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दिल्ली विधानसभा चुनावों में भारी बहुमत पाने के साथ 27 साल बाद बीजेपी सरकार बनाने जा रही है.
शनिवार को आए नतीजों में बीजेपी को 48 सीटें और आम आदमी पार्टी को 22 सीटें मिलीं. हालांकि दोनों पार्टियों के बीच वोट शेयर का अंतर महज दो प्रतिशत (1.99 फ़ीसदी) रहा.
दिल्ली विधानसभा चुनावों में आम आदमी पार्टी को भले ही भारी हार का सामना करना पड़ा है और कुल 70 सीटों पर उसका स्ट्राइक रेट 31.4 प्रतिशत रहा. लेकिन आरक्षित सीटों पर उसकी सफलता की दर 66 प्रतिशत रही.
दिल्ली की 12 आरक्षित सीटों में से बीजेपी को चार और आम आदमी पार्टी को आठ सीटें मिली हैं.
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इन सभी सीटों पर कांग्रेस तीसरे नंबर रही और बहुजन समाज पार्टी कोई ऐसा फ़ैक्टर नहीं साबित हो पाई जिससे जीत हार पर निर्णायक असर पड़ता हो.
2013 के चुनाव में दलित मतदाताओं ने नई बनी आम आदमी पार्टी का साथ दिया था और 12 आरक्षित सीटों में से नौ सीटें आप ने जीती थीं. पिछले दो विधानभा चुनावों, 2015 और 2020, में आप ने इन सभी 12 सीटों पर क्लीन स्वीप किया था.
राजनीतिक विश्लेषक मानते हैं कि आरक्षित सीटों पर आम आदमी पार्टी का बेहतर प्रदर्शन दिखाता है कि निम्न मध्यवर्ग में आप सरकार की कल्याणकारी स्कीमों का असर कम से कम अभी तक फीका नहीं पड़ा है.
आम आदमी पार्टी का भी कहना है कि निम्न वर्गों में उसका आधार बरक़रार रहा है.
आरक्षित सीटों पर प्रदर्शन
दिल्ली विधानसभा की 12 आरक्षित सीटों में से चार- बवाना, मंगोलपुरी, मादीपुर और त्रिलोकपुरी बीजेपी के खाते में गई हैं.
जबकि आठ आरक्षित सीटों- सुल्तानपुर माजरा, करोल बाग, पटेल नगर, देवली (यहां बीजेपी ने एलजेपी-राम विलास के उम्मीदवार को टिकट दिया था), अंबेडकर नगर, कोंडली, सीमापुरी और गोकुलपुर पर आप ने जीत दर्ज की.
इन सभी सीटों पर दलित और बहुजन की पार्टी मानी जाने वाली बीएसपी को कोई ख़ास सफलता नहीं मिली. लेकिन इनमें दो सीटें ऐसी थीं जहां आप की हार का अंतर कांग्रेस को मिले वोटों से अधिक था, जैसे- मादीपुर और त्रिलोकपुरी.
त्रिलोकपुरी में तो बीजेपी के उम्मीदवार को 392 वोटों से जीत मिली, जबकि कांग्रेस के उम्मीदवार को 6147 वोट मिले और नोटा पर 683 वोट पड़े थे. इस सीट पर चंद्रशेखर की आज़ाद समाज पार्टी (कांशीराम) के उम्मीदवार को 1681 वोट मिले. बसपा पांचवें नंबर थी.
एक आरक्षित सीट (देओली) को बीजेपी ने लोक जनशक्ति पार्टी (राम विलास) को दिया था, जिसके उम्मीदवार दीपक तंवर को 50,209 वोट मिले और आम आदमी पार्टी के उम्मीदवार प्रेम चौहान ने उन्हें 36,680 वोटों के अंतर से हराया.
निम्न मध्य वर्ग का साथ
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आम आदमी पार्टी के वरिष्ठ नेता सोमनाथ भारती का कहना है कि “आज भी वंचित और उपेक्षित जनता, दलित और अल्पसंख्यक समुदाय, ये सभी पार्टी से जुड़े हुए हैं और जुड़े रहेंगे.”
