इंडोनेशिया के राष्ट्रपति प्राबोवो सुबिअंतो दो दिवसीय दौरे पर भारत आ गए हैं. राष्ट्रपति प्राबोवो को भारत ने अपने 76वें गणतंत्र दिवस के मौक़े पर मुख्य अतिथि के रूप में आमंत्रित किया है.
प्रोबोवो सुबिअंतो पहली बार भारत के राजकीय दौरे पर आए हैं. प्रोबोवो इंडोनेशिया के चौथे राष्ट्रपति हैं, जो भारत के गणतंत्र दिवस पर मुख्य अतिथि के रूप में आए हैं.
भारत के पहले प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू ने पहले गणतंत्र दिवस पर यानी 26 जनवरी, 1950 को इंडोनेशिया के राष्ट्रपति सुकर्णो को मुख्य अतिथि के रूप में आमंत्रित किया था.
पिछले साल नवंबर में ब्राज़ील में आयोजित हुए जी-20 समिट में पीएम मोदी की मुलाक़ात इंडोनेशियाई राष्ट्रपति से हुई थी.
इंडोनेशिया के राष्ट्रपति ने भारत रवाना होने से पहले एक्स पर अपनी एक पोस्ट में लिखा था, ”मैं भारत के 76वें गणतंत्र दिवस के उत्सव में शामिल होने जा रहा हूँ. इस दौरान मेरी मुलाक़ात भारत के प्रधानमंत्री से होगी और दोनों देशों के बीच कई मुद्दों पर बात होगी.”
इंडोनेशियाई राष्ट्रपति ने लिखा है कि वह भारत का दौरा पूरा करने के बाद मलेशिया रवाना हो जाएंगे.
इससे पहले कहा जा रहा था कि प्राबोवो भारत का दौरा पूरा करने के बाद पाकिस्तान जाएंगे. पाकिस्तानी मीडिया में ख़बर आई थी कि प्राबोवो 26 जनवरी को ही शाम में इस्लामाबाद पहुँचेंगे और तीन दिन तक वहां रहेंगे.
पाकिस्तान के समा टीवी ने आठ जनवरी को प्रसारित अपनी ख़बर में कहा था, ”प्रधानमंत्री शहबाज़ शरीफ़ की दावत पर इंडोनेशिया के राष्ट्रपति प्राबोवो सुबिअंतो 26 जनवरी को इस्लामाबाद पहुँचेंगे. साल का आग़ाज़ बहुत ही हाई प्रोफ़ाइल दौरे से हो रहा है.”
“27 जनवरी को अहम सरकारी मुलाक़ातें होंगी. दोनों देश स्वतंत्र विदेश नीति को आगे बढ़ाने पर बात करेंगे. इंडोनेशियाई राष्ट्रपति की मुलाक़ात पाकिस्तान के राष्ट्रपति आसिफ़ अली ज़रदारी से भी होगी.”
पाकिस्तान में क्या कहा जा रहा था?
इसके अलावा पाकिस्तान की सरकारी न्यूज़ एजेंसी एसोसिएट प्रेस ऑफ पाकिस्तान (एपीपी) ने भी नौ जनवरी को एक ख़बर प्रकाशित की थी कि शहबाज़ शरीफ़ ने इंडोनेशिया से द्विपक्षीय संबंध गहरा करने के लिए एक कमिटी बनाई है और इस कमिटी ने इंडोनेशिया के राष्ट्रपति की यात्रा की तैयारियों को लेकर बैठक की है.
एपीपी ने लिखा था, ”इस कमिटी की बैठक इंडोनेशिया के राष्ट्रपति प्राबोवो सुबिअंतो के पहले पाकिस्तान दौरे को लेकर हुई है.”
इसके बाद 10 जनवरी को भारत के एक प्रमुख अंग्रेज़ी अख़बार टाइम्स ऑफ इंडिया में ख़बर छपी कि भारत के गणतंत्र दिवस में मुख्य अतिथि बनने के बाद प्राबोवो के पाकिस्तान जाने की योजना भारत को रास नहीं आ रही है.
हालांकि इस दौरे को लेकर पाकिस्तान की सरकार की तरफ़ से औपचारिक रूप से कुछ भी नहीं कहा गया था.
टीओआई (टाइम्स ऑफ़ इंडिया) ने अपनी रिपोर्ट में लिखा था, ”गणतंत्र दिवस पर इंडोनेशिया के राष्ट्रपति के मुख्य अतिथि बनने की औपचारिक घोषणा भारत नहीं कर रहा था जबकि इसकी घोषणा महीनों पहले ही कर दी जाती थी.”
“पाकिस्तानी मीडिया से रिपोर्ट आने लगी थी कि इंडोनेशिया के राष्ट्रपति भारत का दौरा पूरा करने के बाद 26 जनवरी को ही इस्लामाबाद आ जाएंगे. इसी वजह से भारत औपचारिक घोषणा नहीं कर रहा था.”
