती इस उम्र में?”
क्या है सीएए कानून?
नागरिकता अधिनियम,1955 भारतीय नागरिकता से जुड़ा कानून है. इसमें बताया गया है कि भारतीय नागरिक कौन है और नागरिकता कैसे दी जा सकती है?
इसी कानून में साल 2019 में तत्कालीन केन्द्र सरकार नागरिकता संशोधन विधेयक, 2019 (सीएए) लाई थी. इसके तहत 31 दिसंबर 2014 को या इससे पहले पड़ोसी देशों पाकिस्तान, बांग्लादेश, अफ़ग़ानिस्तान से भारत आए हिंदू, जैन, बौद्ध, पारसी और ईसाई समुदाय के लोगों को भी नागरिकता मिल पाएगी.
संसद के दोनों सदनों से पास होने के बाद ये कानून 11 मार्च, 2024 को लागू हो गया था.
सुमित्रा के मामले में आरा पोस्ट ऑफिस के डाक अधीक्षक का रोल अहम था.
दरअसल, सीएए के तहत आए आवेदनों का वैरीफिकेशन दो स्तरों पर होता है. पहला ज़िला स्तर पर और दूसरा राज्य स्तर पर.
ज़िला स्तर पर बनी तीन सदस्यीय समिति के अध्यक्ष संबंधित ज़िले के डाक अधीक्षक होते हैं.
आरा के डाक अधीक्षक पवन कुमार वर्मा बीबीसी से कहते हैं, “हम लोग ज़िला स्तर पर वेरीफाई करते हैं. ये दो सदस्यों की मौजूदगी में भी मान्य है. बाकी राज्य स्तर पर इस कमिटी की अध्यक्षता जनगणना निदेशक करते हैं.”
नागरिकता का सर्टिफिकेट गृह मंत्रालय के अधीन काम करने वाले जनगणना कार्य निदेशालय के निदेशक (संबंधित राज्य का जनगणना निदेशक) जारी करते हैं.
बिहार के जनगणना उपनिदेशक पंकज सिन्हा ने बीबीसी से कहा, “हमारे यहां सुमित्रा रानी साहा का मामला आया था. इसके अलावा दूसरा कोई मामला सीएए के तहत नागरिकता आवेदन का पेंडिंग नहीं है.”
बीबीसी के लिए कलेक्टिव न्यूज़रूम की ओर से प्रकाशित.