नदी के उस पार से एक आदमी ज़ोर से कहता है, “हमें विराट कोहली दे दो.”
उत्तरी कश्मीर के केरन गांव के रहने वाले 23 साल के तुफ़ैल अहमद भट्ट कहते हैं, “नहीं, हम नहीं दे सकते.”
इस साधारण सी दिखने वाली बातचीत को ये इलाक़ा ख़ास बनाता है, जो कि लाइन ऑफ़ कंट्रोल (एलओसी) के दोनों तरफ़ है.
अक्सर, अस्थिर रहने वाला ये इलाक़ा चारों ओर से पहाड़ों से घिरा है और भारत-पाकिस्तान की सीमाओं को अलग करता है.
केरन और एलओसी से सटे आसपास के इलाक़ों के लोग कई सालों से इन दो देशों के बीच दुश्मनी की मार झेल रहे हैं.
साल 2021 में भारत ने कहा था कि सीमा क्षेत्र में सीज़फायर उल्लंघन की 594 घटनाएं हुई हैं, जिनमें गोलीबारी, मोर्टार और यहां तक कि आर्टिलरी हथियारों का इस्तेमाल हुआ. इसी साल चार भारतीय जवानों की मौत हुई.
इन आंकड़ों पर पाकिस्तान ने भारत सरकार पर सीज़फायर के उल्लंघन का आरोप लगाया और कहा कि भारत सरकार यह डेटा और सैनिकों की मौत के आंकड़े खुद से तैयार कर पेश कर रही है.
यह आमतौर पर ज़ाहिर है कि एलओसी के दोनों तरफ़ रहने वाले सैकड़ों लोग कई सालों से चल रहे इस संघर्ष में घायल होते हैं और मारे जाते हैं.
हालांकि, साल 2021 में दोनों देशों की सेनाओं के बीच सहमति बनने के बाद 2022 से सितंबर 2024 के बीच सिर्फ़ दो बार सीज़फायर उल्लंघन हुए हैं.
सीमावर्ती इलाक़ों में कैसे हो रहा बदलाव
इस इलाक़े के अधिकारियों और लोगों के दर्जनों इंटरव्यू के आधार पर यह पता चलता है कि हिंसा में आई भारी कमी से यहां के लोगों के जीवन में कैसे बदलाव आ रहा है.
तुफ़ैल इस बदलाव का एक प्रतीक हैं.
वो एलओसी से कुछ सौ मीटर की दूरी पर एक होम स्टे चलाते हैं. उनके होम स्टे की छत पर बने गोलियों के निशान से कोई भी व्यक्ति सीज़फायर के उल्लंघन के प्रभाव का अंदाज़ा लगा सकता है.
तुफ़ैल कहते हैं, “यहां कई होम स्टे खुलने के लिए तैयार हो रहे हैं.”
इसका श्रेय वो सरकार को देते हैं, जिसने बीते कुछ सालों में बॉर्डर टूरिज़्म पर ज़ोर दिया है.
वो कहते हैं, “यह हमारे लिए काफी फायदेमंद रहा. इससे पहले इमारत में निवेश करने के लिए किसी के पास कोई कारण नहीं था.”
इदरीस अहमद ख़ान केरन में एक दुकान चलाते हैं.
उनके मुताबिक़ इस इलाके की हमेशा उपेक्षा की गई.
उन्होंने बीबीसी से कहा, “केवल मोदी के प्रशासन ने हमारे लिए काम किया. पिछले कुछ सालों में हमें सड़कें मिलीं, बिजली मिली. मैं उनकी पार्टी को वोट भी दूंगा लेकिन वो यहां से नहीं लड़ रहे हैं.”
जम्मू और कश्मीर में साल 2018 से केंद्र सरकार का शासन है. यहां आख़िरी बार 2014 में विधानसभा चुनाव हुए थे. हालांकि, अब यहां दो चरण के मतदान हो गए हैं.
केरन और उत्तरी कश्मीर के रहने वाले लोग एक अक्तूबर को तीसरे चरण में अपना वोट डालेंगे.
