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राज ठाकरे 2005 में शिव सेना से अलग हुए थे. क़रीब 20 साल बाद राज ठाकरे ने पाँच जुलाई को मुंबई की एक रैली में उद्धव ठाकरे के साथ मंच साझा किया.
राज ठाकरे ने इस रैली को संबोधित करते हुए कहा कि जो बालासाहेब नहीं कर पाए, वो देवेंद्र फडणवीस ने कर दिया.
राज ठाकरे का कहना था कि मुख्यमंत्री फडणवीस की नीतियों ने उन्हें उद्धव के साथ ला खड़ा किया.
जब राज ठाकरे ने शिव सेना से बग़ावत की थी तो बाल ठाकरे की उम्र 80 साल थी. राज ठाकरे ने 2006 में महाराष्ट्र नवनिर्माण सेना बनाई थी और 2012 में बाल ठाकरे का निधन हुआ था.
यानी बाल ठाकरे के निधन के क़रीब 13 साल बाद राज ठाकरे ने अपने परिवार के साथ आने का फ़ैसला किया है. उद्धव ठाकरे ने रैली को संबोधित करते हुए कहा- हम साथ आए हैं और साथ रहेंगे. हम साथ में एमसीडी पर क़ब्ज़ा करेंगे और फिर महाराष्ट्र पर.
राज ठाकरे ने रैली में कहा कि आप विधानसभा में शासन कर सकते हैं लेकिन सड़क पर शासन हमारा होगा.
2009 के महाराष्ट्र विधानसभा चुनाव में राज ठाकरे की महाराष्ट्र नवनिर्माण सेना पहली बार उतरी थी और उसे 13 सीटों पर जीत मिली थी. उसका वोट शेयर लगभग छह प्रतिशत था.
2014 और 2019 के महाराष्ट्र विधानसभा चुनाव में एमएनएस को एक-एक सीट पर जीत मिली थी जबकि 2024 के महाराष्ट्र विधानसभा में चुनाव में एमएनएस शून्य पर आ गई. यहाँ तक कि राज ठाकरे के बेटे अमित ठाकरे माहिम विधानसभा क्षेत्र में केवल 31,611 वोट ही पा सके और तीसरे नंबर पर रहे.
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राज ठाकरे की शख़्सियत
राज ठाकरे की पार्टी महाराष्ट्र नवनिर्माण सेना ने 2024 के विधानसभा चुनाव में पूरे महाराष्ट्र में 128 उम्मीदवार उतारे थे और एक को भी जीत नहीं मिली.
दूसरी तरफ़ उद्धव ठाकरे की शिव सेना भी 95 सीटों पर उम्मीदवार उतार केवल 20 सीटें जीत पाई थी. उद्धव ठाकरे कांग्रेस और एनसीपी के साथ गठबंधन में थे.
बाल ठाकरे की मृत्यु के बाद महाराष्ट्र में बीजेपी, शिवसेना से बड़ी हो गई और उद्धव को ऐसी चुनौती मिली कि बाल ठाकरे की विरासत ही उनके हाथ से फिसल गई. मसलन पार्टी का नाम और चुनाव चिह्न तीर-धनुष दोनों छोड़ना पड़ा.
राज ठाकरे तो पहले से ही चुनावी राजनीति में हाशिए पर थे लेकिन उद्धव की पकड़ भी ढीली पड़ रही थी. ऐसी स्थिति में दोनों भाइयों के साथ आने से क्या महाराष्ट्र में मराठी अस्मिता की लड़ाई फिर से ज़िंदा हो पाएगी?
महाराष्ट्र की राजनीति पर गहरी नज़र रखने वाले वरिष्ठ पत्रकार सुधीर रघुवंशी कहते हैं कि राज ठाकरे चुनाव में प्रदर्शन के आधार पर शून्य हैं लेकिन सड़क पर माहौल बनाने में माहिर हैं.
सुधीर रघुवंशी कहते हैं, ”दोनों के साथ आने से विधानसभा में संख्या बल पर कोई असर नहीं पड़ेगा लेकिन माहौल बना सकते हैं. बहुत अरसे बाद महाराष्ट्र में एक राजनीतिक परिवार में जुड़ाव हुआ है. इसे महाराष्ट्र की जनता सकारात्मक रूप में ले रही है. जब शिव सेना और एनसीपी टूटी तो महाराष्ट्र के आम लोगों में कोई अच्छा संदेश नहीं गया था. आम लोग भी परिवार का टूटना पसंद नहीं करते हैं.”