नतीजे आने के बाद बीबीसी हिंदी से उन्होंने कहा, “जिन्हें सरकार की मदद की ज़रूरत है, चाहे बिजली-पानी हो या शिक्षा-स्वास्थ्य या फ़्री बस सेवा हो और जो अपने बच्चों को अच्छी शिक्षा दिलाना चाहता है, वे सभी लोग हमसे जुड़े हुए हैं.”
हालांकि वह मानते हैं कि 10 साल की सत्ता विरोधी लहर का थोड़ा असर था, लेकिन पार्टी के मूल आधार में कोई ख़ास गिरावट नहीं आई है.
उन्होंने कहा, “जो नुकसान हुआ है वो मिडिल क्लास में हुआ. इन्होंने (विपक्ष ने) जो छवि को धूमिल करने की कोशिश की उसका फ़र्क पड़ा है. हालांकि निम्न मध्य वर्गीय तबके में बहुत फ़र्क नहीं पड़ा है. अभी भी वोटों में महज दो प्रतिशत का ही अंतर है.”
हालांकि आम आदमी पार्टी के वोट शेयर में पिछले चुनाव के मुक़ाबले क़रीब 10 प्रतिशत की कमी आई है. 2020 के विधानसभा चुनाव में आम आदमी पार्टी का वोट शेयर लगभग 53.57 प्रतिशत था जो इस बार गिरकर 43.57 प्रतिशत हो गया.
वहीं बीजेपी को जहां 2020 में 38.51 फ़ीसदी वोट मिले थे, इस बार उसे 45.56 फीसदी वोट हासिल हुए. यानी उसने इस बार वोट शेयर में सात प्रतिशत का इजाफ़ा किया.
केजरीवाल सरकार के पहले कार्यकाल में मंत्री रह चुके और आम आदमी पार्टी के वरिष्ठ नेता सोमनाथ भारती मालवीय नगर सीट से महज़ 2,131 वोटों से हार गए. 2013 से ही वो इस सीट का वह प्रतिनिधित्व कर रहे थे.
बीबीसी हिंदी से बात करते हुए सोमनाथ भारती ने कहा, “इस बार चुनाव कांग्रेस और बीजेपी ने मिलकर लड़ा. मेरे हार के अंतर से अधिक कांग्रेस के उम्मीदवार को वोट (6,770) मिले हैं.”
उन्होंने कहा, “बीजेपी ने चुनाव को आम आदमी पार्टी बनाम बाकी पार्टियों का कर दिया था. सभी पार्टियां एकजुट होकर आम आदमी पार्टी के ख़िलाफ़ लड़ी हैं.”
सोमनाथ भारती ने माना कि पार्टी की हार का एक बड़ा कारण एमसीडी में पूर्ण बहुमत से आने के बाद भी कोई काम न करा पाना था, जिस कारण मध्यवर्ग में नाराज़गी भी रही.
सोमनाथ कहते हैं, “लेकिन आरक्षित सीटों पर आम आदमी पार्टी का बेहतर प्रदर्शन ये दिखाता है कि निम्न मध्यवर्गीय तबकों में पार्टी का कनेक्ट बना रहा, जो नुक़सान हुआ वो मध्यम वर्ग से था.”
वो कहते हैं, “मेरे क्षेत्र के अंदर एमसीडी की नाकामियों का असर रहा. एमसीडी में आने के बाद भी जो उसकी नाकामियां रहीं, उससे मध्यवर्ग में कुछ नाराज़गी थी. लोगों की आकांक्षा थी कि हम आएंगे और तुरंत जादू की छड़ी घुमाएंगे और सड़कें और नालियां सब साफ़ सफ़ाई हो जाएंगी… एमसीडी में लाने के बाद जनता की जो उम्मीदें थीं, लेकिन उनको लेकर वो इंतज़ार नहीं कर सकी.”
दिल्ली एमसीडी का चुनाव दिसंबर 2022 में हुआ था और 15 सालों से बीजेपी के दबदबे को तोड़ते हुए आम आदमी पार्टी ने पहली बार यहां पूर्ण बहुमत हासिल किया, लेकिन उसे अपना मेयर बनाने में क़रीब तीन महीने लग गए.
मेयर बनने के बाद भी एमसीडी के कामों को सुचारू रूप से चलाने और गतिरोध तोड़ने में आम आदमी पार्टी को कोई ख़ास सफलता नहीं मिल पाई. कुछ लोगों का मानना है कि इसका सीधा असर ज़मीनी स्तर पर होने वाले कामों पर पड़ा.
