- Author, रजनीश कुमार
- पदनाम, बीबीसी संवाददाता
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अरविंद केजरीवाल एक काम लगातार करते आए हैं. वह काम है- छोड़ना.
हाल ही में एक टीवी इंटरव्यू में केजरीवाल से आम आदमी पार्टी के पुराने साथियों के बारे में पूछा गया तो उन्होंने कहा कि कोई भी हमेशा के लिए साथ नहीं होता है.
अरविंद के क़रीबी कहते हैं कि प्रोफ़ेशनल लाइफ़ में नौकरी और किसी को साथ लेकर चलने का मोह उनके भीतर कभी नहीं रहा.
अरविंद केजरीवाल की ज़िद थी कि स्कूल की पढ़ाई पूरी करने के बाद आईआईटी में ही एडमिशन लेंगे और अपनी ज़िद पूरी की.
इसके बाद उन्हें टाटा स्टील में अच्छी नौकरी भी मिल गई लेकिन उनके भीतर कुछ करने की बेचैनी थमी नहीं. तीन साल बाद नौकरी छोड़ दी और सिविल सर्विस की तैयारी में लग गए.
सिविल की परीक्षा में अरविंद को भारतीय राजस्व सेवा में नौकरी मिली. लेकिन यहाँ की व्यवस्था भी उन्हें रास नहीं आई और एक बार फिर से अच्छी ख़ासी नौकरी छोड़ दी.
इसके बाद परिवर्तन, इंडिया अगेंस्ट करप्शन, अन्ना हजारे, आम आदमी पार्टी और फिर दिल्ली के मुख्यमंत्री. इसके बाद दिल्ली के मुख्यमंत्री की कुर्सी भी छोड़ कर आतिशी को मुख्यमंत्री बना दिया.
आईआईटी के वे दिन
अरविंद केजरीवाल जब 1985 में आईआईटी खड़गपुर गए तभी उन्होंने पहले चुनाव का सामना किया था. यह चुनाव होस्टल के मेस सेक्रेटरी का था. अरविंद ने यह चुनाव बिना किसी कैंपेन के जीता था.
इसके बाद उन्होंने दूसरा चुनाव 2013 में नई दिल्ली विधानसभा क्षेत्र से लड़ा और 15 साल से दिल्ली की मुख्यमंत्री रहीं शीला दीक्षित को मात दी. इसी जीत ने अरविंद को मुख्यमंत्री की कुर्सी तक पहुँचा दिया.
अरविंद केजरीवाल की 56 साल की ज़िंदगी में नाकामियाँ बहुत कम रही हैं. अगर सबसे बड़ी नाकामी की बात करें तो वो पिछले हफ़्ते मिली. अपनी विधानसभा सीट भी नहीं बचा पाए.
अरविंद केजरीवाल का जन्म 1968 में हरियाणा के हिसार में एक ऐसे मध्य वर्गीय परिवार में हुआ, जहाँ सपने देखना और उसे साकार करना इतना आसान नहीं था.
अरविंद के पिता गोविंद राम केजरीवाल इलेक्ट्रिकल इंजीनियर थे. अरविंद ने स्कूल की पढ़ाई सोनीपत में एक ईसाई मिशनरी स्कूल में की थी.
आईआईटी खड़गपुर में अरविंद केजरीवाल के दोस्त रहे प्राण कुरूप ने अपनी किताब ‘अरविंद केजरीवाल एंड द आम आदमी पार्टी ऐन इनसाइड लुक’ में लिखा है कि अरविंद तेज़ तर्रार छात्र थे.
प्राण कुरूप ने लिखा है, ”अरविंद को आज भी देखता हूँ तो लगता नहीं है कि उनके व्यवहार में कोई बदलाव आया है. आईआईटी खड़गपुर में वे जितने सरल, संकोची और नशे से दूर रहने वाले शख़्स थे, आज भी वैसे ही हैं.”
प्राण कुरूप ने लिखा है, ”मुझे याद है कि एक दोस्त सुबह गहरी नींद में सो रहा था. कुछ दोस्तों ने उसका दरवाज़ा बहुत तेज़ खटखटाया क्योंकि कोई उससे मिलने आया था. उसने गाली देते हुए दरवाज़ा खोला तो देखा कि उसके पापा खड़े हैं. उसने किसी तरह ख़ुद को संभालते हुए कहा- बाबा तुमी! उस वक़्त गाली तो क़रीबी होने का अहसास कराती थी. कोई इसे अन्यथा नहीं लेता था. रचनात्मक गालियों की तो प्रशंसा होती थी. लेकिन ऐसे माहौल में भी अरविंद केजरीवाल बिल्कुल अलग था. मुझे आज तक याद नहीं है कि अरविंद ने गाली तो दूर की बात है, कभी किसी को कोसा भी हो.”
