- Author, जुगल पुरोहित
- पदनाम, बीबीसी संवाददाता,कॉक्स बाज़ार, बांग्लादेश
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“उस दिन हमारे गांव पर भारी बमबारी हुई थी. बम का एक टुकड़ा मेरे तीन साल के बेटे की जांघ में लगा. वो बेहोश हो गया. हम म्यांमार में उसे किसी डॉक्टर के पास भी नहीं ले जा सकते थे. इसलिए हमने उसके घाव पर कुछ पत्ते रखे, उस पर कपड़ा बांधा और सीमा पारकर बांग्लादेश में प्रवेश किया. तब जाकर उसका इलाज हुआ.”
बांग्लादेश के कॉक्स बाज़ार इलाके़ में, बांस और तिरपाल की बनी अस्थायी झुग्गी में, इस्मत आरा ने बहुत ही मजबूर और असहाय भाव से बीबीसी की टीम के सामने अपनी पीड़ा व्यक्त की.
उन्होंने बम के उस टुकड़े की तस्वीर दिखाई जिसने उनके बेटे की जान ही ले ली होती. वो सात महीने पहले अपने परिवार के सदस्यों के साथ म्यांमार के मौंगदाव (रखाइन प्रांत) से अपना घर छोड़कर बांग्लादेश आने पर मजबूर हुई थी. म्यांमार बौद्ध बहुल देश है.
इस्मत आरा उस समुदाय से हैं जिसे संयुक्त राष्ट्र दुनिया का सबसे सताया हुआ अल्पसंख्यक मानता है. वो रोहिंग्या समुदाय से हैं.
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अधिकतर रोहिंग्या मुसलमान, बांग्लादेश के कॉक्स बाज़ार इलाक़े में दस लाख से अधिक शरणार्थियों के लिए बनाए गए 34 कैंपों में रहते हैं. ये दुनिया का सबसे बड़ा रिफ़्यूजी कैंप है.
साल 2021 में म्यांमार में सेना के सत्ता पर काबिज़ होने के बाद से वहां गृह युद्ध जैसी स्थिति है. इससे पहले साल 2017 में म्यांमार के रखाइन प्रांत से सात लाख रोहिंग्या लोगों का पलायन हुआ था.
दरअसल रखाइन प्रांत में रोहिंग्या समुदाय के लोगों ने दशकों से उत्पीड़न और हिंसा का सामना किया है.
अक्तूबर 2016 में अराकान रोहिंग्या साल्वेशन आर्मी नाम के एक चरमपंथी संगठन ने पुलिस पर हमला किया जिसमें नौ पुलिसवाले मारे गए. इसके बाद म्यांमार की सेना की कार्रवाई के दौरान सेना पर हत्याओं, बलात्कार और यातनाएं देने के आरोप लगे थे.
हालांकि सेना का दावा था कि उसने आम नागरिकों को नहीं, चरमपंथियों को निशाना बनाया है.
अगस्त 2017 में म्यांमार में भीषण हिंसा का सामना कर रहे लगभग सात लाख रोहिंग्या मुसलमानों ने वहाँ से बांग्लादेश की तरफ पलायन किया. ये पलायन अब तक थमा नहीं है.
तब से हर कुछ दिनों में हज़ारों लोग म्यांमार-बांग्लादेश सीमा से सटे रखाइन प्रांत को छोड़कर बांग्लादेश आते हैं.
हिंसा के सताए, हैरान और परेशान ये लोग दोनों देशों के बीच बहती गहरी नाफ़ नदी और समुद्र को पार कर पड़ोसी देश में पहुँचते हैं. जान बचाने के लिए वो छोटी-छोटी कश्तियों में नदी और समुद्र पार करते हैं और फिर जंगल के मुश्किल रास्ते से गुज़रते हुए यहां पहुंचते हैं.
संयुक्त राष्ट्र ने म्यांमार में रोहिंग्या लोगों के ख़िलाफ़ हो रही हिंसा को जातीय संहार बताया है.