“हाल के सालों में भारत ने विदेशी नेताओं को इस बात के लिए प्रोत्साहित किया है कि भारत दौरे में पाकिस्तान जाने की योजना शामिल ना करें.”
टाइम्स ऑफ इंडिया ने अपनी रिपोर्ट में लिखा था, ”कहा जा रहा है कि भारत ने इंडोनेशिया के सामने इस मुद्दे को राजनयिक स्तर पर उठाया था. भारत को उम्मीद है कि प्राबोवो भारत के दौर से सीधे पाकिस्तान नहीं जाएंगे.”
“भारत का मानना था कि गणतंत्र दिवस की परेड में शामिल होने के ठीक बाद इस्लामाबाद जाना ठीक नहीं होगा. सुबिअंतो की मुलाक़ात पाकिस्तान के प्रधानमंत्री शहबाज़ शरीफ़ से दिसंबर में मिस्र में हुई थी. दोनों नेताओं ने पाकिस्तान और इंडोनेशिया के बीच आर्थिक संबंध मज़बूत करने पर ज़ोर दिया था.”
क्या कह रहे हैं एक्सपर्ट
2018 में इंडोनेशिया के तत्कालीन राष्ट्रपति जोको विडिडो भी आसियान देशों के उन नौ नेताओं में शामिल थे, जिन्हें गणतंत्र दिवस पर मुख्य अतिथि के रूप में भारत ने आमंत्रित किया था. जोको विडिडो भी भारत से सीधे पाकिस्तान गए थे.
ऐसे में इस बार प्राबोवो सुबिअंतो के भारत से सीधे पाकिस्तान जाने की योजना पर मोदी सरकार ने आपत्ति क्यों जताई?
भारत के पूर्व विदेश सचिव कंवल सिब्बल ने लिखा है, ”यह भारत के लिए बड़ा राजनयिक अपमान होता और जानबूझकर भारत की संवेदनशीलता की उपेक्षा होती. अगर यह दौरा होता तो इस्लामिक नेटवर्क के तहत होता. इसके अलावा इसका कोई सेंस नहीं था.”
“इंडोनेशिया के राष्ट्रपति को दोनों देशों के प्राचीन संबंधों के आधार पर आमंत्रित किया गया है. इसके अलावा भारत एक्ट ईस्ट पॉलिसी के साथ आसियान देशों से संबंध गहरा करने की नीति पर भी चल रहा है. अब इंडोनेशिया ब्रिक्स का सदस्य है. ज़ाहिर है कि इसमें पाकिस्तान कहीं नहीं आता है.”
कंवल सिब्बल ने लिखा है, ”इंडोनेशिया के राष्ट्रपति बाद में कभी भी पाकिस्तान जा सकते हैं. भारत को इससे कोई समस्या नहीं है. प्राबोवो भारत दौरे में पाकिस्तान को नाहक ही क्यों ला रहे थे?”
हॉन्ग कॉन्ग के प्रमुख मीडिया आउटलेट साउथ चाइना मॉर्निंग पोस्ट (एससीएमपी) ने अपनी रिपोर्ट में लिखा है कि प्राबोवो अब पाकिस्तान इस महीने के बाद जा सकते हैं.
एससीएमपी ने लिखा है, ”यह स्पष्ट नहीं है कि प्राबोवो इस दौरे में पाकिस्तान का प्लान छोड़ देंगे या किसी अन्य देश से होकर पाकिस्तान जाएंगे. प्राबोवो के सामने भारत और पाकिस्तान में बढ़ी प्रतिद्वंद्विता के बीच संतुलन साधने की चुनौती थी.”
भारत दौरा पूरा करने के बाद प्राबोवो मलेशिया जाएंगे. अभी तक स्पष्ट नहीं है कि मलेशिया के बाद प्राबोवो पाकिस्तान जाएंगे या नहीं.
इंडोनेशिया के एक्सपर्ट का क्या कहना है?
1947 में भारत के विभाजन के बाद से पाकिस्तान से चार युद्ध हो चुके हैं. कश्मीर को लेकर अब भी दोनों देशों के बीच विवाद ख़त्म नहीं हुआ है.
एससीएमपी से इंडोनेशिया के विदेश मंत्रालय के प्रवक्ता रॉय सुमिरत से पाकिस्तान दौरे को लेकर सवाल पूछा तो उन्होंने न तो इनकार किया और न ही स्वीकार. उन्होंने कहा कि सभी उच्चस्तरीय दौरे अभी फाइनल किए जा रहे हैं.
इस्लामिक यूनिवर्सिटी ऑफ इंडोनेशिया में अंतरराष्ट्रीय संबंध के लेक्चरर हदज़ा मिन फ़धली रोबी ने कहा, ”भारत और पाकिस्तान को लेकर प्राबोवो का असमंजस बताता है कि अच्छे पड़ोसी की विदेश नीति की भी एक सीमा है. प्राबोवो का मंत्र है कि 1000 दोस्त भी कम हैं और एक दुश्मन भी बहुत ज़्यादा है. लेकिन कई बार यह नीति हक़ीक़त की ज़मीन पर नाकाफ़ी साबित होती है.”
