जम्मू कश्मीर विधानसभा चुनाव के पहले दौर का मतदान 18 सितंबर को होना है.
इस वोटिंग से कुछ ही घंटे पहले रविवार की देर शाम इंजीनियर रशीद की अवामी इत्तिहाद पार्टी ने प्रतिबंधित संगठन जमात ए इस्लामी समर्थित निर्दलीय उम्मीदवारों के साथ गठबंधन का ऐलान किया है.
अवामी इत्तिहाद पार्टी और जमात के इस गठबंधन को कश्मीर घाटी में होने वाले चुनाव के लिहाज से बहुत अहम माना जा रहा है.
अवामी इत्तिहाद पार्टी की अध्यक्षता हाल ही में दिल्ली की तिहाड़ जेल से ज़मानत पर रिहा हुए सांसद रशीद अहमद शेख़ कर रहे हैं. वो इंजीनियर रशीद के नाम से मशहूर हैं.
कुछ महीने पहले हुए लोकसभा चुनाव में इंजीनियर राशिद ने जेल में रहते हुए में बारामुला सीट पर राज्य के पूर्व मुख्यमंत्री उमर अब्दुल्लाह को क़रीब दो लाख वोट से हरा दिया था.
इंजीनियर रशीद के मुताबिक़ जमात के साथ गठबंधन का मक़सद कश्मीरियों की आवाज़ को बुलंद करना और कश्मीर की समस्या का समाधान ढूंढना है.
उन्होंने कहा, “हम जमात के उम्मीदवारों का समर्थन करेंगे और वो हमारे उम्मीदवारों का समर्थन करेंगे, जबकि कुछ सीटों पर दोस्ताना मुक़ाबला भी होगा और दोनों के उम्मीदवार मौजूद होगें.”
जमात-ए-इस्लामी ने आख़िरी बार साल 1987 के विधानसभा चुनाव में हिस्सा लिया था. क़रीब 37 साल बाद यह पहला मौक़ा है जब जमात चुनाव में खड़े हुए उम्मीदवारों का समर्थन कर रही है.
जमात समर्थित उम्मीदवार कश्मीर में सात सीटों पर चुनाव लड़ रहे हैं. इनमें से 5 सीटें दक्षिण कश्मीर में हैं, जबकि 2 सीट उत्तरी कश्मीर की हैं. इंजीनियर रशीद की पार्टी अब तक 34 सीटों पर उम्मीदवार खड़े कर चुकी है.
जम्मू-कश्मीर विधानसभा के लिए एक दशक के बाद चुनाव हो रहा है. इसमें तीन चरणों में 18 और 25 सितम्बर और फिर एक अक्टूबर को वोट डाले जाएंगे. जबकि वोटों की गिनती 8 अक्टूबर को होगी.
इस चुनाव में कांग्रेस और नेशनल कॉन्फ्रेंस ने गठबंधन किया है. जबकि महबूबा मुफ़्ती की पीडीपी ने अभी तक किसी राजनीतिक दल के साथ कोई गठबंधन नहीं किया है.
इन चुनावों में भारतीय जनता पार्टी भी अकेले चुनाव मैदान में है.
विपक्ष का आरोप – मुसलमानों को बांटने की कोशिश
इंजीनियर रशीद की चुनाव से पहले जेल से रिहाई और अब जमात के साथ गठबंधन की वजह से उनपर बीजेपी के ‘प्रॉक्सी’ समर्थक होने का आरोप लग रहा है.
महबूबा मुफ़्ती ने अवामी इत्तिहाद पार्टी के जम्मू-कश्मीर में उम्मीदवार खड़ा करने पर सवाल उठाए हैं, “इंजीनियर रशीद जेल में थे, ऐसे में उनकी पार्टी हर जगह पर उमीदवार कैसे उतार रही थी, उनके लिए पैसा कौन दे रहा है. मुफ़्ती मोहम्मद सईद को पार्टी बनाने में 5 साल लग गए थे, इसलिए सवाल यह है कि इंजीनियर रशीद की पार्टी की फंडिंग कहाँ से हो रही है?”
महबूबा मुफ़्ती ने दावा किया कि नेशनल कांफ्रेंस, कांग्रेस और पीडीपी के अलावा विधानसभा में जो भी राजनीतिक दल और निर्दलीय उम्मीदवार हैं, वो सब अप्रत्यक्ष तौर पर बीजेपी का समर्थन कर रहे हैं.
राज्य के पूर्व मुख्यमंत्री डॉक्टर फ़ारूक़ अब्दुल्लाह का कहना है “क़ैदियों को जेलों से चुनाव से पहले रिहा किया जा रहा है, यह मुसलमानों के वोट को बांटने का एक प्लान है.”