हालांकि यह भी दिलचस्प है कि एमसीडी में जिसका बहुमत होता है, दिल्ली की सत्ता उससे दूर रहती है. पिछले पंद्रह सालों से बीजेपी इसकी नज़ीर रही है.
मध्य वर्ग में क्यों खिसका आधार
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राजनीतिक विश्लेषकों मानना है कि ‘आप’ के मध्यवर्गीय आधार में बीजेपी ने जो सेंध लगाई है, वो निर्णायक साबित हुई.
चुनाव से पहले आम बजट पेश हुआ जिसमें इनकम टैक्स की सीमा में ऐतिहासिक रूप से 12 लाख रुपये तक की छूट का एलान हुआ. उससे ठीक पहले आठ साल के लंबे इंतज़ार के बाद आठवां वेतन आयोग लागू किया गया.
बढ़ती महंगाई और स्थिर वेतन के बीच मध्यवर्ग के लिये ये बड़ी राहत थी.
वरिष्ठ पत्रकार संजीव श्रीवास्तव का कहना है कि केजरीवाल की ‘मिस्टर क्लीन’ की छवि को धक्का पहुंचना भी मध्य वर्ग के मोहभंग का कारण बना.
बीबीसी दिनभर पॉडकास्ट में संजीव श्रीवास्तव ने कहा, “झुग्गी झोपड़ी, ऑटो रिक्शा ड्राइवर, ग़रीब और कुल मिलाकर निम्न मध्य वर्ग में केजरीवाल का आधार क़ायम है. लेकिन मध्य वर्ग में आधार खिसकना वो भी 10 प्रतिशत तक, यह केजरीवाल के ख़िलाफ़ एक नेगेटिव वोट था.”
उन्होंने कहा, “27 साल बाद बीजेपी की जीत से बड़ी बात है केजरीवाल का हार जाना. पिछले 10 साल से उन्होंने जुमलेबाज़ी को ही मुख्य नीति बना ली थी, उससे जनता के ज़ेहन से वो उतर गए.”
लंबे समय से दिल्ली में सामाजिक काम करने वाले जन पहल के राष्ट्रीय सचिव धर्मेंद्र कुमार भी इस बात से सहमत हैं.
उन्होंने बीबीसी हिंदी से कहा, “आंदोलन की ज़मीन से पैदा हुई आम आदमी पार्टी ने जितने ऊंचे मानदंड स्थापित करने का सपना दिखाया था, वह टूट गया. भ्रष्टाचार, साफ़ हवा पानी, गुड गवर्नेंस, पार्टी विद डिफ़रेंस को लेकर उनकी छवि वैसी नहीं रही.”
बीजेपी ने इस लड़ाई को जीत में बदलने के लिए दोनों तरह से काम किया, यानी एक तरफ़ मध्य वर्ग का भरोसा हासिल करना और दूसरी तरफ़ उनकी नज़र से केजरीवाल को उतारना.
निम्न मध्य वर्ग अभी भी आप के साथ क्यों?
लेखक और वरिष्ठ पत्रकार डॉ. सिद्धार्थ ने दिल्ली के पिछले तीन विधानसभा चुनावों को क़रीब से देखा है.
बीबीसी हिंदी से बात करते हुए उन्होंने कहा, “दिलचस्प है कि आम आदमी पार्टी की कल्याणकारी योजनाओं को बीजेपी ने एक बार भी रेवड़ी नहीं कहा. बल्कि पीएम मोदी ने रैलियों में आश्वासन दिया कि जो योजनाएं चल रही हैं, वो चलती रहेंगी.”
उनके अनुसार, “बीजेपी की ओर से महिलाओं को दिए जाने वाले भत्ते को केजरीवाल के 2100 रुपये प्रतिमाह के वादे से बढ़कर 2500 रुपये प्रतिमाह देने का वादा किया गया. फिर भी निम्न मध्य वर्ग का आम आदमी पार्टी से भरोसा उतना कम नहीं हुआ. जितना सीटों में दिखाई देता है.”
