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Birsa Munda’s Death Anniversary,Birsa Munda Death Anniversary: 25 साल की उम्र में बने धरती आबा, जानें ईसाई धर्म को छोड़ कर क्यों शुरू की बिरसाइत – birsa munda death anniversary at 25 challenged the british why he left christianity and founded birsait

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Jun 9, 2025


रांचीः राष्ट्रपिता महात्मा गांधी दक्षिण अफ्रीका में रंगभेद के खिलाफ आवाज उठा रहे थे, उसी समय बिरसा मुंडा भारत में गुलामी के खिलाफ लड़ रहे थे। अमर शहीद बिरसा मुंडा को झारखंड ही पूरे देश-दुनिया में धरती आबा के नाम से भी जाना जाता है। उन्होंने जनजातीय समाज की पहचान बचाने के लिए संघर्ष किया। बिरसा मुंडा ने ईसाई धर्म के खिलाफ बिरसाइत धर्म की शुरुआत की। उन्होंने सिर्फ 25 वर्ष की उम्र में ही देश के लिए एक बड़ा इतिहास लिख दिया।

बिरसा मुंडा की दो बार हुई गिरफ्तारी

बिरसा मुंडा का जन्म 15 नवंबर 1875 को झारखंड के खूंटी जिले के उलीहातू गांव में हुआ था। उनके माता-पिता का नाम सुगना और करमी था। बिरसा मुंडा की शुरुआती शिक्षा सलमा में हुई। इसके बाद वे चाईबासा के मिशन स्कूल में पढ़ने गए। 1890 में उन्होंने चाईबासा छोड़ दिया। 1895 में उन्होंने मुंडाओं को एकजुट करके उलगुलान शुरू किया। उनका प्रभाव इतना ज्यादा था कि सरदार आंदोलन के योद्धा भी उलगुलान से जुड़ गए। उन्होंने जमीन के लिए लड़ाई लड़ी। बिरसा मुंडा की लोकप्रियता से अंग्रेज बहुत परेशान थे।

बिरसा मुंडा बहुत कम समय में इतने लोकप्रिय हो गए कि अंग्रेज उनसे डरने लगे। ब्रिटिश सरकार ने उन पर 500 रुपए का इनाम घोषित कर दिया था। उन्हें 1895 में पहली बार और 1900 में दूसरी बार गिरफ्तार किया गया। 9 जून 1900 को रांची जेल में उनकी मौत हो गई. 9 जून को बिरसा मुंडा का 125 वां शहादत दिवस है। 9 जून 1900 को रांची जेल में उनकी मौत हो गई। बिरसा मुंडा का जन्म 15 नवंबर 1875 को झारखंड के खूंटी जिले के उलिहातू में हुआ था।

डोंबारी बुरू पहाड़ी पर अंग्रेजों के खिलाफ लड़ी अंतिम लड़ाई

खूंटी जिले में एक पहाड़ी है, जिसका नाम डोंबारी बुरू है। यह पहाड़ी झारखंड की पहचान और संघर्ष का प्रतीक है। इसी पहाड़ी पर बिरसा मुंडा ने अंग्रेजों के खिलाफ अंतिम लड़ाई लड़ी थी। 9 जनवरी 1900 को सइल रकब पहाड़ी (डोंबारी बुरू) पर बिरसा मुंडा के समर्थकों पर पुलिस ने अंधाधुंध गोलियां चलाईं। यह बिरसा मुंडा के समर्थकों की शहादत की भूमि है। यह अंग्रेजों के अत्याचार की याद दिलाती है। यहां शहीदों की याद में 110 फीट ऊंचा एक विशाल स्तंभ बनाया गया है। उसके नीचे मैदान में बिरसा मुंडा की मूर्ति लगाई गई है। इतिहासकार इसे जालियांवाला बाग हत्याकांड के पहले सबसे बड़ा नरसंहार मानते हैं।

हालांकि, इस घटना में बिरसा मुंडा बच गए थे। सैकड़ों लोगों की शहादत के बावजूद, अब तक सिर्फ छह लोगों की ही पहचान हो पाई है। डोंबारी बुरू के पत्थर पर उनके नाम लिखे गए हैं। इनमें हाथीराम मुंडा, हाड़ी मुंडा, सिंगराय मुंडा, बंकन मुंडा की पत्नी, मझिया मुंडा की पत्नी और डुंगडुंग मुंडा की पत्नी के नाम शामिल हैं। वीर शहीदों की याद में 9 जनवरी को यहां हर साल मेला लगता है।