हालाँकि इंजीनियर रशीद ने जेल से बाहर आते ही पीएम मोदी पर निशाना साधते हुए कहा, “मोदी ने ‘नया कश्मीर’ का जो नैरेटिव बीते वर्षों में खड़ा किया है हम उस नैरेटिव का तोड़ निकालेंगे.”
वहीं जम्मू कश्मीर में बीजेपी के प्रवक्ता जीएल रैना का कहना है, “अब्दुल्लाह और मुफ़्ती के ख़िलाफ़ जो भी खड़ा होता है, वो उनको प्रॉक्सी का नाम दे देते हैं.”
गठबंधन से किसको नुकसान?
कुछ विश्लेषकों का भी मानना है कि इंजीनियर रशीद की पार्टी और जमात ए इस्लामी का गठबंधन दरअसल कांग्रेस, एनसी और पीडीपी के ख़िलाफ़ एक मोर्चा है, जो इनके वोट बैंक को तोड़ने की एक कोशिश हो सकती है.
वरिष्ठ पत्रकार और विश्लेषक तारिक़ भट्ट कहते हैं, “मुझे ऐसा महसूस हो रहा है कि इंजीनियर रशीद और जमात ए इस्लामी का जो गठबंधन हुआ है, वह कांग्रेस और नेशनल कॉन्फ्रेंस के गठबंधन के तोड़ की दिशा में एक क़दम हो सकता है.”
“साथ ही पीडीपी को भी इस गठबंधन ने अपने निशाने पर लिया होगा. इसका सीधा मतलब है कि कश्मीर में पीडीपी और एनसी का जो पारंपरिक वोट है, उसमें सेंध लगाई जाए.”
तारिक भट्ट कहते हैं, “कांग्रेस और एनसी गठबंधन को जमात ए इस्लामी और अवामी इत्तिहाद पार्टी का गठबंधन प्रभावित तो नहीं कर सकता है, लेकिन इस बात से इंकार नहीं किया जा सकता है कि पीडीपी को दक्षिण कश्मीर में इस गठबंधन से नुक़सान हो सकता है.”
“पीडीपी अपनी शुरुआत से ही कश्मीर में सॉफ्ट अलगावाद के लहज़े में अपनी सियासत करती रही है, ठीक उसी लहज़े में इंजीनियर रशीद और जमात भी बात करता है. तो इसका मतलब है कि लोगों के पास विकल्प है कि वो इस नए अनुभव को आज़माए, जो पीडीपी के लहज़े में ही बात कर रहा है.”
मुफ़्ती मोहम्मद सईद ने साल 1999 में पीडीपी की स्थापना की थी. साल 2002 में पीडीपी ने जम्मू कश्मीर विधानसभा में अपनी एंट्री की थी.
क्या बीजेपी को हो सकता है फ़ायदा?
पीडीपी अपनी शुरुआत से ही कश्मीर समस्या के हल के लिए पाकिस्तान और अलगाववादियों से बातचीत के समर्थन में रही है.
इस लिहाज से जानकार कह रहे हैं कि अब तक जमात का जो वोट पीडीपी को मिलता रहा था, वो इस चुनाव में नहीं मिल पाएगा.
इसी तरह अवामी इत्तिहाद पार्टी के अध्यक्ष और सांसद इंजीनियर रशीद ने साल 2008 में पहली बार कुपवाड़ा के लंगेट सीट से चुनाव लड़ा और जीते थे. उसके बाद साल 2013 में उन्होंने अवामी इत्तिहाद पार्टी की बुनियाद रखी.
इंजीनियर रशीद भी सियासी सफर की शुरुआत से ही कश्मीर समस्या का समाधान ढूंढ़ने पर ज़ोर देते रहे हैं और वो मौजूदा चुनाव प्रचार में भी ऐसा कह रहे हैं.
जमात ए इस्लामी भी कश्मीर मसले के हल के लिए भारत, पाकिस्तान और कश्मीरियों के साथ बातचीत पर ज़ोर देती रही है.
राजनीतिक विश्लेषक और वरिष्ठ पत्रकार ताहिर मोहिउद्दीन बताते हैं कि इन दोनों का गठबंधन, एक जैसी सोच पर आधारित है.
उनका कहना है, “जमात ए इस्लामी और इंजीनियर रशीद के विचार एक जैसे हैं. इंजीनियर रशीद भी कश्मीर के मुद्दे को उठाते रहे हैं और जमात भी. मुझे लगता है कि इनके गठबंधन से ज़्यादा नहीं बल्कि कुछ सीटों पर असर हो सकता है.”
ताहिर मोहिउद्दीन का कहना है कि जम्मू में इस गठबंधन का कोई असर नहीं होगा.
