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जून 2025 में ईरान के तीन परमाणु ठिकानों पर अमेरिकी हमले के फ़ौरन बाद ईरान के विदेश मंत्री अब्बास अरागची ने एक पत्रकार सम्मेलन को संबोधित किया.
जब एक पत्रकार ने उनसे पूछा कि क्या ईरान होर्मुज़ स्ट्रेट को बंद करने के बारे में भी सोच रहा है?
इस पर उन्होंने कहा, “देश के सामने सभी विकल्प खुले हुए हैं. लेकिन यह फ़ैसला देश की सुप्रीम नेशनल काउंसिल द्वारा देश के सर्वोच्च नेता आयतुल्लाह अली ख़ामेनेई से मंज़ूरी मिलने के बाद ही किया जाएगा.”
तो इस हफ़्ते हम ‘दुनिया जहान’ में यही जानने की कोशिश करेंगे कि दुनिया भर में तेल आपूर्ति के लिए होर्मुज़ स्ट्रेट कितना अहम है?
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तेल सप्लाई संकट में
पेरिस ऑफ़िस ऑफ़ दी काउंसिल ऑन फ़ॉरेन रिलेशंस की उप प्रमुख और खाड़ी के देशों के मामलों की विशेषज्ञ कैमिल लोन्स कहती हैं, “होर्मुज़ स्ट्रेट दुनिया का एक सबसे महत्वपूर्ण जलमार्ग है. मध्य-पूर्व में स्थित यह जलमार्ग ईरान और सऊदी अरब के बीच फ़ारस की खाड़ी में है. यह अरब सागर से होता हुआ हिंद महासागर और बाक़ी दुनिया से जुड़ता है.
“दुनिया का लगभग 20 प्रतिशत तेल व्यापार होर्मुज़ स्ट्रेट से होता है. यहां से हर दिन दो करोड़ बैरल तेल गुज़रता है. जहां यह सबसे संकरा है वहां इसकी चौड़ाई 30 मील है. यहां तेल वाहक जहाज़ों के लिए लेन निर्धारित हैं. भारी ट्रैफ़िक के समय यहां से गुज़रना आसान नहीं होता. यह किसी संकरे पहाड़ी रास्ते जैसा है.”
यहां जहाज़ों से खाड़ी के देशों में उत्पादित तेल और एलएनजी (लिक्विफ़ाइड नेचुरल गैस) की सप्लाई भी होती है.
कैमिल लोन्स ने बताया कि गैस की यह सप्लाई इस रास्ते से दुनियाभर में होती है. खाड़ी क्षेत्र के देश खाद्य सामग्री और अन्य सामान के लिए इस जलमार्ग पर निर्भर हैं. हालांकि, इसका सबसे अधिक महत्व तेल और गैस सप्लाई के लिए है.
तेल वाहक जहाजों या टैंकरों के लिए यह चुनौतीपूर्ण रास्ता है लेकिन फ़िलहाल यह एकमात्र विकल्प है.
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कैमिल लोन्स ने बताया कि इस जलमार्ग में बाधा की संभावना को ध्यान में रख कर सऊदी अरब इसका विकल्प तैयार कर रहा है, वो तेल की पाइप लाइनें बिछाने की तैयारी कर रहा है ताकि उसके पूर्वी तट और पश्चिमी तट पर स्थित तेल और गैस के कारखानों से माल को सीधे लाल सागर तक पहुंचाया जा सके.
लेकिन यह रास्ता पूरी तरह होर्मुज़ स्ट्रेट की जगह नहीं ले सकता क्योंकि होर्मुज़ स्ट्रेट से विशाल मात्रा में तेल और गैस की आवाजाही होती है. इस क्षेत्र में तनाव का असर विश्व की अर्थव्यवस्था पर पड़ सकता है.
इसी कारण पूरी दुनिया की नज़र होर्मुज़ स्ट्रेट पर है.