अरविंद केजरीवाल की ज़िद
प्राण कुरूप ने लिखा है, ”अरविंद को एक कार्यकर्ता ने स्टिंग कॉल किया था. आईआईटी के अपने सीनियर्स के साथ मैं वह स्टिंग कॉल सुन रहा था. इनमें से कुछ सीनियर्स ने कहा- लगता है, केजरीवाल का फिर से रैगिंग करना पड़ेगा. उसने आईआईटी में चार सालों में क्या सीखा है? उसको बिल्कुल गाली देना नहीं आता है. कम से कम ठीक से गाली देना तो सीखना था. आईआईटी के नाम पर कंलक है. उसने नेहरू हॉल (जिस होस्टल में हमलोग रहते थे) की इज़्ज़त मिट्टी में मिला दी.”
अरविंद के पिता गोविंद राम केजरीवाल ने द कैरवां मैगज़ीन से 2011 में कहा था, ”मेरे बेटे का पूरा बचपन किताबों से घिरा रहा. जब हमारे वन बेडरूम अपार्टेमेंट में कोई गेस्ट आता था तो अरविंद बहुत मेलजोल नहीं रखता था और बाथरूम में जाकर पढ़ने लगता था.”
अरविंद के पिता ने कहा था, ”1985 में स्कूल की पढ़ाई पूरी करने के बाद अरविंद ने फ़ैसला किया कि उसे आईआईटी जाना है. मैंने सलाह दी कि आईआईटी तो बेहतरीन है लेकिन बैकअप प्लान भी रखना चाहिए, इसलिए स्टेट इंजीनियरिंग कॉलेज में भी अप्लाई कर देना. लेकिन उसने स्टेट की प्रवेश परीक्षा नहीं दी. मैंने पूछा कि ऐसा क्यों किया तो उसका जवाब था- मुझे केवल आईआईटी में जाना है.”
अरविंद का आईआईटी में एडमिशन हो गया और 1989 में इलेक्ट्रिकल इंजीनियरिंग की डिग्री पूरी कर ली. इसके बाद उन्हें जमशेदपुर में टाटा स्टील में असिस्टेंट इंजीनियर की नौकरी मिल गई.
गोविंद राम केजरीवाल ने कहा था, ”अरविंद को नौकरी में मज़ा आ रहा था और सहकर्मियों ने उसकी ईमानदारी की तारीफ़ भी की. लेकिन तीन साल बाद नौकरी छोड़ दी और दिल्ली वापस आकर सिविल सर्विस परीक्षा की तैयारी में लग गया. दरअसल वह पुलिस जॉइन करना चाहता था. मुझे नहीं पता कि ऐसा क्यों चाहता था लेकिन मैंने कभी उसकी लाइफ़ में कोई हस्तक्षेप नहीं किया.”
केजरीवाल आईएएस रैंक के लिए क्वॉलिफाई नहीं कर पाए लेकिन उनका स्कोर इतना ज़रूर था कि इंडियन रेवेन्यू सर्विस जॉइन कर सकें. आईआरएस की ट्रेनिंग के लिए अरविंद मसूरी गए और वहीं उनकी मुलाक़ात भविष्य की जीवनसाथी सुनीता से हुई. मसूरी में ट्रेनिंग के बाद अरविंद और सुनीता दोनों ने दिल्ली में इनकम टैक्स डिपार्टेमेंट में असिस्टेंट कमिश्नर के पद पर जॉइन किया.
नौकरी से मोहभंग
अरविंद के पिता गोविंद राम केजरीवाल ने कहा था, ”एक ब्यूरोक्रेट के रूप में मेरा बेटा कभी ठीक से सेट नहीं हो पाया. वह बाक़ियों से बिल्कुल अलग रहा. वह चपरासी की सेवा नहीं लेता था. वह अपना डेस्क ख़ुद ही साफ़ करता था और डस्टबिन भी ख़ुद ही ख़ाली करता था.”
