भारतीय सिनेमा के हर कालखंड में कुछ फिल्में ऐसी जरूर बनी हैं, जिन्होंने अपनी लागत से हजारों गुना कमाई करके इन्हें बनाने वालों तक को चौंका दिया। ‘द केरल स्टोरी’ इसका ताजा उदाहरण है, उसके पीछे जाएं तो याद आएगी फिल्म ‘नदिया के पार’ और उससे भी बहुत पीछे यानी आज से 50 साल पीछे जाएं तो पता चलता है कि जिस साल फिल्म ‘शोले’ ने बॉक्स ऑफिस पर धुआंधार कमाई की, उसी साल सिनेमाघरों में एक और फिल्म ने कृपा बरसाई जिसका नाम है, ‘जय संतोषी मां’। 30 मई 1975 को रिलीज हुई ये फिल्म 50 साल बाद भी अपने समय के सामाजिक, आर्थिक और पारिवारिक संदर्भों का दस्तावेज बनी हुई है। ’50 साल- बेमिसाल’ श्रृंखला के तहत वरिष्ठ फिल्म समीक्षक पंकज शुक्ल सुना रहे हैं कथा फिल्म ‘जय संतोषी मां’ की।

अथ श्री संतोषी माता कथा
बिहार के बेलसंड में जन्म लेने वाले अभिनेता पंकज त्रिपाठी हाल ही में अपनी एक नई सीरीज ‘क्रिमिनल जस्टिस’ के चौथे सीजन के सिलसिले में मिले तो बातों बातों में एक प्रश्न ये भी मैंने उनसे पूछ लिया कि उन्होंने सिनेमाघर में पहली फिल्म कौन सी देखी होगी भला? अपनी चिर परिचित मासूमियत के साथ उनका जवाब था, ‘जय संतोषी मां’। कहने लगे कि सिनेमा देखना तब इतना अच्छा माना नहीं जाता था। गांव से शहर फिल्म देखने आना भी अलग चुनौती थी। टीवी वगैरह से ही काम चल जाता था। लेकिन, तब जनता की बेहद मांग पर, घटी दरों पर फिल्मों को फिर से सिनेमाघरों में रिलीज करना आम बात हुआ करती थी और किसी फिल्म की ‘री रिलीज’ पर इतना हंगामा भी नहीं होता था। पंकज त्रिपाठी ने ये फिल्म इसकी री-रिलीज के दौरान ही देखी और उन्हें अब भी याद है कि कैसे तमाम महिलाएं और पुरुष सिनेमाघरों में प्रवेश करने से पहले जूते चप्पल उतार दिया करते थे।
बंबई में बैलगाड़ियों की कतार
ये बात तब की है जब बंबई (अब मुंबई) दादर के आगे बांद्रा और जुहू तक भी बमुश्किल ही आ पाया था। और, अंधेरी तक आने में तो लोग दस बार सोचते थे। लेकिन, एक दिन लोगों ने देखा तो पाया कि बैलगाड़ियों की लंबी कतारें वसई, विरार की तरफ से और मध्य मुंबई में कल्याण औऱ ठाणे की तरफ से आती ही चली जा रही हैं। लोगों को पता चला कि कोई फिल्म लगी है शहर में, नाम- ‘जय संतोषी मां’। थिएटर वाले तो भूल भी चुके थे कि कोई नई फिल्म उन्होंने बीते शुक्रवार लगाई है। फिल्म ने पहले शो में कमाए थे 56 रुपये, दूसरे में 64, इवनिंग शो की कमाई रही 98 रुपये और नाइट शो का कलेक्शन बमुश्किल सौ रुपये छू पाया था। लेकिन सोमवार की सुबह सुबह जो हलचल शुरू हुई तो महीनों तक फिर जहां जहां ‘जय संतोषी मां’ लगी रही, उन सिनेमाघरो में झाड़ू लगाने वाले भी मालदार हो गए। और, वह इसलिए कि फिल्म में जब भी संतोषी माता की महिमा गुणगान होता, दर्शक जेब से रेजगारी निकाल निछावर करना शुरू कर देते। पश्चिमी दिल्ली के हरिनगर का संतोषी माता मंदिर तो