मुंडा व्यवस्था की आलोचना से आहत हुए बिरसा

एक रिपोर्ट में बताया गया है कि बिरसा मुंडा की छोटी मौसी जोनी उन्हें बहुत प्यार करती थीं। शादी के बाद वह बिरसा मुंडा को अपने साथ ससुराल खटंगा गांव ले गई थीं। वहां वे ईसाई धर्म के एक प्रचारक के संपर्क में आए। वो प्रचारक अपने भाषणों में मुंडा समाज की व्यवस्था की आलोचना करते थे। यह बात बिरसा मुंडा को बहुत बुरी लगी। इसलिए मिशनरी स्कूल में पढ़ाई करने के बावजूद, वे आदिवासी तौर-तरीकों की ओर वापस लौटने लगे।

जनजातीय समाज को बचाने के लिए बिरसाइत धर्म की शुरुआत

बिरसा मुंडा ने जनजातीय समाज को बचाने के लिए बहुत काम किया. लोग उन्हें धरती आबा कहते थे। उन्होंने देखा कि ईसाई धर्म जनजातीय संस्कृति को खत्म करने की कोशिश कर रहा है। इसलिए उन्होंने बिरसाइत धर्म शुरू किया। यह धर्म जनजातीय लोगों को उनकी पहचान बनाए रखने में मदद करता था। उन्होंने अपने समाज की बुराइयों के खिलाफ आवाज उठाई। उन्होंने समाज में फैली गलत चीजों के बारे में लोगों को बताया और उन्हें बदलने के लिए प्रेरित किया।

छोटानागपुर के कमिश्नर रहे कुमार सुरेश सिंह ने आदिवासी समाज का गहराई से अध्ययन किया था। उनकी किताब में बिरसा मुंडा और आदिवासी समाज से जुड़ी कई कहानियां मिलती हैं। इस किताब में बताया गया है कि अंग्रेजों के शासनकाल में एक समय ऐसा भी आया जब बिरसा मुंडा के परिवार ने ईसाई धर्म अपना लिया था। उनके पिता तो ईसाई धर्म के प्रचारक भी बन गए थे। धर्म बदलने के बाद बिरसा मुंडा का नाम दाऊद मुंडा और उनके पिता का नाम मसीह दास रखा गया था।

जमीन और वन से जुड़े अधिकारों के आंदोलन में कूदे

साल 1894 में बिरसा मुंडा आदिवासियों के जमीन और वन से जुड़े अधिकारों के लिए आंदोलन में कूद पड़े। ये उनके जीवन का एक महत्वपूर्ण मोड़ था। तब उन्हें महसूस हुआ कि आदिवासी और ईसाई, दोनों ही धर्मों के लोग इस आंदोलन को ज्यादा महत्व नहीं दे रहे हैं। इसलिए उन्होंने एक अलग धर्म और उसकी पद्धति की व्याख्या की। इस पद्धति को मानने वालों को ही बिरसाइत कहा जाता है।साल 1895 में बिरसा मुंडा ने अपने नए धर्म का प्रचार करने के लिए 12 शिष्य नियुक्त किए। इसके साथ ही जलमई (चाईबासा) के रहने वाले सोमा मुंडा को अपना प्रमुख शिष्य घोषित किया और उन्हें धर्म पुस्तक सौंपी।

बिरसाइत धर्म को मानने वाले लोग मांस-मदिरा, खैनी-बीड़ी जैसी चीजों से दूर रहते हैं। वे बाजार में बना खाना या किसी दूसरे के घर का बना खाना भी नहीं खाते हैं। गुरुवार को वे फूल-पत्ती नहीं तोड़ते, दातुन नहीं करते और खेतों में हल भी नहीं चलाते हैं। वे सिर्फ सफेद सूती कपड़े पहनते हैं। इस धर्म में पूजा के लिए फूल, प्रसाद, दक्षिणा, अगरबत्ती और चंदा जैसी चीजों का इस्तेमाल नहीं किया जाता है। बिरसाइत धर्म के लोग सिर्फ प्रकृति की पूजा करते हैं। वे गीत गाते हैं और जनेऊ पहनते हैं। इस धर्म के लोग, चाहे पुरुष हो या महिलाएं, बाल नहीं कटवाते हैं।

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