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अटलांटिक महासागर और प्रशांत महासागर को जोड़ने वाली पनामा नहर विश्व में व्यापार का एक महत्वपूर्ण जलमार्ग है.
51 मील लंबी पनामा नहर का निर्माण सौ साल से भी अधिक समय पहले अमेरिकी फ़ंड से किया गया था.
अब इसकी मिल्कियत और नियंत्रण पनामा सरकार के हाथ में है. अमेरिका के राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप ने कहा कि इस व्यवस्था को बदलना चाहिए.
उनका कहना है कि पनामा नहर को चीन नियंत्रित कर रहा है और अमेरिका ने यह नहर पनामा सरकार को दी थी ना कि चीन को.
अमेरिका का कहना है कि वह इस नहर को अपने हाथ में ले लेगा क्योंकि इससे उसकी सुरक्षा को ख़तरा पैदा हो सकता है.
साथ ही उन्होंने यह भी कहा कि पनामा सरकार इस नहर के इस्तेमाल के लिए अमेरिकी कंपनियों से काफ़ी अधिक शुल्क वसूल कर रही है.
ट्रंप ने पनामा नहर को वापिस लेने के लिए बल प्रयोग या आर्थिक दबाव का विकल्प भी खुला रखा है.
पनामा में ट्रंप के इस बयान से लोग भड़क गए हैं और कई अन्य देश भी चौंक गए हैं. पनामा सरकार ने कहा है कि नहर के कब्जे को लेकर कोई समझौता नहीं हो सकता.
तो इस सप्ताह दुनिया जहान में हम यही जानने की कोशिश करेंगे कि पनामा, ट्रंप को कैसे संतुष्ट कर सकता है?
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काउंसिल ऑन फॉरेन अफेयर्स में लातिन अमेरिकी अध्ययन के शोधकर्ता विल फ़्रीमन बताते हैं कि हर साल पनामा नहर से गुज़रने वाले 75 प्रतिशत जहाज़ अमेरिका के होते हैं. ये जहाज़, अमेरिका से या तो आ रहे होते हैं, या फिर वहां जा रहे होते हैं.
इस कारण पनामा नहर अमेरिकी अर्थव्यवस्था के लिए अत्यंत महत्वपूर्ण है.
विल फ़्रीमन का कहना है कि हर साल विश्व के कुल व्यापार का लगभग चार से आठ प्रतिशत माल पनामा नहर से गुज़रता है.
वो कहते हैं कि इस नहर के जरिए जहाज़ खाने पीने का सामान, इलेक्ट्रॉनिक सामान, खनिज, रसायन, तेल और गैस लाते और ले जाते हैं.
यानी यहां हर तरह के माल की आवाजाही होती है. ज्यादातर सामान अमेरिका से एशिया भेजा जाता है.
अमेरिकी नौसेना के लिए भी पनामा नहर महत्वपूर्ण है. साल 1914 में निर्माण के बाद से पनामा नहर से जहाज़ों की आवाजाही लगभग जारी रही है.
हालांकि, 1989 में जब अमेरिकी सेना पनामा के नेता जनरल नॉरिएगा को हटाने के लिए देश में घुसी थी, तब यह नहर एक दिन के लिए बंद हो गई थी.
अब राष्ट्रपति ट्रंप कह रहे हैं कि अमेरिकी उद्योगों को ठगा जा रहा है और अधिक शुल्क लिया जा रहा है.
विल फ़्रीमन का कहना है कि पिछले कुछ सालों में नहर के इस्तेमाल के लिए शुल्क दर में वृद्धि हुई है, लेकिन इसका एक कारण जलवायु परिवर्तन से पनामा में पड़ा सूखा है.
उनका कहना है कि पनामा नहर को पानी की सप्लाई करने वाले जलाशय की देख-रेख का खर्च बढ़ गया है. मगर यह शुल्क वृद्धि केवल अमेरिका के लिए नहीं बल्कि सभी देशों के जहाज़ों के लिए हुई है.
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अमेरिकी राष्ट्रपति केवल पनामा नहर के इस्तेमाल के लिए लागू शुल्क दर में वृद्धि से ही नाराज़ नहीं हैं बल्कि वो कहते हैं कि पनामा नहर को चीन नियंत्रित कर रहा है.
विल फ़्रीमन ने कहा, “पनामा नहर के दो सिरों पर स्थित दो बंदरगाहों को हांगकांग स्थित एक कंपनी सीके हचीसन ने किराये पर ले रखा है और इस कंपनी की पनामा स्थित कंपनी, पनामा पोर्ट्स इन बंदरगाहों की देखरेख करती है. मगर ऐसा नहीं है कि यह कंपनी नहर को चला रही है.”