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एकनाथ शिंदे को नुक़सान?
सुधीर रघुवंशी कहते हैं, ”महाराष्ट्र में बीजेपी के मज़बूत होने से विपक्ष कमज़ोर हो गया था. अब राज ठाकरे के साथ आने से सड़क पर विपक्ष की लड़ाई मुखर हो सकती है. मुझे लगता है कि राज और उद्धव के साथ आने से सबसे बड़ा नुक़सान एकनाथ शिंदे को होने जा रहा है. शिव सेना का जन्म मराठी अस्मिता की राजनीति के लिए हुआ था और एकनाथ शिंदे इस राजनीति को आगे ले जाने में सक्षम नहीं दिख रहे हैं. पुणे में अमित शाह की सभा में एकनाथ शिंदे ने जय गुजरात का नारा लगाया था. यह एकनाथ शिंदे पर बहुत भारी पड़ा है.”
सुधीर रघुवंशी कहते हैं, ”मराठी वोट बैंक उद्धव और राज के साथ लामबंद हो सकता है. इस साल के आख़िर में या अगले साल जनवरी में एमसीडी (मुंबई महानगरपालिका) का चुनाव होगा तो दोनों भाई साथ मिलकर कैसा प्रदर्शन करते हैं, इससे भी चीज़ें स्पष्ट हो जाएंगी. दोनों भाइयों को पहली कामयाबी तो मिल चुकी है. फडणवीस सरकार के पास बहुमत है फिर भी ‘थ्री लैंग्वेज पॉलिसी’ को वापस लेना पड़ा. यह राज ठाकरे और उद्धव ठाकरे के साथ आने की पहली जीत है.”
महाराष्ट्र सरकार की प्रस्तावित नीति प्रदेश में पहली क्लास से हिन्दी को अनिवार्य भाषा के रूप में शामिल करने की थी लेकिन तीखे विरोध के बाद फडणवीस सरकार ने इस नीति को निलंबित कर दिया है.
क्या राज ठाकरे और उद्धव की जोड़ी बीजेपी की हिन्दुत्व की राजनीति को झटका दे सकती है? क्या हिन्दुत्व की राजनीति के लिए क्षेत्रीय भाषायी गर्व बड़ी चुनौती है?
पश्चिम बंगाल की जाधवपुर यूनिवर्सिटी में राजनीति विज्ञान के प्रोफ़ेसर अब्दुल मतीन कहते हैं कि हिन्दुत्व की राजनीति ने ख़ुद को बहुत मॉडिफाई किया है.
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हिन्दुत्व की राजनीति पर कैसा असर
प्रोफ़ेसर मतीन कहते हैं, ”ये हिन्दुत्व में एकरूपता चाहते हैं लेकिन उस हद तक नहीं कि हिन्दू इनसे भाषा और संस्कृति में किसी भी तरह के हस्तक्षेप के ख़िलाफ़ खड़े हो जाएं. मिसाल के तौर पर पश्चिम बंगाल के नए बीजेपी अध्यक्ष शमित भट्टाचार्य जय श्रीराम की जगह जय माँ काली का नारा लगाते हैं. हिन्दुत्व के लिए पहली चुनौती मुसलमान हैं और इस चुनौती से निपटने के लिए हिन्दी का आग्रह छोड़ने में बीजेपी रत्ती भर का समय नहीं लगाएगी.”
प्रोफ़ेसर मतीन कहते हैं, ”राज ठाकरे और उद्धव ठाकरे को मराठी प्राइड की राजनीति में हिन्दी भले खटकती है लेकिन हिन्दुत्व से कोई समस्या नहीं है. हिन्दुत्व के सारे महारथी तो मराठी ब्राह्मण ही थे. अब भी आरएसएस के शीर्ष पर मराठी ब्राह्मण ही हैं. सत्ता की हिस्सेदारी के लिए मराठी का मुद्दा आ सकता है लेकिन हिन्दुत्व के नाम पर ये विरोधी होकर भी साथ रहेंगे. राज ठाकरे के लिए जब हिन्दुत्व की बात आएगी तो एक मराठी मुसलमान की तुलना में एक बिहारी हिन्दू को चुनने में बहुत दुविधा की स्थिति नहीं होगी.”