कैमिल लोन्स ने कहा, “होर्मुज़ स्ट्रेट ईरान और ओमान के जलक्षेत्र का हिस्सा है लेकिन सैद्धांतिक तौर पर यह देश यहां से होने वाली टैंकरों की आवाजाही को नियंत्रित नहीं करते. मगर राजनीतिक तनाव के चलते इन देशों के पास इस जलमार्ग को बंद करने की क्षमता है. अंतरराष्ट्रीय कानून के तहत यह वैध नहीं है. लेकिन वो यह कर ज़रूर सकते हैं.”
यह पहला मौका नहीं है जब देशों के बीच आपसी संघर्ष का असर होर्मुज़ स्ट्रेट पर पड़ा हो.
जोखिम भरा काम
अटलांटिक काउंसिल की एक वरिष्ठ शोधकर्ता और राष्ट्रीय सुरक्षा मामलों की विशेषज्ञ एलिज़ाबेथ ब्राव का कहना है कि जब भी राजनीतिक तनाव की छाया होर्मुज़ स्ट्रेट पर पड़ती है, तब केवल शिपिंग उद्योग ही नहीं बल्कि दुनिया के सभी नेताओं की चिंता बढ़ जाती है.
साल 1980 में इराक़ ने ईरान पर हमला कर दिया था. उस संघर्ष का असर भी होर्मुज़ स्ट्रेट पर पड़ा, जिसे टैंकर युद्ध कहा जाने लगा.
“यह रोचक किस्म की लड़ाई थी क्योंकि इसमें शुरुआत में दोनों देश एक-दूसरे की सेना पर हमला कर रहे थे लेकिन बाद में उन्होंने होर्मुज़ स्ट्रेट में एक-दूसरे के तेल टैंकरों पर हमले शुरू कर दिए.”
तेल दोनों देशों की अर्थव्यवस्था का महत्वपूर्ण हिस्सा था.
एलिज़ाबेथ ब्राव कहती हैं टैंकर युद्ध की शुरुआत तब हुई जब इराक़ ने होर्मुज़ स्ट्रेट में ईरान के तेल टैंकरों पर हमला करना शुरू कर दिया. यह कभी स्पष्ट नहीं हुआ कि ईरान ने इसका कड़ा जवाब क्यों नहीं दिया.
संभवत: वो संघर्ष को बढ़ाना नहीं चाहता था. लेकिन साल1984 में ईरान ने इराक़ के तेलवाहक जहाज़ों या टैंकरों को निशाना बनाना शुरू कर दिया.
एलिज़ाबेथ ब्राव कहती हैं कि इससे बहुत नुक़सान हो रहा था. टैंकर युद्ध के दौरान इराक़ ने ईरान की 283 तेल वाहक नौकाओं पर हमले किए थे. ईरान ने इराक़ के 168 तेल टैंकरों पर हमले किए. इसके अलावा 52 मालवाहक नौकाओं को भी निशाना बनाया गया.
इनमें से ज़्यादातार हमले मिसाइल, रॉकेट और ग्रेनेड से हुए थे. इस टैंकर युद्ध में 160 जहाज कर्मी मारे गए. कई घायल हो गए और 37 लोग लापता हो गए.
एलिज़ाबेथ ब्राव का कहना है कि इस संघर्ष में ईरान और इराक के तेल टैंकरों के अलावा कई दूसरे जहाज भी क्षतिग्रस्त हो गए क्योंकि इतने संकरे जलमार्ग में किसी ख़ास जहाज को निशाना बनाना मुश्किल होता है.
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अंतरराष्ट्रीय कानून के अनुसार देशों की ज़िम्मेदारी है कि वो व्यापारिक नौकाओं सहित सभी नौकाओं को सुरक्षित रखें.
एलिज़ाबेथ ब्राव ने कहा कि इसके नतीजे में सभी देशों ने महसूस किया कि युद्ध के दौरान व्यापारिक नौकाओं को निशाना बनाना बहुत बुरी बात है और सभी के लिए ख़तरनाक है. इससे कोई लड़ाई भी जीती नहीं जा सकती क्योंकि जीत तो जंग के मैदान में सैन्य क्षमता से ही हासिल होती है.