”वह ऑफिस की पार्टी में शामिल नहीं होता था और अन्य कार्यक्रमों से भी दूर रहता था. वह पास की चाय की दुकान पर जाकर बैठना ज़्यादा पसंद करता था. यहाँ तक कि अरविंद अपना और अपने दोनों बच्चों के जन्मदिन तक नहीं मनाता था.”
द कैरवां से ही केजरीवाल के बैचमेट और दिल्ली आईटी ऑफिस में अडिशनल कमिश्नर रहे जावेद अहमद ख़ान ने कहा था, ”अरविंद बहुत ही शांत अधिकारी थे. ज़्यादातर वक़्त वह अपने चैंबर में बिताते थे. कई अधिकारी अरविंद को पसंद नहीं करते थे.”
”अरविंद को अहसास होने लगा था कि बिना रिश्वत के यहाँ कुछ भी संभव नहीं है. साल 2000 आते-आते अरविंद का फ़्रस्ट्रेशन चरम पर पहुँच गया था. इसी दौरान उन्होंने चुपके से परिवर्तन एनजीओ की शुरुआत कर दी थी. आसपास के इलाक़ों में पोस्टर लगवाना शुरू कर दिया था कि आप रिश्वत से परेशान हैं तो परिवर्तन में संपर्क करें.”
प्राण कुरूप ने अपनी किताब में लिखा है, ”2000 के दशक के शुरुआती साल थे. मुझे तारीख़ याद नहीं आ रही है. अरविंद यूनिवर्सिटी ऑफ कैलिफ़ोर्निया में बर्कली लोकतंत्र पर एक कॉन्फ़्रेंस में शामिल होने आए थे. आईआईटी के बाद हम संपर्क में थे. मैं मास्टर के लिए अमेरिका आ गया था और मुझे यहीं से पता चला था कि अरविंद आरटीआई को लेकर काम कर रहे हैं.”
”हमलोग बर्कली के लोकप्रिय ठिकाना स्त्रादा कॉफी पर मिले. 1989 के बाद हमने एक दूसरे को देखा नहीं था. अरविंद के पास कई क्षेत्रों का अनुभव था. टाटा स्टील में काम कर चुके थे. आईआरएस का अनुभव था. इसके अलावा उसने मदर टेरेसा के आश्रम में भी काम किया था. मैंने सोचा कि असली काम तो इसने किया है. ख़ुद की तलाश की है.”
प्राण कुरूप कहते हैं, ”मैंने अरविंद से पूछा कि तुम कैसे ये सब कर लेते हो. हर चीज़ को छोड़ने का साहस कहां से आता है? तुम्हारे फ़ैसलों से परिवार वाले परेशान नहीं होते हैं?”
अरविंद ने जवाब में कहा, ”मेरे माता-पिता मुझसे बहुत ख़ुश नहीं हैं. लेकिन सुनीता हमेशा मेरे साथ खड़ी रहती है. सुनीता ने कभी नहीं कहा कि तुम ये मत करो, वो मत करो. इस मामले में मैं बहुत लकी हूँ.”
केजरीवाल की कामयाबी
प्राण कुरूप ने अपनी किताब में केजरीवाल से बातचीत का हवाला देते हुए लिखा है, ”ज़्यादातर लोग सोचते हैं कि आईआरएस में लोग चारों तरफ़ से पैसे बनाते हैं. क्या तुम्हें भी नहीं कमाना चाहिए? इस सवाल पर अरविंद हँसने लगे और कहा, ” नहीं कभी नहीं. अगर ऐसा करूँगा तो मैं रात में सो नहीं पाऊँगा. अगर यही करना होता तो परिवर्तन बनाने की ज़रूरत ही नहीं थी. हाँ, ये बात सच है कि आईआरएस में लोग बेहिसाब पैसे बनाते हैं.”
लेकिन यही केजरीवाल भ्रष्टाचार के मामले में पिछले साल सितंबर में पाँच महीने जेल में रहने के बाद बाहर आए. दिल्ली की आबकारी नीति में कथित अनियमितता के मामले में ईडी ने पिछले साल मार्च में केजरीवाल को गिरफ़्तार किया था. सुप्रीम कोर्ट ने सितंबर में उन्हें ज़मानत दे दी थी. हालाँकि केजरीवाल के ख़िलाफ़ अभी कोई भी आरोप साबित नहीं हो पाया है.