उनके मुताबिक़ “पीडीपी और नेशनल कॉन्फ्रेंस का आरोप है कि यह गठबंधन बीजेपी का ही गेम प्लान है और उनके कहने पर ही ये चुनाव मैदान में आए हैं.”
बीजेपी ने कश्मीर घाटी की 47 में 19 सीटों पर उम्मीदवार उतारे हैं.
जम्मू कश्मीर की 90 विधानसभा सीटों में से 47 कश्मीर घाटी में हैं, जबकि 43 जम्मू में. बीजेपी की असली ताक़त जम्मू क्षेत्र में मानी जाती है.
इस गठबंधन पर जम्मू-कश्मीर के आम लोग भी चर्चा कर रहे हैं.
जम्मू-कश्मीर के एक मतदाता शाबिर डार कहते हैं, “इस गठबंधन से हमें एक उम्मीद है. उम्मीद है कि अब हमें बनी बनाई व्यवस्था से छुटकारा मिल सकता है.”
हालांकि एक अन्य कश्मीरी, खुर्शीद अहमद कहते हैं, “इस नए गठबंधन से बहुत उम्मीद नहीं हैं, क्योंकि यह एक मौक़ापरस्त जमात है, जो सत्ता हासिल करना चाहती है.”
जमात ए इस्लामी का इतिहास
जमात-ए-इस्लामी के नेता साल 1987 के बाद से चुनावों का लगातार बहिष्कार करते आए थे, लेकिन इस साल हुए लोकसभा चुनाव में जमात के कई नेताओं ने वोट डाल कर लोगों को हैरान कर दिया था.
जमात ए इस्लामी एक धार्मिक-राजनीतिक संगठन है. इस संगठन की कश्मीर के सोपोर, कुलगाम, शोपियां और पुलवामा में मज़बूत मौजूदगी है.
जम्मू कश्मीर जमात ए इस्लामी की बुनियाद साल 1941 में पड़ी थी. मौजूदा समय में इसके कार्यकारी सदस्यों की संख्या 5 हज़ार के आस-पास मानी जाती है.
कश्मीर के मुद्दे पर भारत और पाकिस्तान के बीच विवाद के मामले में जमात इस बात का पक्षधर रहा है कि भारत, पाकिस्तान और कश्मीर के लोगों को आपस में बातचीत कर इसका हल निकालना चाहिए.
जमात के एक कार्यकारी सदस्य का कहना है, “हमारे मेनिफेस्टो में इसका ज़िक्र है कि हम लोग संयुक्त राष्ट्र के प्रस्ताव के मुताबिक़ इस मसले का हल चाहते हैं.”
साल 2019 में भारत सरकार ने जमात ए इस्लामी पर टेरर फंडिंग और देश विरोधी गतिविधियों में शामिल होने के अभियोग में पांच साल की पाबंदी लगा दी थी. यह पाबंदी यूएपीए के तहत लगाई गई थी.
बीते तीन साल के दौरान जमात की कई संपत्ति सरकार ने अटैच की हैं. पांच साल का समय पूरा होने के बाद इस साल फ़रवरी में सरकार ने जमात ए इस्लामी पर पाबंदी 5 साल के लिए फिर से बढ़ा दी है. इस दौरान जमात के कई नेता और कार्यकर्ता नज़रबंद हैं.
विधानसभा चुनाव से पहले जमात ने सरकार से इस शर्त पर चुनाव में हिस्सा लेने की इच्छा ज़ाहिर की थी कि पहले उनकी संगठन पर से पाबंदी हटाए जाए, लेकिन सरकार ने पाबंदी नहीं हटाई है.
इस पाबंदी की वजह से जमात ए इस्लामी सीधे तौर पर चुनाव नहीं लड़ सकती थी, इसलिए पार्टी ने निर्दलीय उम्मीदवारों के समर्थन का फ़ैसला किया है.
जमात के नेताओं का दावा है कि साल 2019 के बाद उनका संगठन और उससे जुड़े लोगों पर सरकार का शिकंजा कसा है और उनकी मुश्किलें बढ़ी हैं, इसलिए वो लोकतांत्रिक तरीक़े से लड़ाई लड़ने की कोशिश कर रहे हैं.
हालाँकि तारिक़ भट्ट का भी मानना है, “बीजेपी जम्मू में इस गठबंधन के बारे में कह सकती है कि कश्मीर में दो ऐसी ताक़तें मिल गई हैं जो कश्मीर मुद्दे की बात करती हैं और उनको हराने के लिए बीजेपी को वोट देना ज़रूरी है और इस नैरेटिव से कांग्रेस को नुकसान होगा.”
बीबीसी के लिए कलेक्टिव न्यूज़रूम की ओर से प्रकाशित