हालांकि इदरीस अहमद ख़ान की तरह हर कोई प्रशासन से ख़ुश नहीं है.
प्रशासन से कहीं नाराज़गी तो कहीं ख़ुशी
पूर्व पुलिसकर्मी और यहां के स्थानीय निवासी अब्दुल क़दीर भट्ट कहते हैं, “हां, उन्होंने हमें बिजली दी लेकिन यहां हमेशा कटौती होती है. आप अगर रात में देखेंगे तो एलओसी पार हमारे पड़ोसी इलाके में एक सेकेंड के लिए भी बिजली नहीं जाती है. उनकी सड़कें देखिए. अगर वो लोग ये सारी सुविधाएं मुहैया करा सकते हैं तो हम क्यों नहीं.”
स्थानीय अधिकारियों का कहना है कि सीमावर्ती इलाक़ों के विकास के लिए ठोस प्रयास किए जा रहे हैं.
कुपवाड़ा ज़िले में 2021-22 में 2217 विकासशील परियोजनाओं का कार्य पूरा किया गया है.
इसके अगले साल यह आंकड़ा बढ़कर 4061 तक पहुंच गया और 2023-24 में 3453 रहा. केरन इसी ज़िले में आता है.
भारत सरकार द्वारा पिछले साल जारी किए गए आंकड़ों के मुताबिक़ बीते कुछ सालों में सीमावर्ती राज्यों में सबसे ज़्यादा जम्मू और कश्मीर में नई सीमाई सड़कें बनाई गई हैं.
बुनियादी ढांचों से जुड़ी स्वीकृत परियोजनाओं में अन्य सीमावर्ती राज्यों के मुकाबले जम्मू और कश्मीर का हिस्सा सबसे ज़्यादा है.
केरन से एक घंटे की दूरी पर बसे तंगधार में इन परियोजनाओं से चिंताएं दूर नहीं हुई हैं.
गांव के प्रधान मोहम्मद रफीक़ शेख़ ने हमें बताया कि उनके इलाके को सभी मौसम में सुचारू रूप से चलने वाली कनेक्टिविटी की ज़रूरत है.
उन्होंने कहा, “हमारे युवाओं को एग्ज़ाम देने के लिए बाहर जाना पड़ता है. हमारे पास ऐसे कई मामले हैं जब बर्फबारी के कारण रास्ते बंद हो जाते हैं और हमारे युवा रोज़गार के अवसरों से वंचित रह जाते हैं.”
युवाओं के लिए स्थानीय लोगों में दिखी चिंता
हमने इस इलाके में जितने भी लोगों से बात की उन्होंने युवाओं के लिए रोज़गार के मुद्दे को उठाया. स्थानीय लोगों ने बताया कि पहाड़ी इलाकों में बड़े पैमाने पर खेतीबाड़ी मना है और उनके पास पर्याप्त नौकरियां भी नहीं हैं.
इससे एक और स्थिति पैदा हो रही है.
शेख़ बताते हैं, “हमारा रोज़गार सेना द्वारा दिए जाने वाले कुली के काम पर आधारित है और वहां कितने लोगों को रोज़गार मिलेगा इसकी सीमाएं हैं. बीते कुछ सालों में हमने युवाओं के बीच ड्रग्स के इस्तेमाल को भी देखा है. हमने युवाओं को सही रास्ते पर लाने के लिए बहुत मेहनत की. लेकिन समस्या अभी भी बनी हुई है.”
इस इलाके में बीते कुछ सालों में चरमपंथी घटनाएं भी हुई हैं, जिसके कारण यहां सुरक्षाबलों की तैनाती अभी भी बनी हुई है.
इसलिए यहां तक आना आसान नहीं है. इस इलाके में आने से पहले किसी भी व्यक्ति को अनुमति की ज़रूरत होती है. अनुमति नहीं होने पर सुरक्षा बल पहचान से जुड़े दस्तावेज़ देखते हैं. हमारी गाड़ी और अन्य सामान की भी बार-बार जांच की गई है.
