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Interview: ‘पाकिस्तानी सेना बलूच आंदोलन को दबा सकती है, खत्म नहीं कर सकती’, खास बातचीत में बोले तिलक देवेशर

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Mar 29, 2025


पड़ोसी मुल्क पाकिस्तान के अन्य हिस्सों से अलग है बलूचिस्तान में पिछले कुछ दिनों में कई घटनाक्रम देखने को मिला। इस बीच भारत सरकार में कैबिनेट सचिवालय में पदस्थ रहे अधिकारी व राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहाकार परिषद (एनएसएबी) के सदस्य तिलक देवेशर ने पड़ोसी मुल्क के बारे में एक और भविष्यवाणी की। दैनिक जागरण से खास बातचीत में उन्होंने इससे जुड़े कई मुद्दों पर विस्तार से चर्चा की।

जेएनएन, नई दिल्ली। जीवन अभी भी अत्यधिक गरीबी और अभाव की चपेट में है। पहला चांद अभी तक दिखाई नहीं दे रहा है और बच्चों ने अभी तक फूल चुनना भी नहीं सीखा है। फूलों की सुगंध कम हो सकती है, लेकिन कम से कम पंखुड़ियां बनी रहनी चाहिए।

पाकिस्तान के अन्य हिस्सों से अलग है बलूचिस्तान, केवल भौगोलिक रूप से नहीं बल्कि उसके कष्ट और उपचार भी अलग हैं। कोई भी बलूचिस्तान के लोगों के दम घुटने के बारे में अवगत नहीं होना चाहता है…अविश्वास और घृणा, गरीबी व संघर्ष की बुरी मिट्टी में फैलते और बढ़ते हैं। लंबे समय से भारी बाधाओं के विरुद्ध संघर्ष कर रहे लोगों की खुशी और जीवन-यापन के लिए निवेश की आवश्यकता है।
बलूचिस्तान सरकार के वित्त विभाग के द्वारा तैयार बजट 2015-16 के सारांश के इस हिस्से का उल्लेख करते हुए लगभग छह साल पहले ही भारत सरकार के एक पूर्व अधिकारी ने अपनी पुस्तकों के जरिये आने वाले समय में पाकिस्तान में बनने वाले विस्फोटक हालात के संकेत दिए थे। उसके बाद उन्होंने तीन पुस्तकें और लिखीं, जिसमें साल-दर-साल गहराते मुद्दों को और गहराई के साथ सामने लाते रहे। हाल ही में जब बलूचिस्तान में ट्रेन हाईजैक कर लिया गया, तो उनकी बात सच साबित होती नजर आ रही है।

हालांकि जब यह घटना घटी तो वह भी थोड़ा चौंके, क्योंकि 1948 से लेकर अब तक हुए पांच बड़े योजनाबद्ध आंदोलनों और हमलों से यह ज्यादा सुगठित था। यह हैं भारत सरकार में कैबिनेट सचिवालय में पदस्थ रहे अधिकारी व राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहाकार परिषद (एनएसएबी) के सदस्य तिलक देवेशर। पुरानी और नई कड़ियों को जोड़ते हुए उन्होंने पड़ोसी मुल्क के बारे में एक और भविष्यवाणी की कि ईद के बाद पाकिस्तान में ‘क्रैकडाउन’ होगा…यानी और तोड़फोड़ होगी।
पाकिस्तानी सेना बलूच आंदोलन को दबा सकती है, खत्म नहीं कर सकती। 77 साल से आजादी की मांग को लेकर जंग लड़ रहा बलूचिस्तान क्या पाकिस्तान से अलग होगा? अपने लड़ाकों के शव की भी मूंछे नीचे न होने देने वाले बलूचों के संघर्ष में एकाएक जो तीव्रता आई है, वह पाकिस्तान के लिए क्या चुनौती खड़ी करेगी और भारत पर इसका क्या असर होगा? दैनिक जागरण की समाचार संपादक रुमनी घोष ने उनसे इन सभी मुद्दों पर विस्तार से चर्चा की। प्रस्तुत हैं बातचीत के प्रमुख अंशः