अब सबको पता है, तब जोधपुर में मंडोर के पास संतोषी मां का एक लोकप्रिय मंदिर हुआ करता था। फिल्म में संतोषी मां का किरदार करने वाली अभिनेत्री अनीता गुहा ने खुद बताया था कि उन्हें पता तक नहीं था कि ऐसी कोई देवी हैं। साल 2006 में एक सैटेलाइट चैनल पर फिल्म ‘जय संतोषी मां’ पहली बार दिखाई गई और तभी अनीता गुहा ने पहली बार मीडिया से बात भी की थी। फिल्म जब रिलीज हुई तो मुंबई में बांद्रा के उनके फ्लैट के सामने उनके ‘दर्शन’ के लिए लोगों का हुजूम उमड़ता और लोग अपने बच्चे उनकी गोद में आशीर्वाद पाने के लिए डाल दिया करते थे।
लागत 12 लाख रुपये, कमाई 25 करोड़
फिल्म ‘जय संतोषी मां’ की कहानी सत्यवती नाम की एक महिला की है जिसको उसके ससुराल वाले बहुत कष्ट देते हैं और फिर संतोषी मां की कृपा से उसके जीवन में सब ठीक हो जाता है। सत्यवती के पति बिरजू का रोल करने वाले यानी कि फिल्म के हीरो आशीष कुमार की मानें तो उन्होंने ही इस फिल्म का आइडिया फिल्म के प्रोड्यूसर सतराम रोहरा को दिया था। आशीष के बच्चे नहीं थे और तभी उनकी पत्नी ने संतोषी मां के सोलह शुक्रवार व्रत रखने शुरू किए। व्रत के बीच में ही आशीष की पत्नी गर्भवती हो गईं तो बाकी के व्रतों की कथाएं आशीष ने अपनी पत्नी को सुनाई। अपने घर में बिटिया का जन्म के बाद आशीष ने ये बात सतराम के गुरु और फाइनेंसर सरस्वती गंगाराम को सुनाई जिन्होंने फिल्म शुरू करने के लिए 50 हजार रुपये दिए थे। बाद में फिल्म से उस समय के चर्चित फिल्म वितरक केदारनाथ अग्रवाल जुड़े और उन्होंने फिल्म के अधिकार 11 लाख रुपये एडवांस देकर खरीद लिए। फिल्म कुल 12 लाख में बनी और इसने बॉक्स ऑफिस पर आखिरी गणना तक कमाए करीब 25 करोड़ रुपये।
सुपरहिट फिल्म पर सजा कारोबार
फिल्म जब तक सिनेमाघरों में लगी रही तब तक खूब धूम से चली। गांवों से आने वाले चप्पल उताकर कर सिनेमाघरों में प्रवेश करते। अपने साथ वे फूल माला लेकर आते। और फिल्म शुरू होते ही जब दूसरे ही सीन में संतोषी मां की आरती होती तो सब अपनी अपनी आरती जलाकर आरती करना शुरू कर देते। फिल्म खत्म होने के बाद बाकायदा सिनेमाघरों के बाहर प्रसाद बंटता और पास में ही लंबी कतार दिखती संतोषी मां की फ्रेम की हुई फोटो के साथ शुक्रवार की व्रत कथा बेचने वाले दुकानदारों की। जिनका बचपन इस दौर में बीता है, उनको पता है कि शुक्रवार को तब चाट की दुकान की तरफ देखना भी कितना बड़ा गुनाह होता था और जो बच्चा गलती से शुक्रवार को खटाई खा भी ले, वो बेचारा हफ्तों तक इसी अपराधग्लानि में जीता रहता कि घर पर कहीं कुछ अशुभ न हो जाए। लोगों के घरों पर खूब पोस्टकार्ड आते। इन पोस्टकार्ड पर ऐसे ही 16 पोस्टकार्ड और लिखकर दूसरों को भेजने को कहा जाता। और फिर ये चेन चलती ही रहती। हालात यहां तक आ गए थे कि डाकखानों में पोस्टकार्ड की मांग ज्यादा हो गई और आपूर्ति कम पड़ने लगी।