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कोल्हापुरी चप्पलें आजकल चर्चा में हैं क्योंकि इटालियन फैशन हाउस ‘प्राडा’ ने अपने एक फैशन शो में कोल्हापुरी जैसी चप्पलें इस्तेमाल की हैं. कुछ लोगों ने इसे कोल्हापुरी का सम्मान माना, लेकिन कई लोगों ने इस पर आपत्ति जताई कि शो में कोल्हापुर या भारत का कोई ज़िक्र नहीं था.
कोल्हापुरी चप्पलें महाराष्ट्र के लिए सिर्फ पहनने की चीज़ या सांस्कृतिक प्रतीक नहीं हैं, बल्कि इनका यहां की मिट्टी और समाज से गहरा ताल्लुक है. इन चप्पलों का इतिहास कई सदियों पुराना है और ये शाहू महाराज के शासनकाल में ख़ास तौर पर मशहूर हुईं.
आज कोल्हापुरी चप्पलों के व्यवसाय में अलग-अलग जातियों और समुदायों के लोग जुड़े हुए हैं, लेकिन असली कोल्हापुरी चप्पलें बनाने वाले ज़्यादातर लोग चमड़े का काम करने वाले दलित समुदाय से आते हैं.
यहां के कारीगरों ने इस बात पर नाराज़गी जताई है कि ‘प्राडा’ के शो में इन चप्पलों का इस्तेमाल तो हुआ, लेकिन कोल्हापुर का ज़िक्र तक नहीं किया गया.
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लोगों की नाराज़गी
कोल्हापुर के सुभाष नगर की निवासी प्रभा सातपुते ज़ोर देकर कहती हैं, “ये चप्पलें चमड़े के कारीगरों की कड़ी मेहनत से बनती हैं. ये यहीं कोल्हापुर में तैयार की जाती हैं, इसलिए इनका नाम कोल्हापुर के नाम पर ही रखा जाना चाहिए.”
सुबह रसोई का काम ख़त्म करने के बाद प्रभा सातपुते अपने घर के सामने चमड़े के एक बड़े टुकड़े को मनचाहे आकार में काट रही थीं. वह कई सालों से यह काम कर रही हैं.
प्रभा कहती हैं, “अपनी मेहनत का फल उसी को दो जो उसका हक़दार है. बिना वजह दूसरों की मेहनत का फ़ायदा मत उठाओ.” उनकी बातों से चप्पलों के प्रति उनका विशेष प्रेम साफ़ झलकता है.
केवल प्रभा ही नहीं, प्राडा की ख़बर सुनने के बाद कोल्हापुर के कई लोगों ने भी इसी तरह नाराज़गी जताई है.
यहां किसी भी व्यक्ति से बात करिए, चाहे वो घर में हों, चाय की दुकान पर या वड़ा पाव के ठेले पर, उनकी बातों में उनकी नाराज़गी साफ नज़र आती है. और यह स्वाभाविक भी दिखता है, क्योंकि कोल्हापुर का इन चप्पलों से एक लंबा और गहरा रिश्ता रहा है.
कोल्हापुरी चप्पलों का सात सौ साल का इतिहास
कोल्हापुर में इन्हें चप्पल की बजाय ‘कोल्हापुरी पायताण’ के नाम से जाना जाता है. चमड़े से बनी और कई बार प्राकृतिक रंगों में रंगी ये चप्पलें महाराष्ट्र की गर्म और कठोर जलवायु में भी मज़बूती से टिकती हैं और लंबे समय तक चलती हैं.
इन चप्पलों में लकड़ी के तलवे होते हैं, जिन पर पंजे और पंजों को जोड़ने वाली पट्टियां लगी होती हैं. कुछ सैंडल चमड़े की लट, पट्टियों, मोतियों और लटकनों से भी सजाए जाते हैं.
साधारण, मनपसंद और जटिल डिज़ाइन, यही कोल्हापुरी चप्पलों की ख़ास पहचान हैं.
इस बात का कोई ठोस प्रमाण नहीं मिलता कि ये चप्पलें कोल्हापुर में कब और कहां से आईं. हालांकि, 13वीं शताब्दी के आसपास कोल्हापुरी जूते और चप्पलों से जुड़े कुछ संदर्भ ज़रूर मिलते हैं.
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चालुक्य वंश के शासनकाल से ही कर्नाटक-महाराष्ट्र की सीमा से लगे इलाक़ों में इन चप्पलों का इस्तेमाल होने लगा था. उस समय ये चप्पलें अलग-अलग गांवों के नाम से पहचानी जाती थीं, जैसे कापशी, अथनी, क्योंकि इन्हीं गांवों के कारीगर इन्हें बनाते थे.
लेकिन इतिहासकार इंद्रजीत सावंत बताते हैं कि शाहू महाराज के शासनकाल में इन चप्पलों को ‘कोल्हापुरी चप्पल’ के रूप में ख़ास पहचान मिली. उनका कहना है कि शाहू महाराज ख़ुद ये चप्पलें पहनते थे, ताकि इन्हें सम्मानजनक दर्जा मिल सके.