ईरान के हमलों से कुवैत के टैंकरों की रक्षा के लिए अमेरिका युद्ध में उतर आया और उसकी युद्ध नौकाओं ने इस क्षेत्र में कुवैती टैंकरों को सुरक्षा प्रदान करना शुरू कर दिया.
एलिज़ाबेथ ब्राव कहती हैं कि जलक्षेत्रों में नौकाओं की सुरक्षा के लिए अंतरराष्ट्रीय पुलिस बल नहीं है और अक्सर अमेरिका को ही यह ज़िम्मेदारी लेनी पड़ी है.
अमेरिकी नौसेना का कहना है कि अंतरराष्ट्रीय कानून के अनुसार किसी भी देश को इस जलमार्ग का इस्तेमाल करने का अधिकार है. अक्सर कहा जाता है कि अमेरिका के हस्तक्षेप का बड़ा कारण यह है कि उसे तेल की ज़रूरत है.
एलिज़ाबेथ ब्राव के अनुसार अमेरिका में ही बड़ी मात्रा में तेल मौजूद है, इसके अलावा वो अपनी ज़रूरत के लिए कनाडा और दूसरे देशों से भी तेल का आयात करता है, इस क्षेत्र में उसके हस्तक्षेप करने की वजह राजनीतिक और सामरिक है.
वो कहती हैं, “फ़िलहाल टैंकर युद्ध जैसी स्थिति तो नहीं ही है, लेकिन किसी भी देश को कोई जलमार्ग बंद करने का अधिकार नहीं होना चाहिए. अगर ऐसा होगा तो दुनिया के कई देश उस देश पर दबाव डालेंगे और विश्व में उसके बचे-खुचे दोस्त भी दूर चले जाएंगे. साथ ही दुनिया के ताकतवर देश इसके ख़िलाफ़ कार्रवाई करेंगे और उस देश को गंभीर परिणाम भुगतने पड़ेंगे.”
समुद्र में सुरक्षा
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व्यापारिक नौका मालिकों के संगठन बिमको के प्रमुख सुरक्षा अधिकारी जेकब लार्सन कहते हैं कि व्यापारी नौकाओं या कार्गो जहाजों को उन सभी हथियारों से निशाना बनाया जाता है जिनका इस्तेमाल युद्ध में होता है.
ब्रिटिश परिवहन विभाग के अनुसार पिछले साल तक दुनिया भर में मालवाहक या कार्गो जहाजों की संख्या 69 हज़ार से अधिक हो गई थी.
लार्सन कहते हैं, “हमने कई बार देखा है कि सेना के विशेष दस्ते व्यापारिक नौकाओं और उन पर तैनात कर्मचारियों को अपने कब्ज़े में ले लेते हैं. कई बार उन पर मिसाइलों और बमों से हमले किए जाते हैं. कई बार वो जहाजों के जीपीएस सिग्नल को जाम कर देते हैं जिससे उनकी यात्रा मुश्किल हो जाती है. साथ ही नौसेना की युद्धक नौकाओं के ज़रिए घेराबंदी करके उनका रास्ता रोक दिया जाता है.”
जब किसी क्षेत्र में सैन्य संघर्ष शुरू होता है तो वहां के जलमार्गों में कार्गो जहाजों की सुरक्षा का आकलन किया जाता है और जायज़ा लिया जाता है कि उस क्षेत्र में नौकाओं को किस प्रकार के ख़तरे का सामना करना पड़ सकता है और उस हिसाब से उनकी सुरक्षा सुनिश्चित करने के प्रयास किए जाते हैं.
जेकब लार्सन कहते हैं, “मिसाल के तौर पर मिसाइल हमले से अगर नौका में आग लग जाती है तो उसे बुझाने और नियंत्रित करने के उपकरण उन नौकाओं में लगाए जाते हैं. कर्मचारियों को नौका के अंदर केबिन में ही रहने के निर्देश दिए जाते हैं. साथ ही अगर किसी ख़ास देश से ख़तरा है तो नौकाओं को उससे जितना संभव हो सके उतनी दूर के रूट पर चलने की सलाह दी जाती है.
