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दिल्ली विधानसभा चुनाव में बीजेपी की जीत के बाद प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने अपने भाषण में कांग्रेस को ‘परजीवी’ पार्टी कहा.
उन्होंने कहा, “बिहार में कांग्रेस जातिवाद का ज़हर फैलाकर अपनी सहयोगी आरजेडी की पेटेंट ज़मीन को खाने में लगी है.”
चूंकि इस साल के अंत में बिहार में विधानसभा चुनाव होने हैं इसलिए पीएम मोदी के भाषण का ये अंश चर्चा में है.
कांग्रेस और आम आदमी पार्टी इंडिया गठबंधन का हिस्सा हैं. लेकिन दिल्ली विधानसभा चुनाव में दोनों ने अलग हिस्सा लिया और इस कदम को विपक्ष के वोटों के बंटवारे के तौर पर भी देखा गया.
हमने एक्सपर्ट्स से ये जानने की कोशिश की है कि दिल्ली चुनाव के नतीजों का बिहार में होने वाले चुनावों पर क्या असर पड़ेगा.
ए एन सिन्हा इंस्टीट्यूट के पूर्व निदेशक डी एम दिवाकर मानते हैं कि कांग्रेस बिहार में अपनी ज़मीन हासिल करने की कोशिश कर रही है.
एम दिवाकर कहते हैं, “बिहार में कांग्रेस अपनी ज़मीन मजबूत करने में लगी है. अगर वो ऐसा कर पाती है तो कांग्रेस की बारगेनिंग पावर बढ़ेगी.”
“कांग्रेस की नेशनल लीडरशिप कड़े फैसले ले रही है. वैसे भी बिहार में कार्यकर्ताओं की पुरानी डिमांड रही है कि पार्टी अकेले चुनाव लड़े ताकि पार्टी को लॉन्ग टर्म में फ़ायदा मिले.”
दिल्ली चुनाव और एनडीए
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दिल्ली चुनाव के नतीज़ों ने आगामी बिहार विधानसभा चुनावों में पार्टियों की स्थिति को लेकर कयास तेज़ कर दिए है.
जानकारों की मानें तो दोनों ही गठबंधनों यानी एनडीए और महागठबंधन की पार्टियों में सीट शेयरिंग को लेकर नए समीकरण बनेंगे. दिल्ली फतह के बाद एनडीए में बीजेपी की बारगेनिंग पावर बढ़ेगी तो महागठबंधन में कांग्रेस और भाकपा (माले) मजबूती से बॉरगेन करेंगे.
बीजेपी प्रवक्ता असित नाथ तिवारी कहते हैं, “एनडीए ने 225 सीट जीतने का लक्ष्य रखा है और हम लोग अपनी जीत को सुनिश्चित करने के लिए चट्टानी एकता के साथ लड़ेंगे. इसलिए अभी कौन कितनी सीट लड़ेगा या बारगेनिंग पावर घटी या बढ़ी जैसा कोई सवाल पार्टी के सामने नहीं है.”
वहीं जेडीयू प्रवक्ता अंजुम आरा भी कहती हैं, “जिस निर्णय से एनडीए के पक्ष में निर्णय आएंगे वही फैसला लिया जाएगा.”
हालांकि सूत्रों की मानें तो जेडीयू 100, बीजेपी 100, राजद 150 तो कांग्रेस 70 सीट पर चुनाव लड़ने की तैयारी में हैं. केंद्रीय मंत्री जीतन राम मांझी अपनी पार्टी ‘हम’ के लिए 20 सीटों की डिमांड पहले ही कर चुके है. वहीं मुकेश सहनी की वीआईपी 40 सीटों पर दावेदारी कर रही है तो जनसुराज ने सभी 243 सीटों पर अपने उम्मीदवार उतारने की बात कही है.
क्या बढ़ेगी कांग्रेस की बारगेनिंग पावर?