उन्होंने बताया कि महाराजा ने कोल्हापुर शहर के जवाहरनगर और सुभाषनगर में इस व्यवसाय को बढ़ावा देने की व्यवस्था की. चमड़े के कारीगरों को ज़मीनें दी गई और चमड़ा ख़रीदने की भी उनके लिए विशेष व्यवस्था की गई.
इसके बाद इन चप्पलों का नाम कोल्हापुर से जुड़ गया और यह शहर की पहचान बन गई. हाल ही में इस चप्पल को ‘जीआई’ का दर्जा भी मिला है.
असली कोल्हापुरी चप्पलें कैसे बनाई जाती हैं?
कोल्हापुर के गांवों में चमड़े के कारीगरों ने परंपरा निभाते हुए हाथ से चप्पलें बनाने के इस ख़ास तरीके को अब तक संभाल कर रखा है.
इसकी शुरुआत भैंस की खाल से होती है, जिसे बबूल की छाल और चूने जैसी प्राकृतिक चीज़ों की मदद से तैयार किया जाता है.
इसके बाद चमड़े को मनचाहे आकार में काटा जाता है. फिर सभी हिस्सों को हाथों से सूती या नायलॉन के धागों से बुना और सिला जाता है.
सिलाई के बाद इन चप्पलों पर पारंपरिक कढ़ाई की जाती है और उनमें बारीक छेद किए जाते हैं. अंत में इन्हें प्राकृतिक तेल से चमकाया जाता है और लचीला बनाया जाता है.
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हाल के समय में इनमें से कुछ काम मशीनों से भी होने लगे हैं, लेकिन इन चप्पलों को बनाने का ज़्यादातर काम आज भी हाथ से ही होता है.
महाराष्ट्र में ये चप्पलें पारंपरिक पोशाक के साथ पहनी जाती हैं. इसके अलावा बड़ी संख्या में लोग रोज़मर्रा के इस्तेमाल के लिए भी इन चप्पलों को पसंद करते हैं.
‘प्राडा’ शो पर विवाद
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23 जून 2025 को इटली के फैशन हाउस प्राडा ने इटली में आयोजित मशहूर ‘मिलान फैशन वीक’ में अपना ‘मेन्स स्प्रिंग समर 2026 कलेक्शन’ पेश किया.
कुछ भारतीयों ने सोशल मीडिया पर लिखा कि शो में एक मॉडल ने जो चप्पलें पहनी थीं, वे कोल्हापुरी चप्पलों जैसी लग रही थीं.
कुछ लोगों ने टिप्पणी की कि कोल्हापुरी चप्पलें अब दुनियाभर में मशहूर हो चुकी हैं. लेकिन ज़्यादातर लोग इस बात से नाराज़ थे कि शो में कोल्हापुर या भारत का कोई ज़िक्र तक नहीं किया गया.
कुछ पश्चिमी लोग इन चप्पलों को कोल्हापुरी या भारतीय चप्पलें कहने की बजाय ‘टो रिंग सैंडल’ कह रहे थे, और यह भी कई लोगों को पसंद नहीं आया.
महाराष्ट्र चैंबर ऑफ कॉमर्स, एग्रीकल्चर एंड इंडस्ट्रीज के अध्यक्ष ललित गांधी ने प्राडा से संपर्क कर इसे लेकर अपनी नाराज़गी जताई. अपने जवाब में प्राडा ने माना कि फैशन शो में दिखाई गई चप्पलें पारंपरिक भारतीय चप्पलों से प्रेरित हैं.
प्राडा के कॉरपोरेट सोशल रिस्पॉन्सिब्लिटी प्रमुख लोरेंजो बर्टेली ने कहा, “यह कलेक्शन अभी डिज़ाइन के स्तर पर है और इस बारे में कोई फै़सला नहीं लिया गया है कि इनमें से किसी आइटम को व्यावसायिक तौर पर लांच किया जाएगा या नहीं.”
उन्होंने यह भी कहा, “प्राडा अपने डिज़ाइनों में ज़िम्मेदारी से कदम उठाने के लिए प्रतिबद्ध है और हम इस पर भारतीय कारीगरों से चर्चा करने के लिए भी तैयार हैं.”
हालांकि, यह पहला मौक़ा नहीं है जब किसी पहनावे को भारतीय कारीगरों या विरासत का ज़िक्र किए बिना दुनिया के सामने पेश किया गया हो और उस पर विवाद खड़ा हुआ हो.
फैशन की दुनिया में ‘डिज़ाइन’ और विवाद
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फ़िल्म अभिनेत्री आलिया भट्ट ने साल 2024 के कान फ़िल्म फ़ेस्टिवल में एक ऐसा आउटफिट पहना था जो लहंगे जैसा दिखता था. आलिया ने ख़ुद इसे ‘भारतीय साड़ी से प्रेरित पोशाक’ बताया, लेकिन इस पोशाक के निर्माता गुच्ची ने इसे गाउन कहा, जो कई लोगों को पसंद नहीं आया.
गुच्ची को इससे पहले भी आलोचना झेलनी पड़ी थी. साल 2018 में अपने कलेक्शन में उन्होंने सिख पगड़ी का इस्तेमाल किया था, जिस पर भी काफ़ी आपत्ति हुई थी.