”प्राबोवो चाहते हैं कि वह एक स्वतंत्र नेता के रूप में दिखें. लेकिन प्राबोवो शायद दक्षिण एशिया की राजनीति को ठीक से समझ नहीं रहे हैं. अगर प्राबोवो अपने डिप्लोमेट्स से संपर्क करते तो उन्हें सलाह मिलती कि भारत और पाकिस्तान को एक तरह से हैंडल नहीं किया जा सकता है. उन्हें दोनों देश जाने की योजना एक साथ नहीं बनानी चाहिए थी.”
हदज़ा मिन फ़धली रोबी ने एससीएमपी से कहा, ”भारत को अभी लग रहा है कि उसके सभी पड़ोसी देश दूर हो गए हैं. बांग्लादेश प्रतिद्वंद्वी की तरह व्यवहार कर रहा है. नेपाल भी चीन के साथ सहयोग बढ़ा रहा है.”
“प्राबोवो को इन सारी बातों का ख़्याल रखना चाहिए था. इंडोनेशिया दक्षिण एशिया में अहम मौक़ों को गँवा नहीं सकता है. प्राबोवो अगर पाकिस्तान जाते तो भारत कई समझौतों को ठंडे बस्ते में डाल देता.”
इंडोनेशिया के अख़बार जर्काता पोस्ट ने लिखा है कि इंडोनेशिया भारत से चाहता है कि यहाँ के डॉक्टर आकर ट्रेनिंग दें क्योंकि इंडोनेशिया में डॉक्टरों की बहुत कमी है. इसके अलावा इंडोनेशिया भारत से रक्षा संबंध भी मज़बूत करना चाहता है. कहा जा रहा है कि इंडोनेशिया भारत से ब्रह्मोस मिसाइल ख़रीदने की योजना पर काम कर रहा है.
भारत और इंडोनेशिया की दोस्ती
प्राचीन समय से ही भारत और इंडोनेशिया के सांस्कृतिक संबंध रहे हैं. इसलिए नेहरू की दिलचस्पी इंडोनेशिया की स्वतंत्रता की लड़ाई में भी थी.
आज़ाद भारत के पहले प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरू उपनिवेशवाद के ख़िलाफ़ थे और उन्होंने बीजू पटनायक को इंडोनेशिया को डचों से मुक्त कराने में मदद करने की ज़िम्मेदारी दी थी.
नेहरू ने इंडोनेशियाई लड़ाकों को डचों से बचाने के लिए कहा था. नेहरू के कहने पर बीजू पटनायक पायलट के तौर पर 1948 में ओल्ड डकोटा एयरक्राफ़्ट लेकर सिंगापुर से होते हुए जकार्ता पहुंचे थे.
यहां वह इंडोनेशियाई स्वतंत्रता सेनानियों को बचाने पहुंचे थे. डच सेना ने पटनायक के इंडोनेशियाई हवाई क्षेत्र में प्रवेश करते ही उन्हें मार गिराने कोशिश की थी.
पटनायक को जकार्ता के पास आनन-फानन में उतरना पड़ा था. वहां उन्होंने जापानी सेना के बचे ईंधन का इस्तेमाल किया था.
इसके बाद उन्होंने कई विद्रोही इलाक़ों में दस्तक दी और वो अपने साथ प्रमुख विद्रोही सुल्तान शहरयार और सुकर्णो को लेकर दिल्ली आ गए थे और नेहरू के साथ गोपनीय बैठक कराई थी.
इसके बाद डॉ. सुकर्णो आज़ाद देश इंडोनेशिया के पहले राष्ट्रपति बने.
इस बहादुरी के काम के लिए पटनायक को मानद रूप से इंडोनेशिया की नागरिकता दी गई और उन्हें इंडोनेशिया के सर्वोच्च सम्मान ‘भूमि पुत्र’ से नवाज़ा गया था.
शायद ही यह पुरस्कार किसी विदेशी को दिया जाता है. 1996 में इंडोनेशिया ने 50वां स्वतंत्रता दिवस मनाया और बीजू पटनायक को सर्वोच्च राष्ट्रीय पुरस्कार ‘बिंताग जसा उताम’ से सम्मानित किया गया था.
जिस दिन सुकर्णो की बेटी पैदा हुई उस दिन तेज़ बारिश हो रही थी और बादल गरज रहे थे, यही वजह थी कि बीजू पटनायक ने नाम सुझाया–मेघावती.
पटनायक ने तिब्बत और भारत को हवाई संपर्क से जोड़ने की कोशिश की थी. ऐसा उन्होंने तिब्बत के 1951 में चीन के क़ब्ज़े से पहले ही किया था, लेकिन सरकार से पूरी मदद नहीं मिलने के कारण वो नाकाम रहे थे.
बीबीसी के लिए कलेक्टिव न्यूज़रूम की ओर से प्रकाशित.