व्यापारिक नौकाओं पर झंडा लगा होता है जिससे पता चलता है कि वो नौका किस देश में रजिस्टर हुई है.
लेकिन कई बार होता यह है कि नौका किसी एक देश में रजिस्टर होती है मगर उसके कर्मचारी दूसरे देशों के होते हैं.
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मिसाल के तौर पर नौका लाइबेरिया में रजिस्टर होती है मगर उस पर सवार कर्मचारी फ़िलीपींस के हो सकते हैं और उस पर लदा माल सऊदी अरब का हो सकता है और उसी वजह से कोई देश उस नौका को निशाना बना सकता है.
यानी नौका पर लगा झंडा उसकी सुरक्षा की गारंटी नहीं होता. युद्ध के अलावा व्यापारी नौकाओं को एक और बड़े ख़तरे का सामना करना पड़ता है. वो है समुद्री डकैतों का ख़तरा.
जेकब लार्सन कहते हैं कि गिनी की खाड़ी में नाइजीरिया से काम करने वाले समुद्री डकैतों से बड़ा ख़तरा है. मलाक्का स्ट्रेट में भी लूट की वारदातें होती हैं. समुद्री डकैत नौका पर चढ़ कर उसे अपने कब्ज़े में ले लेते हैं.
कैरेबियाई क्षेत्र में भी ऐसी वारदातें होती हैं. सोमालिया के समुद्री डकैत फिर से सक्रिय होने लगे थे लेकिन यूरोपीय संघ और भारत की नौसेना ने तुरंत कार्रवाई कर उस ख़तरे पर काबू पा लिया.
समुद्र में डकैती की सबसे बड़ी घटना साल 2009 में हुई थी, जब सोमालिया के डकैतों ने एक व्यापारिक नौका का अपहरण करके उसके अमेरिकी कैप्टन को पांच दिनों तक बंधक बना कर रखा था.
अमेरिकी नौसैना ने सैन्य कार्रवाई कर कैप्टन को रिहा कराया, जिसके बाद डकैती से निपटने के लिए अंतरराष्ट्रीय सहयोग में तेज़ी आई.
जेकब लार्सन कहते हैं कि सोमालिया के डकैतों को किसी भी देश से समर्थन नहीं मिल रहा था, इसलिए उनके ख़िलाफ़ अंतरराष्ट्रीय मुहिम आसानी से कामयाब हो गई और तभी से यह सहयोग चला आ रहा है.
किस देश पर ज़्यादा असर
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नॉर्वे की एबीजी सुंडाय कोलियर इन्वेस्टमेंट बैंक के इक्विटी एनालिस्ट पीटर हौगेन कहते हैं कि होर्मुज़ स्ट्रेट के बंद होने से दुनियाभर में तेल और गैस की सप्लाई पर भारी असर पड़ेगा.
उनका कहना है, “उससे भी बड़ी समस्या तब खड़ी होगी जब तेल और गैस उत्पादन करने वाले कारखानों को नुक़सान पहुंचेगा क्योंकि फ़ारस की खाड़ी के क्षेत्र में प्रतिदिन दो करोड़ बैरल तेल का उत्पादन होता है और इस उत्पादन के बाधित होने से भारी समस्या खड़ी हो जाएगी.”
प्रतिदिन दो करोड़ बैरल तेल की कमी पूरी कर पाना बेहद मुश्किल है. अमेरिका दुनिया में कच्चे तेल का सबसे बड़ा उत्पादक है.
पीटर हौगेन कहते हैं कि अमेरिका के पास फ़िलहाल 40 करोड़ बैरल कच्चे तेल का भंडार है. अगर इसमें से पर्शियन गल्फ़ या फ़ारस की खाड़ी से मिलने वाले तेल की कमी पूरी की जाए तो यह भंडार बीस दिन में ख़ाली हो जाएगा.