क्या आपको लगा था कि आपकी लिखी पुस्तकों को लोग फिर से पलट-पलट कर इस कदर पढ़ेंगे?(हंसते हुए)…क्या आप इसे मेरी दूरदर्शिता नहीं कहेंगी…। वैसे, बगैर किसी पूर्वाग्रह के कहूं तो वहां के अधिकारियों ने मानवीय मुद्दों को कभी गहराई के साथ समझा ही नहीं। सबको लगता है कि मैंने पाकिस्तान की सामरिक क्षमताओं के बारे में लिखा होगा, लेकिन मैंने अपनी पहली पुस्तक में एक शब्द का उल्लेख किया था…WEEP (वीप), यानी वाटर, एजुकेशन, इकोनामी और पापुलेशन।
इस पुस्तक के लिए रिसर्च करते वक्त ही बलूचिस्तान और पश्तून पर लिखी पुस्तक की भूमिका तैयार हो गई थी, क्योंकि पाकिस्तान का सबसे बड़ा सूबा और 44 प्रतिशत हिस्सा होने के बावजूद वहां के हुक्मरानों ने इनकी उपेक्षा की। 1952 में बलूचिस्तान के सुई में मिली गैस से पूरे पंजाब में (पाकिस्तान के हिस्से वाला पंजाब) गैस पाइप लाइन बिछा दी गई, लेकिन बलूचिस्तान में लोगों को 1984 तक गैस नसीब नहीं हुई थी। अब तो सुई में गैस खत्म होने की कगार पर पहुंच गया है। इन अवहेलनाओं की वजह से ही बलूच और पश्तून जैसे आंदोलन अब पाकिस्तान के लिए नासूर बनते जा रहे हैं।
यदि बलूचिस्तान का विकास ही समस्या का समाधान था, तो पाकिस्तान ने इतने सालों में ऐसा क्यों नहीं किया?इसके लिए एक शेर बहुत मौजूं है…”टेढ़ मेरी नींव मे ही तोदीवारों को क्या इल्जाम दें…”पाकिस्तान की हालत कुछ इस तरह की है। पाकिस्तान तो बना इस्लाम के नाम पर, लेकिन वह यह तय नहीं कर पाए कि असली मुसलमान कौन हैं। 1953 में लाहौर में अहमदी के दंगे हुए थे। इसमें मुस्लिम समुदायों के बीच ही झड़प हो गई थी। जस्टिस मुनीर कमीशन ने इसकी रिपोर्ट तैयार की थी।
उन्होंने रिपोर्ट में लिखा है कि मैंने 14-15 उलेमाओं से बात की और दुर्भाग्य से किसी के पास इस बात का जवाब नहीं था कि असली मुसलमान की परिभाषा क्या है। यदि एक उलेमा की बात मानी जाए तो बाकी काफिर साबित हो जाते हैं। आज भी पाकिस्तान खास तौर पर पंजाब वाले हिस्से में अलग-अलग शहरों के भीतर अलग-अलग फिरकों (बरेलवी, देवबंद जैसे पंथ) की अलग-अलग मस्जिदें हैं।वे एक दूसरे को काफिर बताते रहते हैं। ऐसे में बलूच और पश्तून को अपना हिस्सा मानने की बात तो बहुत दूर है। यही वजह रही कि पाकिस्तान के हुक्मरानों ने बलूचिस्तान के संसाधनों का भरपूर उपयोग किया, लेकिन वहां के लोगों को सुविधाएं नहीं दी।
अब सुविधाएं दे देंगे तो क्या हालात नहीं सुधरेंगे?नहीं। अब संभव नहीं है। पाकिस्तान से बलूचिस्तान आजाद हो पाए या नहीं, लेकिन पाकिस्तान का नेतृत्व स्वीकार नहीं करेगा। पाकिस्तान सेना ने बलूचिस्तान से लगातार धोखा किया है। बलूचों का मानना है कि 1948 में खान आफ कलात मीर अहमद यार खान से जबर्दस्ती हस्ताक्षर करवाकर पाकिस्तान ने बलूच को अपने में मिला लिया। इस विलय को बलूचियों ने कभी नहीं माना।
खान आफ कलात के भाई अब्दुल करीम खान ने बगावत शुरू की, जो आज भी जारी है। वर्ष 1948 में पाकिस्तान ने कुरान पर कसम खाकर अब्दुल करीम खान को सुरक्षा देने का आश्वासन दिया था और समर्पण करते ही उनको गिरफ्तार कर लिया। वर्ष 1958 में 80 साल के बुजुर्ग बलूच नेता नवाब नौरोज खान सबके साथ ऐसा ही धोखा हुआ। इसलिए अब बलूचों को पाकिस्तानी सेना पर यकीन नहीं है।अब तो मध्यमवर्गीय परिवार के पढ़े-लिखे युवा बलूच आंदोलन से जुड़ गए हैं। वहां हजारों महिलाएं ‘हाफ वीडो’ हैं, यानी उन्हें पता ही नहीं है कि उनके पति जीवित हैं या नहीं। वह सालों पहले जबरन उठा लिए गए और उनकी अभी तक खबर नहीं है। कई लोगों के क्षत-विक्षत शव मिले, जो गवाह हैं कि उन्हें भीषण यातनाएं दी गईं। बलूच बहुत रुढ़िवादी हैं।