पिछले साल जांच के बाद अंतरराष्ट्रीय आपराधिक न्यायालय में अभियोजन पक्ष ने म्यांमार के जनरल और तत्कालीन राष्ट्रपति मिन ऑंग ह्लाइंग के ख़िलाफ़ अरेस्ट वॉरंट की मांग की थी.
जांच में उन्हें रोहिंग्या समुदाय के ख़िलाफ़ हुई हिंसा के लिए ज़िम्मेदार ठहराया गया था.
बांग्लादेश की सरकार के प्रवक्ता ने बीबीसी को बताया कि पिछले साल ही कम से कम 60 हज़ार रोहिंग्या बांग्लादेश में शरण लेने के लिए पहुँचे हैं.
जानकर बताते हैं कि इन कैंपों में हर साल लगभग तीस हज़ार बच्चे जन्म लेते हैं.
इसलिए कॉक्स बाज़ार इलाके़ में शरणार्थियों की संख्या और उनके लिए बनाए जा रहे कैंपों का दायरा बढ़ता ही जा रहा है.
न नौकरी, न काम, ऊपर से घटती राहत सामग्री
आमतौर पर ये शरणार्थी बांग्लादेश में नौकरी या व्यवसाय नहीं कर सकते हैं. पढ़ाई-लिखाई और इलाज के लिए भी उनके कैंपों से बाहर जाने पर मनाही है.
खाने-पीने की वस्तुएँ, कपड़े, घर बनाने की सामग्री, स्वास्थ्य सेवाएँ, स्कूलों और लगभग सभी चीज़ों के लिए ये शरणार्थी चंदा और राहत संस्थाओं की ओर से मुहैया कराई गई सुविधाओं पर निर्भर हैं.
पिछले कुछ महीनों में और ख़ास तौर से अमेरिका के राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप के कुछ फ़ैसलों के बाद शरणार्थियों का हाल बद से बदतर होता जा रहा है.
बच्चों के लिए काम करने वाली संयुक्त राष्ट्र की संस्था के मुताबिक़ कॉक्स बाज़ार के शरणार्थी शिविरों में बाल कुपोषण का स्तर 2017 के बाद से अब सबसे बुरा है.
खाद्य सामग्री की आपूर्ति करने वाली संयुक्त राष्ट्र की संस्था वर्ल्ड फ़ूड प्रोग्राम ने कहा है कि अगर उन्हें इन शरणार्थियों के लिए जल्द ही फंडिंग प्राप्त नहीं हुई तो रोहिंग्या शरणार्थियों को दिए जाने वाले राशन में पचास प्रतिशत तक की कटौती हो सकती है.
हमने पाया कि इन कैंपो में कई संस्थाएं जो शरणार्थियों को मूलभूत सुविधाएं प्रदान करती हैं, अब अपना काम बंद कर चुकी हैं.
क्लीनिक हुए बंद, दूर जाने के पैसे नहीं
कॉक्स बाज़ार से दक्षिण की दिशा में 80 किलोमीटर दूर है टेकनाफ़ का इलाक़ा.
वहां एक कैंप में हमारी मुलाक़ात बारह साल के अनवर सादेक से हुई जो सहारा लेकर मुश्किल से चलते हैं और बोल-सुन पाने में असमर्थ हैं.
साल 2017 में नौ लोगों का उनका परिवार भी म्यांमार से बांग्लादेश आया था. वो सभी बांस की बनी झुग्गी में रहते हैं. रोशनी के लिए उनके घर में बल्ब तो हैं लेकिन न तो कोई पंखा है और न ही शौचालय की सुचारू व्यवस्था है.
यहां चार घरों के बीच एक शौचालय की व्यवस्था की गई है.