सुधीर सूर्यवंशी भी मानते हैं कि हिन्दुत्व और मराठी प्राइड को ठाकरे परिवार क्लब करने की कोशिश करेगा.
सूर्यवंशी कहते हैं, ”उद्धव ठाकरे का आप भाषण सुनेंगे तो उन्होंने स्पष्ट कहा कि उनका मराठी हिन्दुत्व है. यह उत्तर भारत का हिन्दुत्व नहीं है. उद्धव ठाकरे कांग्रेस के साथ रहकर भी हिन्दुत्व की बात करते थे और राहुल गांधी जब सावरकर पर हमला बोलते थे, उसकी निंदा करते थे. एक बात हमें समझनी होगी कि ठाकरे परिवार बीजेपी के लिए कोई अछूत नहीं है. बीजेपी राज ठाकरे पर बहुत हमलावर नहीं है. अब तो बीजेपी को एकनाथ शिंदे से ज़्यादा दिक़्क़तें हो रही हैं. ऐसे में बीजेपी फिर से ठाकरे परिवार के साथ हो जाए तो इसमें कोई हैरानी नहीं होगी.”
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उद्धव पर राज ठाकरे के आने का असर
उद्धव की पहचान अपने पिता बाल ठाकरे से बिल्कुल अलग रही है. वह राजीव गांधी की तरह राजनीति में अनिच्छुक नेता की तरह रहे हैं. जिस तरह से बाल ठाकरे मुसलमानों और हिन्दी भाषियों को निशाने पर लेते थे, वैसा बयान उद्धव का नहीं मिलता है.
शिव सैनिक उग्र हिन्दुत्व और मराठी अस्मिता की राजनीति की भाषा समझते थे लेकिन उद्धव मध्यमार्गी और धर्मनिरपेक्षता की बात कर रहे थे. कहा जा रहा है कि अब राज ठाकरे के साथ आने के बाद उद्धव और शिव सेना का तेवर पहले की तरह नहीं रहेगा.
वरिष्ठ पत्रकार नीरजा चौधरी कहती हैं कि राज के आने के बाद उद्धव की भाषा बदल चुकी है. वह कहती हैं, ”उद्धव ने पाँच जुलाई को मुंबई में मंच से जिस आक्रामक भाषा में लोगों को संबोधित किया, ये अब तक की उनकी राजनीति नहीं थी. मुझे लगता है कि दोनों भाइयों के साथ आने से बीजेपी से ज़्यादा चिंता कांग्रेस को होनी चाहिए. महाराष्ट्र में विपक्ष वाली स्पेस ज़्यादा ख़ाली है और दोनों भाई पहले इसी स्पेस को भरेंगे. कांग्रेस इस बात को अभी गंभीरता से ले नहीं रही है.”
नीरजा चौधरी कहती हैं, ”मुझे लगता है कि दोनों भाई मराठी अस्मिता की राजनीति को तोड़फोड़ की हद तक ले जा सकते हैं लेकिन यह रणनीति लंबी अवधि में काम नहीं करेगी. इसका नतीजा यह भी होगा कि हिन्दी और गुजराती भाषी एकजुट हो जाएंगे.”
”मैं महाराष्ट्र के एक आदिवासी इलाक़े में गई थी. वहां की महिलाओं से कहा कि अगर आपकी मांग प्रधानमंत्री के पास लेकर जाऊं तो क्या मांगना चाहेंगी? इन महिलाओं ने एक स्वर में कहा कि वे अपने बच्चों को अंग्रेज़ी मीडियम स्कूल में पढ़ाना चाहती हैं. ऐसे समय में भाषा को लेकर राजनीति अब बहुत प्रासंगिक नहीं लगती है.”
कहा जाता है कि बीजेपी ने 2014 के बाद देश के भीतर कई तरह के उपराष्ट्रवाद को कमज़ोर किया है लेकिन अब भी बांग्ला उपराष्ट्रवाद, तमिल उपराष्ट्रवाद इनके लिए चुनौती बनी हुई है.
बीबीसी के लिए कलेक्टिव न्यूज़रूम की ओर से प्रकाशित