इसी तरह, 2024 में एक टिकटॉक यूज़र ने जब दुपट्टे या शॉल को ‘स्कैंडिनेवियाई स्कार्फ़’ कहा, तो दक्षिण एशियाई मूल के लोगों ने इस पर नाराज़गी जताई.
ऐसे मामलों से साफ़ होता है कि फ़ैशन की दुनिया में किसी कपड़े, गहने या वस्तु को पश्चिमी नाम देकर उसकी असली उत्पत्ति का ज़िक्र नहीं करने के मामले होते रहे हैं. इसे फैशल की दुनिया में ‘कल्चरल अप्रोप्रिएशन’ कहा जाता है.
कई लोगों को लगता है कि इससे किसी परंपरा या विरासत के खोने का ख़तरा बढ़ जाता है. कुछ लोगों ने इसे ‘फ़ैशन में उपनिवेशवाद’ कहकर भी आलोचना की है.
साथ ही, कई लोग यह भी सोचने को मजबूर होते हैं कि भारतीय चीज़ें तब ही क्यों अंतरराष्ट्रीय स्तर पर लोकप्रिय होती हैं जब उन्हें कोई विदेशी ब्रांड अपनाता है या प्रमोट करता है.
हालांकि, ज़्यादातर लोग इस बात पर सहमत हैं कि जब कोई चीज़ दुनिया तक पहुंचती है, तो उसे बनाने वाले कारीगरों और परंपरा को संभाल कर रखने वालों को भी उचित श्रेय मिलना चाहिए.
‘कोल्हापुरी’ चप्पल बनाने वालों का हाल
प्राडा मामले के बाद भले ही कोल्हापुरी चप्पलों का कारोबार बढ़ जाए, लेकिन इन्हें बनाने वाले कारीगरों को अब भी कई मुश्किलों का सामना करना पड़ रहा है.
प्रभा सातपुते पिछले दस साल से घर पर ही चप्पल बनाने का काम कर रही हैं. लेकिन उनके जैसे कारीगरों को तब तक बैंक से कर्ज़ नहीं मिलता, जब तक उनके पास ज़्यादा चप्पलें बनाने के लिए बड़ी मशीनें न हों.
प्रभा बताती हैं कि उन्हें कहा गया कि कोल्हापुरी चप्पलों का छोटा उद्योग शुरू करने के लिए उनके पास ज़रूरी बुनियादी ढांचा नहीं है.
प्रभा कहती हैं, “केवल वही लोग कर्ज़ ले सकते हैं जिनके पास पहले से ही बड़ा व्यवसाय है. हमारे जैसे कारीगर, जो सचमुच अपने हाथों से चप्पलें बनाते हैं, इस योजना से बाहर ही रह जाते हैं.”
वह बताती हैं, “जब बैंक वाले निरीक्षण करने आते हैं, तो वे पहले से ही बड़े ढांचे की उम्मीद करते हैं. लेकिन जब हमारे पास पैसे ही नहीं हैं, तो हम बड़ी मशीनें कहां से लाएं? हमें कोई बहुत बड़ा कर्ज़ नहीं चाहिए, अगर हमें 2-3 लाख रुपए भी मिल जाएं, तो हमारा काम आगे बढ़ सकता है.”
सरकार ने छोटे, सूक्ष्म और मध्यम उद्योगों के लिए कई योजनाएं चला रखी हैं, लेकिन प्रभा के मामले से साफ होता है कि ऐसी योजनाएं हर ज़रूरतमंद तक नहीं पहुंच पातीं.
महाराष्ट्र चैंबर ऑफ़ कॉमर्स, एग्रीकल्चर एंड इंडस्ट्रीज के अध्यक्ष ललित गांधी कहते हैं, “सभी हितधारकों को कारीगरों के भले के लिए मिलकर काम करना चाहिए.”
बीबीसी मराठी से बात करते हुए उन्होंने बताया कि प्राडा कंपनी से चर्चा के दौरान उन्होंने इस मुद्दे को ख़ास तौर पर उठाया था.
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कोल्हापुरी चप्पल बनाने के काम में घंटों एक ही जगह बैठकर काम करने से शरीर और कमर में लगातार दर्द रहता है. दूसरी तरफ, नई पीढ़ी अब इस पेशे से दूर होती जा रही है, क्योंकि भारतीय समाज में चमड़े के काम को सम्मान की नज़र से नहीं देखा जाता.
व्यवसायी भूषण कांबले कहते हैं, “कोल्हापुरी चप्पलें बेचना फ़ायदेमंद हो सकता है. कई परिवार इसे पीढ़ियों से कर रहे हैं. लेकिन चमड़े से चप्पल बनाने के काम को आज भी सम्मान नहीं मिलता.”
क्या प्राडा शो और कोल्हापुरी चप्पलों के एक बार फिर सुर्खियों में आने के बाद हालात बदलेंगे? यह अभी कहना मुश्किल है.
बीबीसी के लिए कलेक्टिव न्यूज़रूम की ओर से प्रकाशित