उनके परिवार की महिलाएं आमतौर पर बाहर नहीं आती हैं, लेकिन बलूचिस्तान की यह हालत हो गई है कि डा. मेहरान बलूच के नेतृत्व महिलाओं ने सड़कों पर उतरकर विरोध प्रदर्शन किया। मेहरान बलूच के पिता और भाई को भी इसी तरह से गायब कर दिया गया था। पाकिस्तानी सेना विरोध को दबा सकती है, लेकिन खत्म नहीं कर सकती है।तो क्या पाकिस्तान से बलूचिस्तान अलग हो जाएगा?– एकाएक या तत्काल तो यह संभव नहीं है, लेकिन आने वाले समय में इससे इन्कार नहीं किया जा सकता है। ईद के बाद पाकिस्तान में बड़ा क्रैकडाउन, यानी तोड़फोड़ होगी। पाकिस्तानी सेना बलूच में चल रहे आंदोलन को दबाने की पूरी कोशिश करेगी।उनके जनरल के बयान से यह साफ है कि ईद के बाद पाकिस्तान में एक बड़ा क्रैकडाउन होगा। इतिहास देखें तो बलूचिस्तान 1948 से अलग होने की मांग कर रहा है लेकिन पाकिस्तान के हुक्मरानों ने कभी सुध नहीं ली। उनकी बात सुनने की कोशिश नहीं की और अब भी नहीं करेंगे। ऐसे में खींचतान बढ़ेगी। ट्रेन हाईजैक पाकिस्तानी सेना के लिए बड़ा झटका है।ऐसी ही स्थिति रही तो पाकिस्तान के भीतर तमाम अव्यवस्थाओं की वजह से आने वाले समय में देश के अन्य सेक्टरों की तरह सेना भी कमजोर होगी, इधर, बलूच विद्रोही हों या फिर पश्तून, उनके हमलों के पैटर्न में आए बदलाव से आकलन किया जा सकता है कि वह ताकतवर हो रहे हैं। पढ़ी-लिखी नई पीढ़ी बलूचिस्तान की आजादी की लड़ाई से जुड़ते जा रहे हैं। उनके लिए अब जीने-मरने का सवाल है। पाकिस्तान के क्रांतिकारी कवि हबीब जालिब की यह पंक्तियां वहां की स्थितियां बयां करती है-“मुझे जंग ए आजादी का मजा मालूम है,बलूचों पर जुल्मों की इंतहा मालूम है,मुझे जिंदगीभर पाकिस्तान में रहने की दुआ न दो,मुझे पाकिस्तान में साठ सालों में जीने की सजा मालूम है।”
क्या बलूचिस्तान अलग होकर भारत में शामिल होगा? सामरिक और भौगोलिक दृष्टिकोण से क्या यह संभव है? और खासतौर पर जब पीओके को वापस लेने की बात कही जा रही है तो बलूचिस्तान भी शामिल हो सकता है?बलूचिस्तान और पीओके दोनों की स्थिति अलग-अलग है। बलूचिस्तान आजादी के पहले व बाद में कभी भी भारत का हिस्सा नहीं रहा है। भौगोलिक दृष्टि से भी देखें तो भारत और बलूचिस्तान के बीच सिंध है, जो पाकिस्तान का हिस्सा है। ऐसे में इसका औचित्य नहीं रहेगा।फिर बलूचिस्तान में बलूच अपनी आजादी की मांग कर रहे हैं और पशतून्स की अपनी अलग लड़ाई है। ऐसे में भारत में शामिल होने की संभावना नहीं लगती है। जहां तक पीओके की बात है तो वह हमारा हिस्सा था, जिस पर पाकिस्तान ने कब्जा किया है।भारत ने बांग्लादेश को भी तो मदद की थी? तो क्या बलूचिस्तान की मदद नहीं कर सकता है?1971 में बांग्लादेश के एक करोड़ शरणार्थी भारत में आ गए थे, इसलिए भारत को इस घटनाक्रम में शामिल होना पड़ा। इस युद्ध में बांग्लादेश की मदद के लिए शामिल हो गया।उन्होंने भारत सरकार से मदद मांगी थी। अंतरराष्ट्रीय मानदंडों का पालन करते हुए भारत ने उस युद्ध में बांग्लादेश को आजादी दिलाने में मदद की थी। बलूचिस्तान से पलायन कर कोई भारत नहीं आएगा, इसलिए उस तरह की स्थिति नहीं है। हां, यदि पड़ोस में कहीं किसी समुदाय के साथ अमानवीय घटना हो रही है, तो सही मंच पर उन मुद्दों को उठाना चाहिए। यह हमारा कर्तव्य है।