आम आदमी पार्टी के अलावा स्वतंत्र भारत में एनटी रामा राव की तेलुगू देशम पार्टी और प्रफुल्ल कुमार महंता की असम गण परिषद ऐसे दो उदाहरण हैं, जो पहले प्रयास में ही सत्ता में आने में कामयाब रहे हैं. तेलुगू देशम पार्टी और असम गण परिषद एक राज्य तक सीमित रहीं जबकि आम आदमी पार्टी दिल्ली से बाहर भी सरकार बनाने में कामयाब रही.
नवंबर 2012 में आम आदमी पार्टी बनी और दिसंबर 2013 में सत्ता में आ गई. 2013 के दिल्ली विधानसभा चुनाव में किसी भी पार्टी को बहुमत नहीं मिला था. आम आदमी पार्टी को 28, बीजेपी को 31 और कांग्रेस को आठ सीटों पर जीत मिली.
अरविंद केजरीवाल कांग्रेस के समर्थन से मुख्यमंत्री बने थे. केजरीवाल केवल 49 दिनों तक ही मुख्यमंत्री रहे लेकिन इन 49 दिनों में केजरीवाल सीएम से ज़्यादा एक्टिविस्ट के रूप में दिखे.
मुकेश अंबानी के ख़िलाफ़ एफआईआर का आदेश
अरविंद केजरीवाल ने 2014 में 14 फ़रवरी को दिल्ली के मुख्यमंत्री से इस्तीफ़े से ठीक चार दिन पहले रिलायंस इंडस्ट्रीज के चेयरमैन मुकेश अंबानी, तत्कालीन पेट्रोलियम मंत्री वीरप्पा मोइली और पूर्व पेट्रोलियम मंत्री मुरली देवरा के ख़िलाफ़ एफ़आईआर दर्ज करने का आदेश दिया था.
केजरीवाल का आरोप था कि इन तीनों की मिलीभगत से केजी बेसिन से निकलने वाली प्राकृतिक गैस की क़ीमत जानबूझकर बढ़ा दी गई है. केजरीवाल ने यह आदेश दिल्ली के एंटी करप्शन ब्रांच को दिया था.
केजरीवाल के पास जब बहुमत नहीं था, तब वह इतनी आक्रामकता से पेश आ रहे थे. तब इस्तीफ़े से पहले केजरीवाल ने कहा था कि उन्हें भ्रष्टाचार विरोधी क़दम उठाने से रोका जा रहा है. इस्तीफ़े के बाद केजरीवाल ने दिल्ली में जल्द ही चुनाव की मांग की थी.
केजरीवाल के इस्तीफ़े को तब एक रणनीतिक फ़ैसले के रूप में देखा गया था क्योंकि कुछ ही महीनों में लोकसभा चुनाव होने थे. हालांकि 2014 के लोकसभा चुनाव में उन्हें इसका बहुत फ़ायदा नहीं हुआ था.’
अरविंद केजरीवाल ने जब 2013 में कांग्रेस के समर्थन से सरकार बनाई तो इसे सत्ता पाने के लिए समझौते के रूप में देखा गया था.
यहाँ तक कि ख़ुद केजरीवाल ने भी कहा था, ”मैं अपने बच्चों की कसम खाता हूँ. मैं न तो बीजेपी के साथ जाऊंगा और न ही कांग्रेस के साथ क्योंकि दिल्ली की जनता इन दोनों के ख़िलाफ़ आम आदमी पार्टी को वोट करेगी. बीजेपी और कांग्रेस आपस में गठबंधन कर सरकार बना सकते हैं क्योंकि दोनों पर्दे के पीछे एक ही हैं. मैं सत्ता का भूखा नहीं हूँ. हमलोग गठबंधन की सरकार नहीं बनाएंगे क्योंकि बीजेपी और कांग्रेस के साथ रहकर हम भ्रष्टाचार ख़त्म नहीं कर सकते. गठबंधन सरकार बनाने से अच्छा हम विपक्ष में बैठना पसंद करेंगे.”
दिल्ली की पूर्व मुख्यमंत्री शीला दीक्षित के बेटे संदीप दीक्षित इस बार नई दिल्ली विधानसभा क्षेत्र में अरविंद केजरीवाल के ख़िलाफ़ कांग्रेस के उम्मीदवार थे. कई लोग कहते हैं कि अरविंद केजरीवाल जब राजनीति में नहीं आए थे, तब संदीप दीक्षित से उनके दोस्ताना संबंध थे.