अनवर की माँ, फ़ातिमा अख़्तर कहती हैं, “वहाँ म्यांमार में हम पर हमले हो रहे थे. वहाँ किसी डॉक्टर या अस्पताल जाकर बेटे का इलाज कराना मुमकिन ही नहीं था. इन शिविरों में हमारी हालत बेहतर थी क्योंकि कम से कम यहाँ मेरे बच्चे का इलाज तो हो रहा था.”
“लेकिन कुछ दिनों पहले, जब मैं अनवर को लेकर डॉक्टर के पास गई तो देखा कि क्लीनिक बंद था. अब उस बात को एक महीना हो गया है. वह क्लीनिक अब भी बंद है.”
उनके बेटे का इलाज रुक गया है और वो कहती हैं कि उन्हें इसका अंदाज़ा नहीं है कि अब क्या किया जाये.
बीबीसी ने पाया कि हैंडीकैप्ड इंटरनेशनल नाम की संस्था के उस क्लीनिक के दरवाज़े पर ताला लगा था. वहाँ चिपकाए गए एक नोटिस में लिखा था कि अमेरिका में सरकारी फंडिंग की समीक्षा के चलते वे अपनी सेवायें नहीं दे पा रहें हैं.
नज़दीक ही, हम एक और कैंप में गए जहाँ हमारी मुलाक़ात एक गर्भवती महिला, सिनवारा से हुई.
सिनवारा ने बताया, “यहाँ मेरे जैसी गर्भवती महिलाओं से एक वॉलंटियर अक्सर मिलने आती थी और कई बार तो स्वास्थ्य केंद्र पहुंचने में भी मदद करती थी. लेकिन अब, एक महीने से यह व्यवस्था बंद है.”
“मुझे पता चला कि बहुत से संगठन पैसे की कमी के कारण यहाँ अपना काम बंद कर रहें हैं. अब हमें ऐसी सहायता पाने के लिए बहुत दूर जाना पड़ता है और यह मुश्किल है क्योंकि हमारे पास पैसे नहीं हैं. हम इस देश को ठीक से जानते भी नहीं हैं.”
कैंप के नेता, मोहम्मद नूर ने बताया कि कटौतियाँ सेवाओं में भी हुई हैं और खाने-पीने की चीज़ों में भी.
उनके अनुसार, “हर साल सर्दियों में गरम कपड़े और रमज़ान के दौरान हमें इफ़्तार और खाने का सामान मिलता था, लेकिन इस बार कुछ नहीं मिला है. पहले भी खाना सीमित ही मिलता था लेकिन उसमें भी कमी आई है. लोगों को दस्त लग जाने की स्थिति में हमें दवा, हैंडवॉश और मास्क मिलते थे लेकिन इस साल कुछ नहीं दिया गया.”
क्या कोई हल है?
जवाब जानने के लिए हम डेविड बगडन से मिले, जो कॉक्स बाज़ार क्षेत्र के कैंपों में सक्रिय सौ से अधिक स्वयंसेवी संगठनों यानी एनजीओ के संयोजक हैं. उनके संगठन का नाम है – रोहिंग्या रिफ्यूजी रिस्पॉन्स बांग्लादेश.
उन्होंने इन समस्याओं से इनकार नहीं किया.
वह बोले, “हमने कई सेवाओं पर फंडिंग की कमी का असर देखा है. आने वाले साल में हमें मिलने वाली फंडिंग में और भी गिरावट आ सकती है. ऐसा ही चलता रहा तो ज़रूरतों और फंड के बीच का फ़ासला गहराता जाएगा.”
इसका परिणाम क्या होगा?
डेविड बगडन बोले, “हताश-निराश लोग अक्सर ऐसे उपायों का सहारा लेने को मजबूर हो जाते हैं जिन्हें आशाहीन लोग अपनाते हैं. वे यहाँ से कहीं और भी पलायन कर सकते हैं. यहाँ सुरक्षा और अपराध को लेकर भी हालात बदतर हो सकते हैं. यही वजह है कि हम रोहिंग्या संकट पर ध्यान केंद्रित रखने और शरणार्थियों और मेज़बान समुदायों, दोनों का, समर्थन करने के लिए हरसंभव प्रयास कर रहे हैं.”