जाफर एक्सप्रेस ट्रेन हाइजैक की घटना के बाद एक बार फिर यह बात निकली कि 1948 में बलूचिस्तान ने भारत में शामिल होने की इच्छा जताई थी, लेकिन सचिव वीपी मेनन ने रेडियो पर कहा दिया था कि भारत ऐसा नहीं चाहता है। क्या है बलूचिस्तान के पाकिस्तान में शामिल होने की कहानी ?बलूचिस्तान शुरू से ही आजाद रहा है, यानी जब अविभाजित हिंदुस्तान पर ब्रिटिश ने कब्जा कर लिया था, उस वक्त ब्रिटिश और बलूचिस्तान के बीच ट्रीटी (अनुबंध) था। जब देश आजाद हुआ तो ब्रिटिश सरकार बलूचिस्तान से समझौता बरकरार रखना चाहती थी। इसकी अहम भौगोलिक स्थिति का लाभ उठाते हुए ब्रिटिश सेना सोवियत रूस पर यहां से नजर रखना चाहती थी, लेकिन जब पाकिस्तान पूरी तरह से ब्रिटेन की मदद के लिए तैयार हो गया तो उन्होंने बलूचिस्तान को अलग देश बनाने से इनकार कर दिया और इसे पाकिस्तान में शामिल करने का प्रस्ताव दे दिया। बलूचिस्तान के लोग कभी भी पाकिस्तान में शामिल नहीं होना चाहते थे।इस वजह से उन्होंने भारत की ओर अनुबंध का हाथ बढ़ाया और प्रस्ताव रखा कि वह दिल्ली में ट्रेडिंग आफिस खोलना चाहते हैं। इस तरह से उन्हें भारत का समर्थन मिल जाएगा। उसी दौरान आकाशवाणी के रात नौ बजे के समाचार में सचिव वीपी मेनन के हवाले से यह सूचना जारी की थी कि भारत, बलूचिस्तान को समर्थन नहीं देना चाहता है।खान आफ कलात आकाशवाणी के रात नौ बजे का समाचार जरूर सुनते थे। उस दिन यह सुनकर वह नाराज हो गए और उन्होंने पाकिस्तान से बातचीत का प्रस्ताव रखा। बलूचों का आरोप है बातचीत के बहाने 1948 में पाकिस्तान ने धोखे से बलूचिस्तान को मिला लिया।आरोप लगा रहा है कि बलूचिस्तान में हो रही घटनाओं के पीछे भारत का हाथ है?बलूचों को पाकिस्तान से लड़ने के लिए भारत या किसी भी देश की जरूरत नहीं है। यदि पाकिस्तान भारत को क्रेडिट देना चाहता है तो आखिर हमें बुरा क्यों लगेगा…? वैसे यदि तथ्यों पर जाएं तो बलूच पैदाइशी लड़ाके हैं। 325 ईसा पूर्व जब सिकंदर (योद्धा अलेकजेंडर द ग्रेट) लौट रहे थे तो बीहड़ों में छिपे बलूचों ने उनका कड़ा मुकाबला किया।बलूचिस्तान में तो बीते 77 साल में अब तक पांच बड़े आंदोलन हुए। 1948, 1958, 1962, 1973-77 और 2004 से 2025 तक, जो अब तक जारी है। एक और घटना है, जिसकी काफी चर्चा होती है। अस्सी साल के बलूच नेता नवाब नैरोज जहरी ने लंबे समय तक पाकिस्तानी सेना को छकाया था।जब उन्हें सेना ने घेर लिया और उनके सामने उनके बेटों और लड़ाकों का शव रखा। उसमें से एक की मूंछे हल्की सी नीचे की ओर झुक गई थी। वह शव के पास गए और उसकी मूंछे ऊपर की ओर कर दी। यह संदेश था कि दुश्मनों के सामने किसी बलूच की मुंछें नीचे नहीं होगी।तो फिर कौन मदद कर रहा है? कहां से हथियार आ रहे हैं?बलूचों के साथ ओमान-मस्कट जैसे कुछ देशों की ट्रीट्री है। इसके तहत इन्हें वहां की आर्मी या पुलिस में नौकरी मिलती है। वहां बसे लोग आंदोलनों को फंडिंग कर रहे हैं। जैसे अफगानिस्तान में तालीबानी सरकार आने के बाद तालीबानियों ने अमेरिका द्वारा छोड़े गए हथियारों को पश्तूनों को उपलब्ध करवाया गया।
अगला प्रोजेक्ट क्या है?इसी विषय पर कुछ और पुस्तकें लिखने की तैयारी है।