तेल उत्पादक देशों के संगठन ओपेक के पास भी रिज़र्व तेल भंडार हैं लेकिन उसमें से ज्यादातर पर्शियन गल्फ़ में हैं जिसके लिए होर्मुज़ स्ट्रेट की ज़रूरत है. इसके अलावा तेल का दूसरा स्रोत ओईसीडी यानी ऑर्गेनाइज़ेशन फ़ॉर इकोनॉमिक कोऑपरेशन एंड डेवेलपमेंट के सदस्य देशों का साझा भंडार है.
पीटर हौगेन के अनुसार ओईसीडी के पास फ़िलहाल 2.8 अरब बैरल तेल का सुरक्षित भंडार है. लेकिन वह भी चार-पांच महीने से ज्यादा नहीं चल पाएगा.
तेल की कीमत दुनिया भर के कुल तेल उत्पादन पर निर्भर करती है न कि राष्ट्रीय तेल उत्पादन पर. अगर तेल की कीमत बढ़ती है तो सभी देशों में सामान और सेवाओं की कीमत भी बढ़ जाती है.
इसराइल के ईरान पर हमले के फ़ौरन बाद ब्रेंट क्रूड के तेल की कीमत दस प्रतिशत बढ़ गई.
पीटर हौगेन के अनुसार इसराइल-ईरान संघर्ष से तेल सप्लाई में बाधा आने की आशंका से तेल की कीमत में उछाल आया.
पिछले संघर्षों के दौरान भी ईरान ने होर्मुज़ स्ट्रेट बंद करने की धमकी तो दी थी, लेकिन उसने ऐसा नहीं किया था और इसके कुछ कारण हैं.
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पेटर हौगेन का मानना है कि अमेरिका ने तेल के लिए मध्य-पूर्व के देशों पर अपनी निर्भरता कम कर दी है, इसलिए उसे ख़ास नुक़सान नहीं होगा. लेकिन ईरान के तेल के सबसे बड़े ख़रीददार को इससे निश्चित ही नुकसान होगा.
“इसका सबसे बुरा असर चीन पर पड़ेगा क्योंकि वह रोज़ाना एक करोड़ बैरल से अधिक तेल आयात करता है. इसमें से अधिकांश तेल मध्य-पूर्व से आता है और वहां फ़िलहाल तेल उत्पादन चालीस लाख बैरल प्रतिदिन से थोड़ा ही अधिक है.”
ईरान के परमाणु ठिकानों पर अमेरिकी हमले के बाद अमेरिका के विदेश मंत्री मार्को रूबियो ने चीन से अपील की कि वह ईरान से कहे कि होर्मुज़ स्ट्रेट बंद ना करे.
इससे चीन ही नहीं बल्कि यूरोप को भी बड़ा नुक़सान होगा मगर बड़े तेल उत्पादक रूस का तेल निर्यात बढ़ जाएगा. होर्मुज़ स्ट्रेट के बंद होने से केवल निर्यात ही नहीं बल्कि मध्य-पूर्व को अन्य आवश्यक सामग्रियों का आयात भी प्रभावित होगा.
मध्य-पूर्व में लगभग नब्बे प्रतिशत खाद्य सामग्री समुद्री रास्ते से आती है. तो दुनियाभर में तेल आपूर्ति के लिए होर्मुज़ स्ट्रेट कितना महत्वपूर्ण है?
यह दुनिया भर की तेल और गैस सप्लाई का एक प्रमुख मार्ग है. इसे बंद करने से मध्य-पूर्व के दूसरे देशों पर भी गहरा असर पड़ेगा. पहले से बढ़ती तेल की कीमतें और भी ऊपर चली जाएंगी.
इससे नुक़सान तो ईरान का भी होगा क्योंकि उसके सबसे बड़े तेल ग्राहक, चीन की सप्लाई बाधित होगी.
इतना ही नहीं, यह कदम मौजूदा ईरान-इसराइल संघर्ष की आग में तेल डालने जैसा साबित हो सकता है. किसी को पता नहीं कि आगे क्या होगा, क्या इससे नया टैंकर युद्ध शुरू होगा? चिंता सभी को है और सभी की नज़रें इस बात पर हैं कि ईरान क्या फ़ैसला करेगा.
बीबीसी के लिए कलेक्टिव न्यूज़रूम की ओर से प्रकाशित