राष्ट्रपति ट्रंप की नाराज़गी की वजह यह बंदरगाह ही नहीं है. उनके पहले कार्यकाल के दौरान पनामा चीन की एक कंपनी के साथ मिलकर पनामा नहर पर एक विशाल पुल बनाने की सोच रहा था, लेकिन ट्रंप सरकार के अधिकारियों ने पनामा सरकार को इस योजना पर काम करने से रोक दिया था.
इस प्रकार की घटनाओं की ओर इशारा करते हुए ट्रंप प्रशासन कह रहा है कि पनामा सरकार तटस्थता बनाए रखने संबंधी 1999 मे हुई उस संधि का उल्लंघन कर रही है जिसके तहत अमेरिका ने पनामा नहर का पूरा नियंत्रण पनामा सरकार को सौंप दिया था.
इस संधि के तहत अमेरिका के पास नहर की सुरक्षा और उसे खुला रखने का अधिकार है. इसी आधार पर राष्ट्रपति ट्रंप ने इस मामले में बल प्रयोग का विकल्प खुला रखा है.
विल फ़्रीमन कहते हैं कि ऐसा नहीं लगता कि राष्ट्रपति ट्रंप बल प्रयोग करेंगे क्योंकि वो अमेरिका से अवैध प्रवासियों को वापिस उनके देश भेजने के प्रयासों में लातिन अमेरिकी देशों का समर्थन चाहते हैं इसलिए वो उन्हें नाराज़ करने का जोखिम नहीं उठा सकते.
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राष्ट्रपति ट्रंप का यह भी मानना है कि पनामा नहर का निर्माण अमेरिकी सहायता से हुआ था. इस कारण उसे पनामा को सौंपा नहीं जाना चाहिए था.
तो क्या इस नहर की मिल्कियत पर अमेरिका का कोई विशेष अधिकार हो सकता है?
‘दी कनाल ऑफ़ पनामा एंड ग्लोबलाइज़ेशन’ पुस्तक के लेखक एंड्रू थॉमस बताते हैं कि 18वीं सदी में स्कॉटलैंड ने पनामा नहर बनाने की योजना बनाई थी और इस प्रयास में वह दिवालिया होने के कगार पर आ गया था.
उनका कहना है, “19वीं सदी में स्वेज नहर का डिज़ाइन बनाने वाले फ़्रांसीसी इंजीनियर ने भी पनामा नहर बनाने की कोशिश की, लेकिन वो सफल नहीं हो पाए. बाद में 20वीं सदी की शुरुआत में अमेरिका का प्रभाव अन्य क्षेत्रों में बढ़ाने की आकांक्षा के कारण तत्कालीन राष्ट्रपति थियोडोर रूजवेल्ट ने पनामा नहर बनाने का प्रण लिया.”
एंड्रू थॉमस कहते हैं उसके लिए वो बल प्रयोग करने को तैयार थे.
उन्होंने कहा, “इस मकसद को हासिल करने के लिए सबसे पहले अमेरिका को नहर की ज़मीन पर कब्ज़ा करना ज़रूरी था. तब पनामा ग्रैंड कोलंबिया देश का हिस्सा था जो उस समय दक्षिण अमेरिका का शक्तिशाली देश था. अमेरिका ने अपनी नौसेना के बेड़े को कोलंबिया के तट के नज़दीक खड़ा कर उसे धमकी दी कि अगर उसने पनामा को अमेरिका को नहीं बेचा तो ग्रैंड कोलंबिया को नष्ट कर दिया जाएगा.”
कोलंबिया जो उस समय ग्रैंड कोलंबिया कहलाता था. उसे अमेरिकी दबाव के सामने झुकना पड़ा और ज़मीन अमेरिका को सौंप दी गई.
दस साल बाद कई चुनौतियों के बावजूद नहर का निर्माण पूरा हुआ. इसी के साथ अंतरराष्ट्रीय व्यापार का एक नया युग भी शुरू हुआ.
थॉमस का कहना है कि दूसरे विश्वयुद्ध से पहले अमेरिका में हाइवे और रेल मार्गो का जाल फैलने लगा था, जिनके निर्माण के लिए माल की आवाजाही पनामा नहर के कारण आसान और सस्ती हो गई, लेकिन दूसरे महायुद्ध के बाद पनामा पर कब्ज़ा बनाए रखना अमेरिका के लिए शर्मिंदगी का सबब बनने लगा क्योंकि उस पर उपनिवेशवादी होने के आरोप लगने लगे.