कुछ दिनों पहले संयुक्त राष्ट्र के महासचिव एंटोनियो गुटेरेस भी कॉक्स बाज़ार क्षेत्र के दौरे पर थे. राशन में कटौती को लेकर उन्होंने कहा था यह परिस्थिति अस्वीकार्य है.
आगे की कोशिशों पर डेविड बोले, “इन कैंपों में रहने वाले लोगों की सहायता के लिए हम कुछ ही दिनों में, इस साल के लिए लगभग 93 करोड़ अमरीकी डॉलर की ग्लोबल अपील करेंगे. आम तौर पर हमें अपील का लगभग 60 या 70 प्रतिशत तक का हिस्सा फंडिंग से मिल जाता है लेकिन इस साल लगता है उतना भी नहीं हो पाएगा.”
साल 2023 में डेविड की संस्था ने 91.8 करोड़ अमेरिकी डॉलर की अपील कि थी और उसे लगभग 57 करोड़ की मदद मिली थी और उससे पहले लगभग 56 करोड़ डॉलर की मदद मिली थी.
अमेरिका रहा है सबसे बड़ा मददगार
साल 2017 के बाद से अमेरिका, बांग्लादेश में रह रहे रोहिंग्या समुदाय का सबसे बड़ा मददगार देश रहा है.
अमेरिका की सरकारी संस्था ‘यूएस एजेंसी फॉर इंटरनेशनल डेवलपमेंट’ (यूएस-एड), की मदद से कॉक्स बाज़ार में कई राहत कार्य किए जा रहे थे. इस संस्था के कई कार्यक्रमों की फंडिंग पर ट्रंप सरकार ने अब रोक लगा दी है.
साल 2024 में रोहिंग्या समुदाय की मदद के लिए दिए गए कुल 54.5 करोड़ अमेरिकी डॉलर में से अमेरिका ने 30 करोड़ डॉलर दिए थे और साल 2023 में 24 करोड़ डॉलर दिए थे.
फिलहाल यह साफ़ नहीं कि आगे रोहिंग्या समुदाय के लिए अमेरिका की मदद जारी रहेगी भी या नहीं और अगर रही तो पहले की तुलना में कितनी होगी.
बांग्लादेश सरकार के प्रेस सचिव, शफ़ीक़ूल आलम ने बीबीसी को बताया, “हम उम्मीद करते हैं कि अमेरिका का इस मामले में समर्थन जारी रहेगा. हम बाक़ी देशों के साथ भी संपर्क में हैं जैसे जापान, यूरोपीय संघ के देश इत्यादि और उन्होंने भी आश्वासन दिया है कि वे अपनी मदद का दायरा बढ़ाएँगे.”
रोहिंग्या समुदाय के लिए सहायता देने वाले देशों की श्रेणी में भारत का नाम काफ़ी पीछे है.
हालांकि साल 2017 में भारत ने ‘ऑपरेशन इंसानियत’ के तहत शरणार्थियों के लिए राहत सामग्री बांग्लादेश को मुहैया कराई थी. उसके बाद 2019 में भारत ने म्यांमार के रखाइन प्रांत में 250 घरों का निर्माण किया था.
भारत ने शरणार्थियों को बांग्लादेश से म्यांमार वापस भेजे जाने की प्रक्रिया पर बार-बार ज़ोर दिया है.
क्या शरणार्थी म्यांमार वापस जा पाएँगे?
बीबीसी हिंदी ने जितने शरणार्थियों से बातचीत की उन सभी ने बांग्लादेश से वापस म्यांमार जाने की इच्छा जताई.
लेकिन बांग्लादेश सरकार के मुताबिक़ साल 2017 से अब तक एक भी शरणार्थी वापस लौट नहीं पाया है.