केजरीवाल से संबंधों की बात पर संदीप दीक्षित ने कहा, ”केजरीवाल से मेरी कभी भी दोस्ती नहीं रही है. दो-तीन बार उनसे मुलाक़ात भले हुई है लेकिन सलाम-नमस्ते से ज़्यादा नहीं रहा.’
मुसलमानों में केजरीवाल की छवि
संदीप दीक्षित 2013 में अरविंद केजरीवाल को कांग्रेस के समर्थन देने को कैसे देखते हैं?
इसके जवाब में संदीप ने कहा, ”मैं मानता हूँ कि कांग्रेस ने अरविंद केजरीवाल को ठीक से हैंडल नहीं किया. इसका हमें नुक़सान बहुत हुआ है. 2013 में अरविंद केजरीवाल को कांग्रेस का समर्थन देना एक ग़लती थी. ज़ाहिर है कि यह शीला दीक्षित का फ़ैसला नहीं था. तब शीला दीक्षित पार्टी में कुछ नहीं थीं. यह केंद्रीय नेतृत्व का फ़ैसला था. आम आदमी पार्टी बीजेपी को नहीं कांग्रेस को ज़्यादा कमज़ोर कर रही है.”
दिल्ली के मुसलमान क्या अरविंद केजरीवाल और कांग्रेस को लेकर कन्फ्यूज हैं?
संदीप दीक्षित ने कहा, ”दिल्ली में अगर मुसलमान अरविंद केजरीवाल को वोट कर रहे हैं तो मजबूरी में कर रहे हैं. मुसलमानों को लगता है कि केजरीवाल बीजेपी को हरा सकते हैं. लेकिन ये ज़रूरी नहीं है कि मुस्लिम जिसे वोट करेंगे वो बीजेपी को हरा ही देगा. केजरीवाल कहीं से भी धर्मनिरपेक्ष नेता नहीं हैं. मुसलमान अगर धर्मनिरपेक्ष राजनीति चाहते हैं तो केजरीवाल को चुनकर वे इसे हासिल नहीं कर सकते हैं.”
आम आदमी पार्टी क़रीब 12 साल की हो गई है और अरविंद केजरीवाल ने इन 12 सालों में असफलता से ज़्यादा सफलता देखी है.
2022 के पंजाब विधानसभा चुनाव में आम आदमी पार्टी को शानदार जीत मिली. सिंतबर 2023 में निर्वाचन आयोग ने आम आदमी पार्टी को राष्ट्रीय पार्टी का दर्जा दे दिया. यह दर्जा दिल्ली, गोवा, पंजाब और गुजरात में आप को मिले वोट शेयर के आधार पर दिया गया था. अगर इंडिया गठबंधन भविष्य में फिर से एकजुट होता है तो आम आदमी पार्टी निर्णायक भूमिका में रहेगी.
इन 12 सालों में अरविंद केजरीवाल की राजनीति पर सवाल भी ख़ूब उठे. आम आदमी पार्टी लेफ्ट है या राइट या फिर मध्यमार्गी? आप को किसी भी खाँचे में रखना मुश्किल है.
हालांकि आलोचक ये आरोप लगाते रहे हैं कि इंडिया अगेंस्ट करप्शन आंदोलन को दक्षिणपंथी राजनीति का समर्थन था. ये भी सच है कि इस आंदोलन का सबसे ज़्यादा फ़ायदा बीजेपी और ख़ुद अरविंद केजरीवाल को मिला था.
इस बार आम आदमी पार्टी के लिए दिल्ली चुनाव में डेटा इकट्ठा कर रहे रिज़वान अहसन से पूछा कि क्या वह भी अरविंद केजरीवाल की राजनीति को बहुसंख्यकवाद के क़रीब पाते हैं?
अरविंद केजरीवाल क्या सेक्युलर हैं?