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दिल्ली चुनाव के नतीज़ों के बाद सबसे ज्यादा पेंच कांग्रेस को मिलने वाली सीट को लेकर हो सकता है.
बीते विधानसभा चुनाव में कांग्रेस 70 सीट में से सिर्फ़ 19 सीट ही जीत पाई थी. चुनावी विश्लेषकों का ये कहना था कि कांग्रेस के कम स्ट्राइक रेट की वजह से गठबंधन को नुकसान पहुंचा.
हालांकि लोकसभा में कांग्रेस ने अपना प्रदर्शन सुधारते हुए 9 में से 3 सीट जीती. आरजेडी की चार और लेफ्ट दलों को दो सीटों पर जीत मिली.
सूत्रों के मुताबिक राजद में कांग्रेस को आगामी विधानसभा चुनावों में 40 सीट देने और भाकपा माले की सीटें बढ़ाने पर विचार किया जा रहा है. हालांकि कांग्रेस पिछले विधानसभा चुनाव की तरह ही 70 और अपनी मनचाही सीटों पर चुनाव लड़ना चाहती है.
कांग्रेस पार्टी प्रवक्ता ज्ञान रंजन बीबीसी से कहते है, “हम लोग 70 सीटों पर चुनाव लड़ेंगे. पार्टी विधानसभा सर्वे करा रही है और पार्टी अपनी मनचाही सीट चाहती है.”
पूर्व मंत्री और कांग्रेस नेता अवधेश कुमार सिंह कहते हैं, “हमारी पार्टी सेक्युलरिज़्म के नाम पर शहादत देती रही है. लेकिन अब राहुल गांधी के नेतृत्व में कड़े फैसले लिए जा रहे हैं. लेकिन मुझे नहीं लगता कि बिहार में दिल्ली जैसी स्थिति है.”
वरिष्ठ पत्रकार कन्हैया भेलारी मानते हैं कि बिहार कांग्रेस इस पोजीशन में नहीं है जहां उसकी बारगेनिंग का बहुत असर होगा.
वो कहते हैं, “दिल्ली चुनाव नतीजों के बाद कांग्रेस बारगेन करने की कोशिश करेगी लेकिन बहुत सफल नहीं हो पाएगी. पार्टी के पास उम्मीदवार ही नहीं है. स्टेट कमिटी तक तो पार्टी बना नहीं पाई है ऐसे में क्या उम्मीद की जाए.”
महागठबंधन से अलग स्टैंड लेते राहुल गांधी
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लेकिन लोकसभा चुनाव के दौरान बिहार में गिनी-चुनी रैलियां करने वाले राहुल गांधी इस साल दो बार पटना आ चुके हैं. यानी उनकी सक्रियता बिहार में बढ़ी है.
अपने इन दौरों में उन्होंने जहां एक तरफ़ महागठबंधन से अलग स्टैंड लिया. वहीं दूसरी तरफ़ दलित-मुस्लिम वोटर्स को साधने की कोशिश की.
राहुल गांधी पहली बार जनवरी में संविधान बचाओ सम्मेलन और दूसरी बार फरवरी में दलित नेता जगलाल चौधरी की जयंती में शिरकत करने पटना आए थे.
दोनों ही कार्यक्रमों में उन्होंने बिहार में हुई जातिगत सर्वे को ‘फर्ज़ी’ कहा. बिहार के नेता प्रतिपक्ष तेजस्वी यादव जातिगत सर्वे लेते रहते हैं.
यहां ये दिलचस्प है कि ये दोनों ही कार्यक्रम कांग्रेस के नहीं थे. जनवरी में राहुल पटना स्थित पार्टी दफ्तर सदाकत आश्रम गए भी तो उन्होंने पार्टी कार्यकर्ताओं को सिर्फ आठ मिनट ही संबोधित किया, जबकि संविधान बचाओ सम्मेलन में उन्होंने आधे घंटे से ज्यादा का भाषण दिया.