वे कहते हैं कि साल 1964 में इस कारण से दंगे भड़क गए. ऐसा इसलिए हुआ क्योंकि स्थानीय लोग नहर से होने वाले फायदे में हिस्सेदारी चाहते थे.
उन्होंने बताया कि मैं पनामा का निवासी हूं और मेरी पत्नी पनामा से हैं. पनामा की जनता बड़ी राष्ट्रवादी है और उनके लिए पनामा नहर क्षेत्र बड़ा संवेदनशील मुद्दा है. पनामा नहर क्षेत्र के दोनो तरफ़ बाढ़ लगी है और स्थानीय लोग वहां नहीं जा सकते. पनामा के स्कूलों में पढ़ाया जाता था कि पनामा नहर अमेरिका का 51वां राज्य है.
ट्रूमैन और उनके बाद आने वाले अमेरिकी राष्ट्रपतियों को लगने लगा था कि उन्हें कुछ रियायत देनी होगी. बाद में जिमी कार्टर ने नहर को पनामा को सौंपने के लिए एक संधि पर हस्ताक्षर किए जिसके तहत पनामा नहर का नियंत्रण बीस सालों में पनामा को सौंपा जाना था और उस प्रक्रिया की शुरुआत सत्तर के दशक में हो गई थी.
उनका कहना है कि इस सदी की शुरुआत में नहर का नियंत्रण पनामा के हाथों में आ गया. इसी दौरान चीन भी एक बड़ी ताकत के रूप में उभर रहा था और पनामा में निवेश कर रहा था.
एंड्रू थॉमस का कहना है कि कई लोग नहीं जानते कि पनामा में चीनी मूल की बड़ी आबादी है जिसके चीन के साथ सांस्कृतिक संबंध हैं. हालांकि चीन के लिए पनामा का सामरिक महत्व भी है.
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अमेरिका के बाद, पनामा नहर का दूसरा सबसे अधिक इस्तेमाल करने वाला देश चीन है.
चैटम हाउस में चीन संबंधी मामलों की शोधकर्ता डॉक्टर यू जिये के अनुसार चीन के लिए अमेरिका और यूरोप के साथ व्यापार करना पहले की तरह आसान नहीं रहा है. इस कारण वह लातिन अमेरिकी देशों में नए बाज़ार के विकल्प खोज रहा है.
वे कहती हैं, “लातिन अमेरिका, अमेरिका की बगल में है. मगर 2012 से अब तक चीन के राष्ट्रपति शी जिनपिंग ने लातिन अमेरिका के छह दौरे कर 11 देशों की यात्रा की है.”
“इस दौरान तीन अमेरिकी राष्ट्रपतियों के लातिन अमेरिकी दौरों के मुकाबले यह संख्या अधिक है. इससे पता चलता है कि शी जिनपिंग लातिन अमेरिका को कितना महत्व दे रहे हैं.”
चीन अपनी बेल्ट एंड रोड इनिशिएटिव (बीआरआई) के तहत किसी देश में निवेश करते समय यह ज़रूर देखता है कि उसकी ताइवान को लेकर क्या नीति है.
ताइवान एक स्वतंत्र देश की तरह काम करता है, लेकिन चीन उसे अपना राज्य मानता है. चीन की शह पर पनामा ने ताइवान के साथ कूटनीतिक संबंध तोड़ लिए हैं. मगर अमेरिका दक्षिण और मध्य अमेरिका में चीन के बढ़ते प्रभाव से चिंतित है.
डॉक्टर यू जिये का मानना है कि अमेरिका लातिन अमेरिकी देशों की चीन के साथ नज़दीकियों को पसंद नहीं करता.
चीन आर्थिक हितों के साथ-साथ अपने सामरिक हित मज़बूत करने पर भी ध्यान केंद्रित कर रहा है.
विश्व व्यापार संगठन का हिस्सा बनने के बाद से चीन अपने आपको दक्षिणी गोलार्ध की सबसे बड़ी ताकत के रूप में पेश करने और अपना प्रभाव बढ़ाने की कोशिश कर रहा है.
डॉक्टर यू जिये के अनुसार चीन केवल लातिन अमेरिकी देशों में ही नहीं बल्कि दक्षिणी गोलार्ध के कई अन्य देशों में भी अपना प्रभाव बढ़ाना चाहता है. वो हर संभव तरीके से लातिन अमेरिकी देशों पर प्रभाव डालना चाहता है.
अब देखना यह है कि पनामा अमेरिका और चीन के बीच चल रही रस्साकशी से अपने आपको कैसे बाहर निकाल सकता है.