रिज़वान अहसन कहते हैं, ”भारत में 20 प्रतिशत जो सेक्युलर स्पेस है, वहां पहले से ही भीड़ लगी है. यानी दावेदार भरे हुए हैं. ऐसे में अरविंद केजरीवाल वहाँ क्यों माथा खपाएंगे? अरविंद केजरीवाल 80 प्रतिशत स्पेस में अपनी जगह बनाना चाहते हैं तो इसमें क्या दिक़्क़त है. धर्मनिरपेक्षता के नाम पर उस 80 प्रतिशत स्पेस को केवल बीजेपी के लिए छोड़ देना कहीं से भी समझदारी नहीं है. अरविंद केजरीवाल को बीजेपी को हराना है और बीजेपी की ताक़त वही 80 प्रतिशत स्पेस है. ऐसे में आम आदमी पार्टी 20 प्रतिशत पर दांव क्यों लगाएगी? मुझे नहीं लगता है कि दिल्ली की सरकार ने मुसलमानों से कोई भेदभाव किया है.”
रिज़वान अहसन कहते हैं, ”कांग्रेस ने इस 80 फ़ीसदी स्पेस को पूरी तरह से बीजेपी के लिए छोड़ दिया है और आलम यह है कि उसे 20 प्रतिशत स्पेस में भी जगह नहीं मिल पा रही है. ऐसे में आम आदमी पार्टी यह ग़लती क्यों करेगी? मुसलमानों के बीच अरविंद केजरीवाल को लेकर एक किस्म का कन्फ्यूजन था लेकिन ये भी सच है कि दिल्ली सरकार की योजनाओं से मुसलमानों को भी सीधा फ़ायदा हुआ है. मुसलमान इस बात को लेकर भी स्पष्ट थे कि बीजेपी को आप ही हरा सकती है. ऐसे में मुझे नहीं लगता है कि आम आदमी पार्टी को इस 20 प्रतिशत को ख़ुश करने के लिए 80 प्रतिशत को नाराज़ करने की ज़रूरत है.”
2019 में आम आदमी पार्टी ने जम्मू-कश्मीर से अनुच्छेद 370 हटाने के प्रस्ताव के पक्ष में वोट किया था. इसके चार साल बाद अरविंद केजरीवाल को दिल्ली सर्विस बिल से जूझना पड़ा, जिसके तहत दिल्ली में ब्यूरोक्रेसी पर कंट्रोल उपराज्यपाल को दे दिया गया.
अरविंद केजरीवाल ने जिस राजनीति का वादा किया था क्या वो राजनीति कर पा रहे हैं?
आम आदमी पार्टी को क़रीब से देखने वाले राजनीतिक विश्लेषक अभय कुमार दुबे कहते हैं, ”देखिए हम आम आदमी पार्टी या अरविंद केजरीवाल को आंदोलन के आईने में देखेंगे तो लगेगा कि ये वो राजनीति नहीं है, जिसका उन्होंने वादा किया था. लेकिन आंदोलन करना और सरकार चलाना दोनों दो बातें हैं. आंदोलन में आपसे कोई प्रतियोगिता नहीं कर रहा होता है लेकिन चुनावी मैदान में आपके प्रतिद्वंद्वी होते हैं, सरकार में आने पर कई और चुनौतियां होती हैं. ऐसे में बहुत सारे आदर्श स्थगित करने पड़ते हैं. कई अनुपयोगी हो जाते हैं.”
मोदी और केजरीवाल की राजनीति में समानता है?
अभय कुमार दुबे कहते हैं, ”अरविंद को दिल्ली में राजनीति करनी थी और उन्होंने ग़रीबों पर ध्यान केंद्रित किया. ऐसा इसलिए भी है कि यहाँ जातीय पहचान की राजनीति नहीं है. 2013 के चुनाव में दिल्ली के मुसलमानों को नहीं लगा था कि अरविंद बीजेपी को हरा सकते हैं, इसलिए उन्होंने कांग्रेस को वोट किया था. कांग्रेस को इसी वजह से आठ सीटें मिल गई थीं.”
”बाद के चुनावों में मुसलमानों को लगा कि अरविंद बीजेपी को हरा सकते हैं और कांग्रेस को वोट देना बंद कर दिया. ऐसे भी कांग्रेस दिल्ली में गंभीरता से चुनाव लड़ती नहीं है. अरविंद केजरीवाल ने दिल्ली में अकेले 37 रैलियां की हैं. बीजेपी ने मुसलमानों को लेकर जो माहौल बनाया है, उसमें अरविंद केजरीवाल के लिए बहुत स्पेस नहीं है कि वो खुलकर बोलें. मुसलमानों को सोचना होगा कि उन्हें जुबानी ख़र्च करने वाला चाहिए या बीजेपी को हराने वाला.”
