“हमारे राष्ट्रपति पहले ही साफ़ कर चुके हैं कि तुर्की ब्रिक्स समेत सभी अहम प्लेटफॉर्म्स में हिस्सा लेना चाहता है.”
तुर्की के राष्ट्रपति रेचेप तैय्यप अर्दोआन की पार्टी के प्रवक्ता उमर सेलिक.
प्रवक्ता ने ये बात तो नहीं स्वीकारी कि तुर्की ने ब्रिक्स की सदस्यता के लिए औपचारिक आवेदन किया है पर ये ज़रूर कहा है कि एक ‘प्रक्रिया शुरू हो गई है.’
ब्रिक्स 22-24 अक्तूबर के बीच रूस के शहर कज़ान में होने वाली बैठक के दौरान नए सदस्यों को शामिल करने के बारे में निर्णय करेगा.
अगर तुर्की ब्रिक्स में शामिल हुआ तो क्या होगा?
अगर तुर्की को वाकई ब्रिक्स की ओर से सदस्यता लेने का न्योता मिलता है तो वो पहला ऐसा नेटो देश बन जाएगा जो रूस और चीन वाले किसी भी गैर-पश्चिमी आर्थिक अलायंस में शामिल हुआ हो.
तुर्की-रूस रिश्तों के एक्सपर्ट करीम हास कहते हैं, “मेरे ख़्याल से ये सिर्फ़ तुर्की के लिए ही नहीं बल्कि ब्रिक्स के लिए भी बहुत अहम होगा.”
करीम हास कहते हैं कि तुर्की को विदेशी निवेश की ज़रूरत है क्योंकि देश एक गंभीर आर्थिक संकट से गुज़र रहा है.
वह कहते हैं, “अगर तुर्की की अर्थव्यवस्था धराशाई होती है तो ये यूरोपीय बैंकों के लिए भी ख़तरनाक होगा क्योंकि तुर्की की अर्थव्यवस्था उन्हीं पर निर्भर है. तुर्की का आधा कारोबार यूरोपीय संघ के देशों के साथ है.”
काउंसिल ऑफ़ यूरोपियन यूनियन के मुताबिक तुर्की 31.8% हिस्से के साथ यूरोपीय संघ का सबसे बड़ा ट्रेडिंग पार्टनर है. साल 2022 में यूरोपीय संघ और तुर्की के बीच कुल 200 बिलियन यूरो का ट्रेड हुआ था.
करीम हास कहते हैं कि यही वजह है कि यूरोप तुर्की के यूक्रेन युद्ध के बाद रूस पर लगे प्रतिबंधों में हिस्सा न लेने की चुपचाप कबूल कर रहा है.
वह कहते हैं. “पश्चिमी देश तुर्की के रूस और ब्रिक्स देशों के साथ बढ़ते आर्थिक संबंधों को सहन कर रहे हैं.”
“साथ ही अगर नेटो सहयोगी तुर्की अगर ब्रिक्स का सदस्य बना तो उसे ब्रिक्स के भीतर पश्चिम विरोधी स्वरों को कम करने की भूमिका भी निभानी होगी.”
“अगर अमेरिका और ब्रिटेन के नज़रिए से देखें तो ब्रिक्स के भीतर तुर्की का अघोषित रोल उसे पश्चिमी देशों का विरोधी संगठन बनने से रोकना होगा.”
ब्रिक्स क्या है?
शुरू में ये समूह ब्रिक कहलाता था. ये विकासशील देशों का एक समूह है जिसका गठन वर्ष 2006 में हुआ था. इसमें ब्राज़ील, रूस, भारत और चीन शामिल थे. साल 2010 में इस समूह में दक्षिण अफ़्रीका भी शामिल हो गया और तब इसका नाम ब्रिक से बदल ब्रिक्स कर दिया गया.
ब्रिक्स का गठन उत्तरी अमेरिका और पश्चिमी यूरोप के अमीर देशों की राजनीतिक और आर्थिक शक्ति को चुनौती देने के लिए, दुनिया के सबसे महत्वपूर्ण विकासशील देशों को एकजुट करने के मकसद से हुआ था.
इस आर्थिक अलायंस में हाल के वर्षों में कई विस्तार हुए हैं. अब इसमें ईरान, मिस्र, इथीयोपिया और संयुक्त अरब अमीरात भी शामिल हो चुके हैं.
सऊदी अरब ने भी इस समूह में शामिल होने की इच्छा ज़ाहिर की है और अज़रबैजान ने तो सदस्यता के लिए औपचारिक अर्ज़ी भी दे दी है.
ब्लूमबर्ग एजेंसी पर बीते सोमवार को आई रिपोर्ट बताती है कि तुर्की ने कई महीने पहले ही ब्रिक्स में शामिल होने की अर्ज़ी दे दी है.
राष्ट्रपति रेचेप तैय्यप अर्दोआन ने साल 2018 में ही दक्षिण अफ्रीका में हुए 10वें ब्रिक्स शिखर सम्मेलन के दौरान इस आर्थिक अलायंस में शामिल होने की इच्छा ज़ाहिर कर दी थी.
तुर्की ने क्यों किया ब्रिक्स का रुख़?
तुर्की पर दो दशकों से अधिक समय से राज कर रहे राष्ट्रपति अर्दोआन अपने देश की यूरोपीय संघ में शामिल करने की कोशिशों को विफल होते देख चुके हैं. यूरोप का कहना है कि संघ में शामिल होने से पहले तुर्की को पूर्वी और पश्चिमी देशों के साथ अपने संबंध सुधारने होंगे.