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न्यूयॉर्क स्थित थिंकटैंक, कमिटी फॉर इकोनॉमिक डेवेलपमेंट के अध्यक्ष डेविड यंग याद दिलाते हैं कि पनामा ने साफ कह दिया है कि नहर को अमेरिका या किसी अन्य देश को सौंपने का सवाल ही नहीं उठता और इस पर कोई समझौता नहीं हो सकता.
वे कहते हैं, “अमेरिका के पास नहर की सुरक्षा करने का पूरा अधिकार है, लेकिन नहर को चलाने और नियंत्रित करने का पूरा अधिकार पनामा के पास है. वहीं नहर को तटस्थ तरीके से चलाना भी अत्यंत महत्वपूर्ण है.”
उनका कहना है, “सभी को नहर के इस्तेमाल का एक समान शुल्क देना चाहिए. मगर अमेरिका का संधि को रद्द कर देना अत्यंत चिंताजनक बात हो सकती है. हालांकि, इसकी संभावना बहुत कम है.”
लेकिन क्या अमेरिका का नहर पर कब्जा करने के अलावा राष्ट्रपति ट्रंप की शुल्क संबंधी नाराज़गी का कोई दूसरा समाधान हो सकता है?
इसके जवाब में डेविड यंग ने कहा कि ट्रंप ने स्पष्ट कर दिया है कि नहर के इस्तेमाल का शुल्क बहुत अधिक है.
वे कहते हैं, “मगर सभी देश एक समान शुल्क चुका रहे हैं. इस मामले में यह हो सकता है कि अमेरिकी नौसेना के जहाज़ों को शुल्क दर में रियायत दी जाए, लेकिन फिर सभी के लिए शुल्क घटाना पड़ेगा.”
ट्रंप यह हज़म नहीं कर पाएंगे क्योंकि वो हर मामले को हार या जीत की तरह देखते हैं.
दूसरा समाधान यह हो सकता है कि पनामा ने हांगकांग की कंपनी को नहर पर बने जिन बंदरगाहों का ठेका दिया है उसकी अवधि घटा दी जाए.
हालांकि, डेविड यंग मानते हैं कि ट्रंप के लिए बड़ा मुद्दा वहां चीन की मौजूदगी से अमेरिका की सुरक्षा को ख़तरा नहीं बल्कि शुल्क दर है.
वहीं, नशीले पदार्थों की तस्करी और प्रवासन का मुद्दा भी अमेरिका के लिए महत्वपूर्ण है. तो क्या इन मुद्दों पर पनामा के सहयोग से यह मसला हल हो सकता है?
डेविड यंग का मानना है कि अगर पनामा ट्रंप समर्थक नीतियां अपनाए तो इस मसले को सुलझाने में मदद मिल सकती है.
वो कहते हैं, “दरअसल जहां तक पनामा के भविष्य का संबंध है यह मामला अमेरिका या चीन के बीच चुनाव करने का नहीं है.”
तो अब लौटते हैं अपने मुख्य प्रश्न की ओर-पनामा राष्ट्रपति ट्रंप को कैसे संतुष्ट कर सकता है?
पनामा अमेरिका के लिए नहर के इस्तेमाल के लिए शुल्क घटा सकता है. लेकिन फिर उसे सभी देशों के लिए शुल्क घटाना पड़ेगा जिससे उसकी आय घट जाएगी जिसकी क्षतिपूर्ति के लिए उसे चीन और अन्य देशों से निवेश के ज़रिए पैसे लेने पड़ेगे जिसके लिए चीन तैयार है.
मगर राष्ट्रपति ट्रंप पनामा पर चीन के प्रभाव से चिंतित है.
इस समस्या से निपटने के लिए जब अमेरिकी विदेश मंत्री ने पनामा की यात्रा की तो पनामा के राष्ट्रपति होसे राउल मुलिनो ने संकेत दिया कि वो पनामा को चीन की बेल्ट एंड रोड योजना से बाहर कर सकते हैं
उन्होंने कहा कि हांगकांग की कंपनियों को बंदरगाहों के ठेकों को लेकर भी पुनर्विचार कर सकते हैं.
इससे राष्ट्रपति ट्रंप को कुछ हद तक संतुष्ट किया जा सकता है. इसके साथ ही पनामा को ट्रंप की नीतियों के बारे में संभल कर बोलना होगा वरना उसे भी कोलंबिया और कनाडा जैसी स्थित का सामना करना पड़ सकता है.
पनामा के लिए सबसे बड़ी चुनौती ट्रंप के साथ संबंधों को संभालने की है. यह चुनौती सिर्फ पनामा के लिए ही नहीं बल्कि अन्य देशों के सामने भी है.
बीबीसी के लिए कलेक्टिव न्यूज़रूम की ओर से प्रकाशित.