‘पाकिस्तान के नेता बिस्तर के पास रखें पुस्तक’

वायु सेना अधिकारी रहे पिता एयर वाइस मार्शल सीजी देवेशर से द्वितीय विश्व युद्ध के दौरान एक साथ ब्रिटिश सरकार के लिए युद्ध लड़ने और फिर देश विभाजन के बाद उन्हीं अधिकारियों के खिलाफ वर्ष 1965 में जंग करने की कहानी सुनते हुए बड़े हुए तिलक देवेशर के बाल मन पर पाकिस्तान व उनके हुक्मरानों व अफसरों को जानने की इच्छा पनपती रही। अपने लंबे करियर में उन्होंने इसे पाला-पोसा और सेवानिवृत्त के बाद चार पुस्तकें ‘पाकिस्तान: कोर्टिंग द एबिस’ (2016), ‘पाकिस्तान: एट द हेल्म’ (2018), ‘पाकिस्तान: द बलूचिस्तान कानड्रम’ (2019) और ‘द पश्तून्स: ए कान्टेस्टेड हिस्ट्री’ (2022) समाज को सौंप दी।पाकिस्तान के ख्यात समाचार-पत्र डान में स्तंभकार व लेखक मेहर एफ. हुसैन ने टिप्पणी की थी यह एक ऐसी पुस्तक है, जिसे पाकिस्तान के भविष्य का कोई भी नेता केवल इसलिए अपने बिस्तर के पास रखना चाहेगा, क्योंकि यह पहले हो चुकी सभी चीजों का योग है। इन पुस्तकों के जरिये उन्होंने ‘हाफ विडो’, ‘वीप’ जैसे शब्दों से परिचय कराया।

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