बांग्लादेश के शरणार्थी राहत कमीशन के अपर आयुक्त, मोहम्मद शमशूद डोज़ा बताते हैं, “इन सालों में हमने वेरिफ़िकेशन करने के बाद म्यांमार को आठ लाख से अधिक शरणार्थियों का डेटा दिया. उनकी सरकार के प्रतिनिधि भी यहाँ आए, रोहिंग्या नेता भी वहाँ गए. लेकिन अब तक एक भी शरणार्थी वापस नहीं जा पाया है. दरअसल उनको लेकर अब तक किसी तरह की सहमति बन नहीं पाई है.”
आगे क्या होगा यह कह पाना मुश्किल है.
शफ़ीक़ूल आलम ने बीबीसी को बताया, “हम रोहिंग्या लोगों को स्वेच्छा से, सम्मान के साथ और पूरी सहमति से वापस म्यांमार भेजना चाहते हैं. लेकिन अभी वहाँ, खास तौर से म्यांमार के रखाइन इलाके़ में, हिंसा और गृह युद्ध की स्थिति है. इसलिए, हमें नहीं लगता कि उन्हें वापस भेजने का यह सही समय है.”
रोहिंग्या का इतिहास
संयुक्त राष्ट्र के मुताबिक़, “रोहिंग्या एक अल्पसंख्यक समूह है जो सदियों से बौद्ध बहुल म्यांमार में रह रहा है. कई पीढ़ियों से म्यांमार में रहने के बावजूद, रोहिंग्या को यहां आधिकारिक जातीय समूह के रूप में मान्यता नहीं दी गई है”
“1982 से उन्हें नागरिकता से वंचित रखा गया है, जिससे वे दुनिया की सबसे बड़ी राज्यविहीन यानी स्टेटलेस आबादी बन गए हैं.”
गौतम मुखोपाध्याय, म्यांमार में भारत के राजदूत रह चुके हैं.
बीबीसी से बातचीत में उन्होंने बताया, “रोहिंग्या का दावा है कि वे हमेशा से वहीं, नाफ़ नदी के पास रहने वाले ‘रोहेंग’ समुदाय से संबंध रखते हैं और शायद यह बात सही भी हो. लेकिन सभी इसे मानते हैं, ऐसा नहीं है. उन्हें अलग-अलग समय पर प्रवासियों के रूप में देखा जाता रहा है. म्यांमार के लोगों का मानना हैं कि रोहिंग्या ‘बंगाली’ हैं, और वे बर्मा में ब्रिटिश हस्तक्षेप के बाद ही आए हैं.”
लेकिन क्या उस इलाक़े में इस्लाम का प्रभाव पहले था?
मुखोपाध्याय बताते है, “ऐतिहासिक रूप से, रखाइन कोर्ट में इस्लामिक प्रभाव था. लेकिन रोहिंग्या और रखाइन के अराकान साम्राज्य के कोर्ट में उठने बैठने वाले मुसलमानों के बीच एक अंतर है. रोहिंग्या वास्तव में सबसे ग़रीब लोगों में से हैं. यह संभव है कि अंग्रेज़ों के शासन में जिस तरह भारत के किसान बर्मा चले गए थे, रोहिंग्या लोग भी कहीं दूसरी तरफ से आए हों.”
मुखोपाध्याय बताते हैं कि आज़ादी के बाद बर्मा में रोहिंग्या समुदाय और बामर समुदाय के बीच की खाई बढ़ी है.
वो कहते हैं, ” साल1947 में, जब भारत का विभाजन हुआ, तो उस समय के रोहिंग्या नेतृत्व ने पूर्वी पाकिस्तान में शामिल होने का विकल्प चुना था और इस बात को बर्मा के लोग और विशेष रूप से वहाँ के बामर, जो आज शासक वर्ग है, कभी नहीं भूला है.”
अतिरिक्त रिपोर्टिंग- अब्दुर रहमान
बीबीसी के लिए कलेक्टिव न्यूज़रूम की ओर से प्रकाशित