इसका कारण बताते हुए डॉ सिद्धार्थ कहते हैं, “आरक्षित सीटों का आधार बहुसंख्यक दलित आबादी के आधार पर तय होती है. दिल्ली में दलित मिडिल क्लास बहुत कम हैं. वैसे भी पूरे भारत में दलित मिडिल क्लास पांच प्रतिशत के क़रीब है. इस समुदाय से आने वाले निम्न मध्य वर्ग की आबादी केजरीवाल की वेलफ़ेयर स्कीमों के चलते उनके साथ है.”
उनके अनुसार, “बीजेपी ने इस चुनाव में ऐसा कोई वादा नहीं किया जो केजरीवाल से अधिक हो. फ़्री बस सेवा का सबसे अधिक फ़ायदा निम्न मध्यवर्गीय महिलाओं को मिल रहा था. बिजली पानी, शिक्षा, स्वास्थ्य में सहूलियतों का फ़ायदा भी इसी तबके को मिला. संपन्न इलाक़ों में आप का जनाधार अधिक खिसका है. केजरीवाल की खुद की सीट में भी एक अच्छी ख़ासी आबादी मध्य वर्ग की है.”
उन्होंने कहा, “दलित आबादी के बीच आम आदमी पार्टी की पैठ का इसी से अंदाज़ा लगाया जा सकता है कि दलितों बहुजनों की पार्टी कही जाने वाली बसपा का कुल वोट 0.58 फ़ीसदी रहा, जबकि नोटा पर 0.57 फ़ीसदी वोट पड़े.”
उनके अनुसार, आम आदमी पार्टी ने जिन 22 सीटों पर जीत दर्ज की उनमें लगभग 14 सीटें ऐसी हैं जहां दलित, अल्पसंख्यक, झुग्गी बस्ती और मज़दूर वर्ग की संख्या अधिक है. बीजेपी ने 14 दलित उम्मीदवारों को टिकट दिया था, उनमें से सिर्फ चार जीते. उसने दो दलित कैंडिडेट गैर-आरक्षित सीटों पर दिए थे- मटिया महल और बल्लीमारान, ये दोनों हार गए.
दिल्ली की सात सीटें मुस्लिम बहुल मानी जाती हैं- मटिया महल, ओखला, बाबरपुर, चांदनी चौक, बल्लीमारान, सीलमपुर और मुस्तफ़ाबाद. इनमें केवल एक सीट, मुस्तफ़ाबाद पर बीजेपी के मोहन सिंह बिष्ट जीत सके. यहां ओवैसी की पार्टी एआईएमआई से 2020 के दिल्ली दंगों के अभियुक्त ताहिर हुसैन खड़े थे जिन्हें 33 हज़ार से अधिक वोट मिले और बिष्ट 17500 से अधिक के अंतर से जीत गए.
डॉ. सिद्धार्थ कहते हैं, “संविधान को लेकर आशंकाओं के चलते दलित मिडिल क्लास बीजेपी से दूर रहा जबकि वेलफ़ेयर स्कीमों के चलते दलितों का निम्न मध्यवर्ग बड़े पैमाने पर आप के साथ बना रहा.”
हालांकि चुनावी नतीजे बताते हैं कि दक्षिणी दिल्ली जैसे संपन्न इलाक़े हों, या उत्तर पूर्वी दिल्ली जैसे निम्न मध्यवर्गीय इलाक़े, यहां बीजेपी और आप ने बराबर-बराबर सीटें जीती हैं.
बीजेपी को बढ़त उत्तर पश्चिमी दिल्ली में मिली जहां उसने आठ में से सात सीटों पर जीत दर्ज की. इसी तरह पश्चिमी दिल्ली की 10 विधानसभा सीटों में 9 पर बीजेपी जीती और आप को सिर्फ एक सीट मिली.
दिल्ली ग्रामीण की 18 सीटों में से बीजेपी ने 13 सीटें जीतीं हैं. आप इस बार केवल पांच सीट जीत पाई, जबकि 2020 में उसने 17 सीटें जीती थीं.
डॉ. सिद्धार्थ कहते हैं, “आप के लिए चुनौती अब शुरू होती है कि वो अपने इस आधार को कैसे संभाले रखती है. एमसीडी अभी उसके पास है और उसके सामने करने को बहुत कुछ है.”
बीबीसी के लिए कलेक्टिव न्यूज़ रूम की ओर से प्रकाशित