सदाकत आश्रम में राहुल गांधी से प्रदेश अध्यक्ष अखिलेश प्रसाद सिंह ने कहा था, “आप दक्षिण भारत और यूपी को समय देते हैं उसी तरह से बिहार को समय दीजिए. अगर आप बिहार को समय देंगे तो हम 1990 के पहले वाली कांग्रेस खड़ा करके दिखाएंगे.”
अखिलेश प्रसाद ने राहुल गांधी से ये अपील की, लेकिन बिहार में राहुल गांधी पार्टी के बजाय सामाजिक लीडर्स के ज्यादा करीब नज़र आ रहे हैं. हालात ये है कि राहुल गांधी के बिहार दौरे की ख़बर तक पार्टी को बाद में मिलती है.
सामाजिक कार्यकर्ता इबराना कहती है, “इन कार्यक्रमों में शामिल होकर वो पिछड़ों, अतिपिछड़ों, दलितों और मुसलमानों को लक्ष्य करके अपना जनाधार बढ़ाने की कोशिश कर रहे हैं. अगर आप देखिए तो मोटे तौर पर ये राजद का कोर वोट है. पार्टी में अली अनवर को ज्वाइन कराया गया जो पसमांदा मुसलमानों के नेता है.”
वहीं राजद प्रवक्ता चितरंजन गगन कहते हैं, “दिल्ली और बिहार में बहुत फर्क है. केजरीवाल और कांग्रेस के संबंध तल्ख है, लेकिन बिहार में राजद और कांग्रेस के साथ ऐसा नहीं है.”
हालांकि इससे पहले कांग्रेस साल 2010 में अकेले विधानसभा चुनाव लड़ चुकी है जिसमें पार्टी को महज 8.4 वोटों के साथ चार सीटों पर ही संतोष करना पड़ा था.
केजरीवाल बनाम प्रशांत किशोर
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बिहार में प्रशांत किशोर की पार्टी जनसुराज की तुलना आम आदमी पार्टी से की जाती है. वजह ये कि दोनों ही वैकल्पिक और साफ सुथरी राजनीति की बात करते हैं.
दिल्ली चुनावों के बाद प्रशांत किशोर के भविष्य और उनकी राजनीति को लेकर भी कयास लग रहे है.
जनसुराज के संस्थापकों में से एक आर के मिश्रा बीबीसी से कहते हैं, “केजरीवाल जी की कथनी और करनी में अंतर आना शुरू हो गया था लेकिन प्रशांत की कथनी और करनी में कोई अंतर नहीं. दूसरा ये कि केजरीवाल के साथ एंटी इनकमबेंसी काम कर रही थी जबकि हम तो बिहार की सत्ताधारी पार्टियों की 35 साल की एंटी इनकमबेंसी को अपने पक्ष में करना चाहते हैं. इसलिए हमारी स्थिति एकदम अलग है.”
वहीं राजनीतिक विश्लेषक हेमंत कुमार झा कहते हैं, “पीके केजरीवाल ही साबित होंगे. ये दोनों ही नई राजनीति की बात करते रहे हैं, लेकिन मुझे लगता है कि पीके ‘वोटकटवा’ से ज्यादा कुछ साबित नहीं होंगे. क्योंकि ये ‘ध्वस्त शिक्षा –ध्वस्त परीक्षा’ की बात करते हैं लेकिन किसी एक मुद्दे को एजेंडा बनाने में निरंतरता नहीं है.”
बिहार विधानसभा चुनावों से पहले एनडीए के घटक दल राज्य के ज़िलों में संयुक्त रूप से कार्यकर्ता सम्मेलन कर रहे हैं. वहीं महागठबंधन के घटक दल अपनी चुनावी तैयारी अलग-अलग कर रहे है.
बीबीसी के लिए कलेक्टिव न्यूज़रूम की ओर से प्रकाशित