इन नतीजों से कांग्रेस के लिए एक बड़ा सबक निकलता है कि देश की सबसे बड़ी पार्टी को किसी भी चुनाव में खेल बिगाड़ने वाले खिलाड़ी के तौर पर नहीं, बल्कि खेल जीतने के भाव से उतरने वाले खिलाड़ी के रूप में होना चाहिए। थोड़े से समय की सक्रियता ने पार्टी को चर्चा में तो ला दिया, लेकिन पार्टी यह चर्चा न तो वोट में खास अंतर दिला पाई और न ही सीट जितवा पाई। कांग्रेस काे समझना होगा कि चुनाव से महज कुछ महीने पहले या दिल्ली के मामले में महज कुछ हफ्ते पहले आई सक्रियता के भरोसे चुनावी मैदान नहीं मारा जाता। कांग्रेस की एक बड़ी दिक्कत लगातार तेजी जमीनी आधार सिकुड़ना है। दिल्ली के मामले में यह साफ दिखता है।
जमीनी स्तर पर मेहनत की जरूरत
बीजेपी हो या आप, दोनों ने ही जीत और हार की स्थिति में अपना वाेट आधार लगभग बनाए रखा, उसमें ज्यादा गिरावट नहीं होने दी। हालांकि जमीनी आधार बनाए रखने के लिए कांग्रेस काे सबसे पहले अपने संगठन पर ध्यान देना होगा और नेताओं की एक नई पौध तैयार करनी होगी। हरियाणा, दिल्ली सहित कई राज्यों में कांग्रेस को अपने संगठन में सालों से खाली पड़े संगठन के पदों को भरना होगा। संगठन सृजन के कार्यक्रम में उसे तेजी लानी होगी, ताकि संगठन खड़ा हो सके। संगठन के बिना जमीन पर चुनाव नहीं लड़ा जा सकता और न ही वोटर्स को पोलिंग बूथ तक आने के लिए मोबलाइज किया जा सकता है। बीजेपी की दिल्ली में तमाम सीटों पर हुई बेहद नजदीकी जीत के पीछे कहीं न कहीं उसका बूथ मैनेजमेंट भी माना जा रहा है।
ये है कांग्रेस की सबसे बड़ी कमी
कांग्रेस को नेताओं के नए चेहरे तैयार करने होंगे, चुनाव दर चुनाव पुराने चेहरे पर दांव लगाने को भी अकसर आज का वोटर्स पसंद नहीं करता। कांग्रेस की दिक्कत है कि वह वोटर्स को अपनी तरफ लाने की बजाय सामने वाले से निराश होकर वोटर्स के अपनी तरफ आने का इंतजार करती है। कोई जरूरी नहीं कि एक से निराश होकर वोटर उसकी ओर आए, कई बार वह निराश होकर तीसरी ओर चला जाता है। आप का उदय कई राज्यों में ऐसे ही हुआ।
दिल्ली में 5 साल लगातार काम करना होगा
कांग्रेस के लिए एक बड़ा सबक है कि उसे चुनाव में हीं नहीं, पूरे पांच साल काम करना होगा। हर इलाके में संगठन को और कुछ चेहरों को सक्रिय करना होगा, उन्हें जिम्मेदारी देनी होगी, जो पांच साल काम करें। यह काम उसे बीजेपी से सीधे मुकाबले वाले राज्यों से लेकर गठबंधन वाले राज्यों में भी करना होगा। राष्ट्रीय नेतृत्व को अपनी नीतियों में स्पष्टता लानी होगी। दरअसल, जिस तरह से कांग्रेस का राष्ट्रीय नेतृत्व चुनाव से महज तीन हफ्ते पहले तक दिल्ली में आप के खिलाफ आक्रामक प्रचार को लेकर अनिश्चित दिखा, उसका भी असर कहीं न कहीं नतीजों पर दिखा। इस साल जहां बिहार में चुनाव होना है, तो वहीं बंगाल, केरल, तमिलनाडु से लेकर असम जैसे राज्यों में चुनाव होना है, जहां कई जगह वह सहयोगी की तो कहीं मुख्य भूमिका में है। ऐसे में कांग्रेस को अपनी रणनीति को इन्हें ध्यान में रखकर धार देनी होगी।
दलितों और मुस्लिमों के वोट बैंक पर करना होगा फोकस
दिल्ली के नतीजों से एक बार तय है कि कांग्रेस जहां एससी और अल्पसंख्यकों के वोट के बल पर अपनी जीत की इबारत लिखने के मंसूबे बांध रहा था, उसे भी झटका लगा है। पार्टी पूरी तरह से दलितों व मुस्लिमों के वोट बैंक को अपनी तरफ मोड़ने में सफल नहीं हुई। ये वोट आप में गए ही, वहीं माना जा रहा है कि दलितों के साथ कुछ जगह मुस्लिमों ने भी बीजेपी को साथ दिया। ऐसे में कांग्रेस को वोटर्स को साधने के लिए अपनी रणनीति को नए सिरे से तैयार करना होगा, जहां किसी खास वर्ग के भरोसे रहने की बजाय उसे अपनी पहुंच का दायरा बढ़ाना होगा।