अर्दोआन चीन और रूस के क्षेत्रीय सहयोग संगठन के बारे में कहा, “हमें यूरोपीय यूनियन और शंघाई कॉ-ऑपरेशन ऑर्गेनाइज़ेशन के बीच चुनाव नहीं करना है. इसके विपरीत हमें इन दोनों और अन्य संगठनों के साथ संबंध का विकास करना है.”
साल 2022 में तुर्की के कुल व्यापार में से 11% का ट्रेड रूस के साथ और 7.2% चीन के साथ था.
करीम हास को लगता है कि ब्रिक्स में शामिल होने की तुर्की की कोशिशों का रूस भरपूर साथ देगा.
वह कहते हैं, “यूक्रेन में जंग के कारण रूस की प्राथमिकता अपनी अर्थव्यवस्था को मज़बूत बनाए रखना है ताकि उसकी इकोनॉमी पश्चिमी देशों के प्रतिबंधों के बोझ तले धराशाई न हो जाए.”
“तो रूस तुर्की को अपने करीब रखना चाहेगा. इन दोनों देशों के बीच ऊर्जा, व्यापार से लेकर पर्यटन जैसे क्षेत्रों ख़ासा सहयोग रहा है. रूस के लिए भी किसी नेटो देश के साथ अच्छे रिश्ते कायम करना फ़ायदेमंद होगा.”
अमेरिकी थिंक टैंक विल्सन सेंटर के युसूफ़ कान कहते हैं, “ब्रिक्स और एससीओ जैसे संगठनों में तुर्की की रूचि को किसी शिफ्ट के तौर पर नहीं देखा जाना चाहिए.”
“इन संगठनों में किसी सहयोगी की मौजूदगी से नेटो को फ़ायदा ही होगा.”
आर्थिक संकट में फंसा तुर्की
तुर्की की इस बेताबी की वजह वहां का गहराता आर्थिक संकट और विदेशी निवेश पर निर्भरता है. यही कारण है कि उसे भूराजनीतिक रूप से इस ‘बैलेंसिग एक्ट’ का सहारा लेना पड़ रहा है.
आईएमएफ के 2023 आंकड़ों के अनुसार तुर्की दुनिया की 17वीं सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था है.
आंकड़ों के मुताबिक 71.6% की आधिकारिक वार्षिक उपभोक्ता मूल्य सूचकांक के साथ, तुर्की जिम्बाब्वे, अर्जेंटीना, सूडान और वेनेजुएला के ठीक बाद आता है.
हाल के दिनों में जितने भी ओपिनियन पोल आए उनमें बढ़ती महंगाई के देश की जनता पर सबसे बड़ा बोझ होने की ओर इशारा किया.
राष्ट्रपति रेचेप तैय्यप अर्दोआन ने लगातार तुर्की के केंद्रीय बैंक पर ब्याज़ दर को कम बनाए रखने का दबाव दिया. उनका ज़ोर विकास पर रहा.
उनका मानना है कि महंगाई ब्याज़ दर बढ़ने का ही नतीजा है.
लेकिन पिछले एक साल में उन्होंने आर्थिक नीति में बदलाव किया है और नया प्रशासन ‘रूढ़िवादी’ ढर्रे को अपना रहा है. मसलन, तुर्की के सेंट्रल बैंक के नए बोर्ड ने केवल नौ महीनों के बीच ब्याज़ दर को 8.5 फ़ीसदी से बढ़ाकर 50 फ़ीसदी कर दिया है.
भले ही तुर्की के मौजूदा वित्त मंत्री मेहमेत सिमसेक दावा करते हैं कि नई नीति अच्छा काम कर रही है और जहां तक महंगाई की बात है तो ‘बुरा दौर बीत चुका है’. लेकिन बहुत से लोगों के मन में भविष्य के लिए अभी भी कई संदेह हैं.
बर्लिन स्कूल ऑफ़ इकोनॉमिक्स एंड लॉ के डॉक्टर उमित अक्के कहते हैं, “जब से सिमसेक को नियुक्त किया गया है, महंगाई दोगुना हो चुकी है और तुर्की की मुद्रा यानी लीरा भी बहुत गिर गई है. वो भी तब जब ब्याज़ दरें 8 फ़ीसदी से बढ़कर 50 फ़ीसदी पर आ गई हैं.”
“ये सिमसेक की उस रूढ़िवादी नीति की ओर इशारा करता है, जिसके तहत घरेलू मांग और तन्ख्वाह में अत्याधिक बढ़ोतरी को ही महंगाई बढ़ने का सबसे अहम कारण माना जाता है. ये प्रभावी नहीं है.”
विशेषज्ञों का कहना है कि यह साफ़ नहीं है कि भविष्य में तुर्की की अर्थव्यवस्था का क्या होगा.
डॉ. अक्के का तर्क है, “आने वाले महीनों में मुद्रास्फीति की दर में गिरावट आ सकती है. हालांकि,महंगाई की दर घटने का ये मतलब यह नहीं है कि रोज़ाना की ज़रूरतों की लागत भी घट जाएगी. वास्तविक वेतन वृद्धि या निचले वर्गों की पर्याप्त मदद के बिना ये संकट बरक़रार रहेगा.”
अगर तुर्की कि इस आर्थिक गठबंधन में प्रवेश की कोशिश सफल होती है तो उसकी अर्थव्यवस्था को मज़बूती मिलेगी.
लेकिन यह भी संभावना है कि ब्रिक्स के साथ तुर्की के संभावित संबंधों का मुख्य मकसद आर्थिक से ज़्यादा सियासी है.
बीबीसी के लिए कलेक्टिव न्यूज़रूम की ओर से प्रकाशित