रोज़गार, बिजली और मोबाइल नेटवर्क की समस्या
स्थानीय लोगों ने स्वास्थ्य सुविधाओं की कमी और ग़रीबों के लिए अपर्याप्त राशन के मुद्दे को भी उठाया. सीमारी गांव में हमारी मुलाकात नहीदा परवीन से हुई. वो एक ग्रेजुएट हैं और शिक्षक बनना चाहती हैं.
जब हमने उनसे पूछा कि सरकार से उन्हें क्या उम्मीदें हैं तो उन्होंने कहा, “मैं सरकार से गुज़ारिश करती हूं कि यहां निजी स्कूल शुरू करने की सुविधा दी जाए. अभी यहां एक भी निजी स्कूल नहीं हैं. यहां कोई सरकारी नौकरी नहीं है. मेरी जैसी पढ़ी-लिखी लड़कियां वहां पढ़ाएंगी.”
ज़्यादातर स्थानीय लोगों ने हमें बताया कि वे चुनावी प्रक्रिया में भाग लेंगे.
एक अन्य स्थानीय अब्दुल अज़ीज़ लोन कहते हैं, “हम सबको पता है कि हर घर को एक मुखिया की ज़रूरत होती है और अभी कश्मीर के लिए कोई भी नहीं खड़ा है.”
तंगधार से 100 किलोमीटर दूर उत्तर-पूर्व इलाके में एलओसी के पास बसा माचिल वैली हमारा आखिरी पड़ाव था.
इस गांव में सरकार द्वारा बनवाए गए बॉम्ब शेल्टर हैं. हम एक शेल्टर में गए. कंक्रीट से बने और खराब हो रहे इस शेल्टर के दरवाज़े में जंग लग चुकी है, लेकिन वो काम कर रहे थे.
एक स्थानीय ने कहा, “इस गांव में हम करीब एक हज़ार लोग रहते हैं, लेकिन इस शेल्टर में मुश्किल से केवल 100 लोग ही पनाह ले सकते हैं.”
यहां भी हाल ही में बिजली आई है.
माचिल में आठवीं क्लास में पढ़ने वालीं सानिया कहती हैं कि बिजली के होने से वो ज़्यादा देर तक पढ़ सकती हैं. उनके सपने के बारे में पूछने पर वो कहती हैं कि वो एक आईएएस (भारतीय प्रशासनिक सेवा) अधिकारी बनना चाहती हैं.
भारत और पाकिस्तान के बीच अस्थिर संबंधों की वजह से स्थानीय लोग बताते हैं कि उन्हें डर है कि कहीं फिर से सीज़फायर उल्लंघन की घटनाएं ना शुरू हो जाएं.
यहां के एक शिक्षक अब्दुल हमीद शेख कहते हैं, “हममें से किसी को भी वो दिन भूले नहीं हैं. हमें ये उम्मीद है और हम प्रार्थना करते हैं कि शांति बनी रहे.”
केरन और सीमारी में युवाओं ने मोबाइल नेटवर्क की कमी को लेकर भी चिंता ज़ाहिर की.
तुफ़ैल कहते हैं, “मेरे होम स्टे के लिए मेरे पास एक वेबसाइट है. मेरे पास यूट्यूबर्स और ब्लॉगर्स के रिफरेंसस हैं लेकिन इससे कोई फर्क नहीं पड़ेगा क्योंकि लोगों के मेरे तक पहुंचने के लिए कोई मोबाइल नेटवर्क नहीं है.”
नहीदा कहती हैं, “हमें अपने फोन में नेटवर्क के लिए एक घंटे की दूरी पर चलकर जाना पड़ता है. क्या आप मेरे इस संदेश को अधिकारियों तक पहुंचा सकते हैं कि उन्हें इस पर काम करने की ज़रूरत है.”
(अतिरिक्त रिपोर्टिंग : विकार अहमद शाह)
बीबीसी के लिए कलेक्टिव न्यूज़रूम की ओर से प्रकाशित