क्या मोदी और केजरीवाल की राजनीति में समानता है? इस सवाल के जवाब में अभय कुमार दुबे कहते हैं, ”देखिए हर कोई सत्ता हासिल करना चाहता है. सत्ता पाने के कुछ तकनीक हैं, कुछ विधियां हैं या कुछ फॉर्म्युले हैं. इसी आधार पर लोग प्रचार-प्रसार करते हैं.”
”मोदी और केजरीवाल के भाषण देने की शैली में ज़मीन-आसमान का अंतर है. व्यक्ति केंद्रित पार्टी होने की बात है, तो सारी राजनीतिक पार्टियां ऐसी ही हैं. ये बात सही है कि अन्ना हजारे के आंदोलन से सबसे ज़्यादा फ़ायदा अरविंद केजरीवाल और नरेंद्र मोदी को मिला था.”
केजरीवाल की राजनीतिक विचारधारा
आम आदमी पार्टी का ‘मोरल फाउंडेशन’ क्या है या उसकी विरासत क्या है? जैसे कांग्रेस की राजनीतिक विरासत स्वतंत्रता संग्राम है. गांधी और वल्लभभाई पटेल कांग्रेस की विरासत हैं. बीजेपी की राजनीतिक विरासत राम जन्मभूमि आंदोलन है और एंटी इमर्जेंसी आंदोलन है.
कोलकाता यूनिवर्सिटी में राजनीतिक विज्ञान के प्रोफ़ेसर हिमाद्रि चटर्जी कहते हैं, ”आम आदमी पार्टी की चार बड़ी राजनीतिक विरासत हैं. अन्ना हजारे के साथ भ्रष्टाचार विरोधी आंदोलन सबसे बड़ी विरासत है. दूसरी बड़ी विरासत अरविंद केजरीवाल की एक्टिविस्ट वाली छवि. तीसरी बड़ी विरासत है, कांग्रेस और बीजेपी को एक साथ चुनौती देना.”
”दिल्ली में शीला दीक्षित जैसी दिग्गज को हराना कोई मामूली बात नहीं थी. यह चुनावी जीत आप की एक बड़ी सियासी विरासत बनी. चौथी बड़ी विरासत है, सुशासन के मुद्दे को भारतीय राजनीति में फिर से केंद्र में लाना. आप के उभार से पहले भारतीय राजनीति में गवर्नेंस के छोटे-छोटे मुद्दे जैसे पानी, बिजली, सड़क और शिक्षा को प्राथमिक मुद्दा बनाना आप की बड़ी विरासत है.”
प्रोफ़ेसर हिमाद्रि चटर्जी कहते हैं, ”सामान्य रूप से लोग विरासत को ऐसे देखते हैं, मानो पत्थर की लकीर है. राजनीतिक विरासत अशोक स्तंभ की तरह काम नहीं करती है. राजनीतिक विरासत का हर दशक में, राजनीति के हर मोड़ पर अलग-अलग व्याख्या होती है.”
प्रोफ़ेसर हिमाद्रि चटर्जी कहते हैं, ”आप ने ये सारी विरासत तब बनाई जब वह सत्ता में नहीं थी. तब आप पार्टी ऑफ़ प्रोटेस्ट हुआ करती थी. आप के गवर्नेंस की विरासत उसके लिए सबसे बड़ी बाधा बन रही है. अगर आप इस विरासत को आगे नहीं बढ़ा पाएगी तो उसके लिए मुश्किलें बढ़ जाएंगी. आप ने दूसरे स्टेट में जाने की बहुत जल्दबाज़ी दिखाई. इसकी वजह से आप के विरोध में आलोचना का दायरा बढ़ा है. लेकिन आप चुनाव जीत सकती है, इसे उसने साबित कर दिया है.
आप किस विचारधारा की राजनीतिक करती है, इस सवाल का जवाब पार्टी ने अपनी वेबसाइट पर ही दिया है. पार्टी की वेबसाइट पर कहा गया है कि यह पार्टी विचारधारा केंद्रित नहीं बल्कि समाधान मुहैया कराने पर ज़ोर देती है.
अब अरविंद केजरीवाल को अपनी पार्टी को समाधान मुहैया कराना है. दिल्ली में उनकी पार्टी तो हारी ही केजरीवाल ख़ुद अपनी सीट भी नहीं बचा पाए.
बीबीसी के लिए कलेक्टिव न्यूज़ रूम की ओर से प्रकाशित